Tuesday, August 5, 2008

लोकतंत्र की विचारधारा का विस्तार और विस्फोट

अनिल चमड़िया
भाजपा शासित बंगलूरू और अहमदाबाद में बम विस्फोट की घटनाएं और सूरत में बम विस्फोट की बड़े पैमाने पर तैयारी ने कुछ अहम सवाल खड़े किए हैं। पहली बात तो इन घटनाओं के बाद जिस तरह की राजनीतिक प्रतिक्रियाएं हुई हैं वे पिछली तमाम ऐसी घटनाओं से बिल्कुल भिन्न हैं । भाजपा की सुषमा स्वराज ने कहा है कि ये विस्फोट सुनियोजित हैं। उन्होंने विश्वास मत प्रकरण में पैसे देकर वोट खरीदने और अमेरिकी परस्त छवि से ध्यान हटाने के उद्देश्य से विस्फोट किए गए बताया है। पहली बार हुआ है कि विस्फोटों में पाकिस्तान और बांग्लादेश की तरफ इशारा करके उनकी भूमिका की तरफ उंगुली नहीं उठाई गई है। बल्कि इससे उलट कहा गया कि अमेरिकी परस्त छवि से मुस्लिम मतदाताओं में पसरी नाजरागी को भुलाकर धर्मनिरपेक्ष राजनीतिक समीकरणों की तरफ मुस्लिमों को खींचने की कोशिश की गई है। पहला सवाल है कि पहले जितने विस्फोट हुए उनमें से किसी को भी सुनियोजित क्यों नहीं माना जाए? संभव है उन्हें भी किसी बात से ध्यान हटाने के लिए ही अंजाम दिया गया हो? दूसरा कि क्या राजनीति का इतना पतन हो चुका है कि किसी नकारात्मक रूख को दूसरी दिशा में मोड़ने के लिए किसी भी स्तर पर जाया जा सकता है? क्या राजनीति ने अपने हितों के लिए हिंसक गिरोह खड़े कर लिये हैं? इन विस्फोटों को साजिशन बताकर जिस तरफ इशारा किया जा रहा है यदि उसकी समझ सही है तो देश के लोगों के सामने क्या चारा रह जाता है? भूमंडलीकरण के दौर में आतंकवाद की राजनीति जिस साजिश के तहत विस्तारित हुई है इसकी जड़ें कितनी दूर तक और गहरे फैली हुई हैं?
ये सवाल तो सुषमा स्वराज की प्रतिक्रिया से सीधे खड़े होते हैं। लेकिन इन सवालों के विपरीत दिशा में भी सवाल खड़े होते हैं। भाजपा शासित राज्यों में ही ये विस्फोट क्यों? इन राज्यों से पहले जयपुर में भी इसी तरह विस्फोट हुए। क्या इन विस्फोटों को भाजपा को बदनाम करने की साजिश के बजाय इस तरह भी देखा जाए कि भाजपा की गतिविधियों ने आम जन जीवन को बेहद असुरक्षित बना दिया है? भाजपा की साम्प्रदायिक राजनीति से लोगों में असुरक्षा बोध बढ़ा है। अपने ऊपर उठते सवालों को लेकर वह चितित हो गई है और खुद को सुरक्षित करना अपनी प्राथमिकता समझने लगी है। यह महज संयोग तो नहीं हो सकता है कि गोधरा की ट्रेन आगजनी की घटना के बाद जिस तरह से गुजरात के मुख्यमंत्री ने सेना को बुलाने में कोताही बरती वहीं नरेन्द्र मोदी ने इन विस्फोटों के बाद आधे घंटे के अंदर सेना बुला ली और प्रतिक्रिया की भाषा में बात करने के बजाय लोगों से अमन चैन बनाए रखने की अपील के लिए दौड़ पड़े। अहमदाबाद में विस्फोट से पहले इसका दावा ठोकने वाले ने ईमेल के जरिये इसकी वजह 2002 के मुस्लिम विरोधी दंगों को बताया । बाबरी मस्जिद को गिराए जाने के बाद ही मुंबई में विस्फोट की घटनाएं हुई थीं।
देश एक गंभीर स्थिति में हैं। तत्काल राजनीतिक फायदे के लिए जो कुछ किया जाता है उससे सत्ता तो प्राप्त हो सकती है लेकिन उससे जो राजनीतिक प्रवृत्ति स्थापित होती है उसके गंभीर परिणाम देश को भुगतने पड़ते हैं। देश के गृह राज्य मंत्री प्रकाश जायसवाल ने कहा है कि विस्फोट गुजरात दंगों की प्रतिक्रिया है। पंजाब में स्वर्ण मंदिर में ब्लू स्टार आपरेशन के बाद इंदिरा गांधी की हत्या की घटना और उसके बाद हुई हिसा को राजीव गांधी ने पेड़ के उखड़ने पर धरती के हिलने की भाषा में प्रतिक्रिया व्यक्त की थी। पंजाब को अब तक शांत मानकर बैठा नहीं जा सकता है। यदि ऐसी तमाम घटनाओं को इस दिशा में देखा जाए कि क्या आतंकवाद का विस्तार लोकतंत्र के संकुचन और वर्चस्व की राजनीति स्थापित करने की योजना से जुड़ा हुआ है? देश में जिन घटनाओं को आतंकवाद की श्रेणी में रखकर बात की जाती है वह अल्पसंख्यकों से जुड़ी राजनीति के इर्द-गिर्द दिखाई देती है। देश में अल्पसंख्यकों की आमतौर पर सत्ता से शिकायत रही है। न केवल सत्ता मशीनरियों के उनके खिलाफ हमलों को लेकर, बल्कि उनके खिलाफ हमलों के बाद न्याय नहीं मिलने को लेकर भी। पिछले दिनों से यह भी देखा जा रहा है कि नक्सलवाद एवं माआ॓वाद को भी आतंकवाद की श्रेणी में शामिल करने की कोशिश हुई है। इन नक्सलवादियों और माआ॓वादियों के साथ कौन हैं? आखिर देश के दलितों के किसी छोटे से भी हिस्से को हथियार उठाने की जरूरत क्यों पड़ती है? सत्ता अपने भारी-भरकम बल के बूते हमले कर सकती है तो हमले के शिकार लोगों के सामने क्या चारा रह जाता है?
भारत को गणतांत्रिक बनाए रखना इसके बने रहने की अनिवार्यता से जुड़ा है। लेकिन राजनीतिक पार्टियों ने लोकतंत्र को सत्ता में बने रहने से जोड़ दिया है और उसके लिए उन्हें बहुसंख्यक और वर्चस्ववादी समूहों की राजनीति तक समेट कर रख दिया है। ये बात सभी संसदीय पार्टियों की विचारधारा के रूप में स्थापित हो चुकी है। हर राजनीतिक पार्टी लोकतंत्र के विस्तार के बजाय लोकतंत्र की सुरक्षा पर जिस तरह से जोर देती है उस पर गौर करने की जरूरत है। अब विस्फोटों की घटना के बाद मुख्यत: दो तरह की मांग सामने आती है। एक के द्वारा संघीय जांच एजेंसी बनाने की होती है तो दूसरे के द्वारा कठोर कानून बनाने की मांग दोहरायी जाती है। इन मांगों में क्या दिखाई देता है? संघीय जांच एजेंसी के क्या मायने है? गणतंत्र में राज्यों के अधीन कानून एवं व्यवस्था की मशीनरी होती है। आखिर केन्द्र विस्फोटों के बाद राज्य की इस ताकत को ही अपने हाथों में लेने पर क्यों जोर देता है? इससे लोकतंत्र का विस्तार कहां जुड़ा है? लोकतंत्र का विस्तार तो राज्यों को मजबूत करने से जुड़ा है, राज्यों के बीच ताममेल की संस्कृति को बढ़ाने से जुड़ा है। केन्द्र ऐसी घटनाओं के पीछे भारतीय दंड विधान की धाराओं से देखने की ही ष्टि क्यों अपनाता है? दूसरा, कठोर कानून का क्या अर्थ है? कानून के साथ लगे कठोर के विशेषण को खोलकर क्यों नहीं बताया जाता है कि गणतांत्रिक व्यवस्था में न्यायिक प्रक्रिया का जो ढांचा खड़ा है उसे सत्ता द्वारा तोड़ना शामिल है। टाडा और पोटा का सीधा अर्थ क्या है? पुलिस किसी वर्ग या जाति को अपने डंडों के बूते डरा धमकाकर रखे। लेकिन इससे लोकतंत्र मजबूत नहीं हो सकता है। बल्कि इसमें लोकतंत्र में असुरक्षा के भाव का विस्तार हो जाता है। अल्पसंख्यकों के अंदर से निकल बहुसंख्यकों के दबे-कुचले हिस्से तक में सत्ता के भय और असुरक्षा का विस्तार हो जाता है।
देश में विस्फोटों की घटनाओं को अब तक जिस तरह से देखा जा रहा है उसने कई राजनीतिक सवाल खड़े किए हैं। इससे पहले महाराष्ट्र में विस्फोट की घटनाओं ने इस माइंड सेट को तोडा था कि इनमें केवल अल्पसंख्यकों के समूहों के बीच के लोग होते हैं। वहां हिन्दुओं के दस्तों की भूमिका पाई गई थी। विस्फोट की घटनाओं को आतंकवाद की अमेरिकी परिभाषा और भारतीय दंड विधान के नजरिये से देखने के बजाय लोकतंत्र के विस्तार पर कुंडली मारकर बैठने वाली राजनीति को समझने की दृष्टि से भी देखने की कोशिश की जानी चाहिए। सत्ता द्वारा आतंकवाद की घटनाओं को अपनी निरकुंशता मजबूत करने का बहाना बनाने की कोशिशों पर अंकुश लगाना चाहिए।
www.rashtriyasahara.com से साभार

No comments: