वरिष्ठ पत्रकार
बिहार–झारखंड में वाम दल, खासकर भाकपा–माकपा पहले ही कमजोर हो चुके थे। अब राजद जैसे मजबूत दल का सहारा छिन जाने के बाद तो इन दो राज्यों में उनका चुनावी भविष्य और भी अनिश्चित हो गया है। पूरे हिंदी इलाके में से सिर्फ झारखंड से सीपीआई के एक प्रतिनिधि मौजूदा लोकसभा में हैं। जबकि सन् 1991 के चुनाव में सीपीआई के अविभाजित बिहार से लोकसभा के लिए आठ सदस्य चुने गए थे। ऐसा लालू प्रसाद के जनता दल के साथ सीपीआई के चुनावी तालमेल के कारण ही संभव हो सका था। विधायिकाओं में वाम दलों की ताकत, राजद के साथ तालमेल पर निर्भर रहने लगा है। साथ ही खुद राजद की बढ़ती– घटती राजनीतिक ताकत का असर भी वामपंथियों पर पडा़ है। अब तो फिलहाल कोई तालमेल है ही नहीं। लोकसभा में हाल के विश्वास मत प्रकरण के बाद तो वाम दल राजद से कट गए हैं।
बिहार–झारखंड में वाम दल, खासकर भाकपा–माकपा पहले ही कमजोर हो चुके थे। अब राजद जैसे मजबूत दल का सहारा छिन जाने के बाद तो इन दो राज्यों में उनका चुनावी भविष्य और भी अनिश्चित हो गया है। पूरे हिंदी इलाके में से सिर्फ झारखंड से सीपीआई के एक प्रतिनिधि मौजूदा लोकसभा में हैं। जबकि सन् 1991 के चुनाव में सीपीआई के अविभाजित बिहार से लोकसभा के लिए आठ सदस्य चुने गए थे। ऐसा लालू प्रसाद के जनता दल के साथ सीपीआई के चुनावी तालमेल के कारण ही संभव हो सका था। विधायिकाओं में वाम दलों की ताकत, राजद के साथ तालमेल पर निर्भर रहने लगा है। साथ ही खुद राजद की बढ़ती– घटती राजनीतिक ताकत का असर भी वामपंथियों पर पडा़ है। अब तो फिलहाल कोई तालमेल है ही नहीं। लोकसभा में हाल के विश्वास मत प्रकरण के बाद तो वाम दल राजद से कट गए हैं।
बिहार विधानसभा में इन दिनों सीपीआई के तीन और सीपीएम के एक सदस्य हैं। झारखंड विधानसभा में तो इन दलों का कोई प्रतिनिधित्व ही नहीं है जबकि सत्तर के दशक में सीपीआई को एक समय अविभाजित बिहार विधानसभा में मुख्य प्रतिपक्षी दल का दर्जा हासिल था। तब सीपीआई राज्य की मुख्यधारा की पार्टी मानी जाती थी।अब वह हाशिए पर है यानी यदि विधायिका में ताकत का ध्यान रखें तो भाकपा बिहार में बसपा से भी छोटी पार्टी बन चुकी है।
वाम दल से राजद का साथ हालांकि गत चुनाव में ही छूट गया था। पर अगले लोकसभा चुनाव में एक बार फिर से साठगांठ की संभावना बन सकती थी। हाल में परमाणु करार के मुद्दे पर केंद्र सरकार से समर्थन वापस लेकर वाम दलों ने बिहार में ऐसी किसी संभावना को भी समाप्त कर दिया है। यदि कोई चमत्कार हुआ और भाजपा विरोध को आधार बना कर एक बार फिर राजद–वाम मिल कर चुनाव लड़ने को तैयार हो जाएं तो यहां वाम की स्थिति सुधरने की स्थिति बन सकती है। वैसे स्थिति सुधरेगी हीयह दावे के साथ अभी नहीं कहा जा सकता है।मंडल विवाद के बाद 1991 में हुए लोकसभा चुनाव में बिहार में सीपीआई को जो आठ सीटें मिलीं, वे उसकी वास्तविक ताकत का प्रतिनिधित्व नहीं करती थीं। उसके बाद लालू प्रसाद के जनता दल और बाद में राजद से चुनावी तालमेल व राजनीतिक साठगांठ का अंतत: कम्युनिस्ट दलों को नुकसान ही हुआ। वाम के लिए लालू प्रसाद का यह ‘धृतराष्ट्र आलिंगन’ साबित हुआ।
नब्बे के दशक में आरक्षण को लेकर मंडल समर्थन–मंडल विरोध के आधार पर तब लगभग पूरा बिहार दो खेमों में बंट गया था।उन दिनों सीपीआई–सीपीएम के बीच के अनेक मंडल समर्थक तत्व व उनके समर्थक लालू प्रसाद के साथ चले गए और मंडल विरोधी लोग कांग्रेस व भाजपा के समर्थक बन गए। बिहार के एक प्रमुख सीपीआई नेता राज कुमार पूर्वे ने, जो कई बार विधायक रहे, अपनी किताब ‘स्मृति शेष’ में लिखा कि ‘सिर्फ जनता दल को ही नहीं ,बल्कि कांग्रेस व भाजपा को भी हमने (यानी भाकपा ने) अपने जनाधार में जातीय उन्माद फैलाने का मौका दिया। कठिन संघर्ष से बने हमारे जनाधार का बडा़ हिस्सा जातीय उन्माद का शिकार हो गया। हमारी पार्टी यूनिट भी इस आधार पर बंट गई। जिन लोगों ने कम्युनिस्ट पार्टी छोड़ी, उन लोगों ने यह अनुभव किया कि उनका पुराना दल उनके हितों की रक्षा नहीं कर सकता। हां,कुछ लोगों ने जरूर क्षणिक स्वार्थवश पार्टी छोड़ी।’ पूर्वे की ये कुछ पंक्तियां भाकपा की मौजूदा हालत को बखूबी बयान कर देती हैं।
कम्युनिस्ट पार्टियों ने लालू प्रसाद की सरकार के समक्ष इतनी नरमी दिखाई कि इनके काडर उदास हो चले। गरीबों की समस्याओं को लेकर शासन से लड़ने और जरूरत पड़ने पर जेल जाने की आदत ही अब वाम दलों में नहीं रही। यह सब सांप्रदायिक दल यानी भाजपा को सत्ता में आने से रोकने के नाम पर होता रहा। हालांकि यह आरोप भी है कि नेतृत्व का बडा़ हिस्सा सुविधापरस्त हो गया। ऐसी रणनीति अपनाने के कारण बिहार में वाम दल न सिर्फ कथित सांप्रदायिक दल को सत्ता में आने से रोक सके ,बल्कि लगता है कि उनकी अपनी ताकत भी अब ऐसी नहीं रही कि कभी वे भविष्य में उठ कर खडा़ भी हो सकते हैं।
उधर,चुनाव लड़ने वाले वाम दलों से भी टूट कर अनेक लोग नक्सली आंदोलनमें गए। विनोद मिश्र के नेतृत्व वाला नक्सली संगठन कभी बिहार का सबसे बडा़ व प्रामाणिक नक्सली संगठन माना जाता था। पर उसने जब से चुनाव लड़ना शुरू किया है, तब से उसका भी विकास रूक सा गया है। अब कम्युनिस्ट आंदोलन के नाम पर भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी (माआ॓वादी) ही बिहार झारखंड में ताकतवर होते जा रहे हैं। इस तरह कुल मिलाकर देखा जाए तो कम्युनिस्ट ताकत बिहार झारखंड में बढ़ी है। पर उसका बडा़ हिस्सा भूमिगत है और हथियार के बल पर सत्ता हासिल करना चाहता है। पता नहीं कि वे कभी सफल होंगे या नहीं, पर एक बात तय है कि चुनाव लड़ने वाली कम्युनिस्ट पार्टियां बिहार –झारखंड की राजनीति को निर्णायक ढंग से आने वाले दिनों में प्रभावित नहीं कर पाएंगी। इस सिलसिले में एक आंकडा़ महत्वपूर्ण है। 1998 के लोक सभा चुनाव में सीपीआई को अविभाजित बिहार में मात्र 3।40 प्रतिशत मत मिले थे। यह मत 1999 में घटकर 2।70 रह गया। कभी बिहार में सीपीआई को अपने बल पर करीब 7 प्रतिशत मत मिलते।
नवम्बर 2005 में हुए बिहार विधान सभा के चुनाव में सीपीआई को 2।09 प्रतिशत और सीपीएम को 0.68 प्रतिशत मत मिले। इनसे अधिक वोट तो बिहार में बसपा को मिले। बसपा को सन् 2005 में 4.17 प्रतिशत और सपा को 2.52 प्रतिशत मत मिले। बसपा का सघन क्षेत्र उत्तर प्रदेश सटा हुआ बिहार का इलाका है। वहां वाम दलों को बसपा से तालमेल का कुछ लाभ मिल सकता है।
www.rashtriyasahara.com से साभार
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