राजेन्द्र शर्मा
कामरेड हरकिशनसिंह सुरजीत नहीं रहे। राष्ट्रीय राजनीति के चाणक्य कहलाने वाले सुरजीत, पिछले कुछ महीनों से अस्वस्थ थे। उनके निधन के साथ भारतीय राजनीति के उस दौर का अंत हो गया है, जिसमें देश की प्रमुख राजनीतिक शक्तियों का नेतृत्व ब्रिटिश हुकूमत से देश की आजादी की लड़ाई की आंच में तप कर राजनीति में आए लोगों के हाथों में था।
23 मार्च 1916 को जालंधर जिले के अंतर्गत रोपोवाल गांव में जन्मे सुरजीत, स्कूल के जमाने में ही राष्ट्रीय आंदोलन में कूद पड़े थे। 1931 में वह भगतसिंह और उनके साथियों द्वारा स्थापित ‘नौजवान भारत सभा’ में शामिल हो गए। 1932 के मार्च के महीने में होशियारपुर में जिला अदालत पर, पुलिस के देखते ही गोली मारने के आदेश के बावजूद, राष्ट्रीय झंडा फहराने के असाधारण साहस के लिए, उन्हें पहली बार जेल भेजा गया। इसके बाद, शासन के दमन के बावजूद देश व जनता के हित में संघर्षों का जो सिलसिला शुरू हुआ, उनके आठ दशक लंबे राजनीतिक जीवन में बराबर जारी रहा। उन्होंने ब्रिटिश राज में आठ साल जेल में गुजारे और दो साल आजादी के बाद कांग्रेसी शासन की जेलों में।
1934 में कम्युनिस्ट पार्टी में शामिल हुए सुरजीत, कम्युनिस्टों की उस धारा से थे, जिसने स्वतंत्रता के लिए संघर्ष से शुरूआत की थी और आजादी को बहुजन हित के रूप में परिभाषित करते हुए, कांग्रेस, वर्कर्स एंड पीजेंट्स मंच, कांग्रेस सोशलिस्ट पार्टी से होते हुए, कम्युनिस्ट पार्टी तक की अपनी यात्रा पूरी की थी। इस विकास यात्रा ने कम्युनिस्टों की इस पीढ़ी को दो असाधारण गुण दिए थे। जनता के ठोस संघर्षों के बीच से रास्ता तलाश करना और मौजूदा शक्तियों की ठोस सचाई को ध्यान में रखकर, आगे बढ़ना। इसने कठोर परिस्थितियों में मार्क्सवाद के ठोस व्यवहार की जो सामर्थ्य सुरजीत में पैदा की थी, वह देश के कम्युनिस्ट आंदोलन में भी बहुत दुर्लभ थी।
यह इसके बावजूद है, कि उनकी औपचारिक शिक्षा-दीक्षा कम ही हुई थी और मार्क्सवाद तथा राजनीति पर उनकी गहरी पकड़, मुख्यत: स्वाध्याय तथा आंदोलन व जीवन के अनुभवों पर ही आधारित थी। यह जानकर किसी को भी अचरज होगा कि कम औपचारिक शिक्षा के बावजूद, सुरजीत अपने लंबे राजनीतिक जीवन के अधिकांश हिस्से में कम्युनिस्ट पत्र-पत्रिकाओं के संपादन से घनिष्ठ रूप से जुड़े रहे। वह सीपीआई (एम) की केंद्रीय कमेटी के हिंदी मुखपत्र ‘लोकलहर’ के संस्थापक-संपादक थे।
किसान आंदोलन तथा किसान संगठन के रास्ते कम्युनिस्ट आंदोलन में आगे बढ़ते हुए सुरजीत, 1954 की जनवरी में अविभाजित कम्युनिस्ट पार्टी की तीसरी कांग्रेस में ही पार्टी के पोलित ब्यूरो के लिए चुन लिए गए थे। तभी से कम्युनिस्ट आंदोलन में उनकी नेतृत्वकारी भूमिका रही थी और 1964 में पार्टी में विभाजन के बाद सीपीआई(एम) के गठन तथा मार्गदर्शन में उनकी और भी प्रमुख भूमिका रही थी। इसके बावजूद, इमर्जेंसी के बाद 1978 में सीपीआई(एम) की जालंधर कांग्रेस ने जब जनसंघर्षों व आंदोलनों के हित में पूंजीवादी पार्टियों के आपसी अंतर्विरोधों का उपयोग करने की कार्यनीति तय की, अन्य राजनीतिक शक्तियों के नेताओं तक उनकी सहज पहुंच ने, सुरजीत को राष्ट्रीय राजनीति में कम्युनिस्टों के हस्तक्षेप के लिए और महत्वपूर्ण बना दिया।
केंद्र मे सत्ता पर कांग्रेस की इजारेदारी तोड़ने से लेकर, पहले वीपी सिंह की सरकार और उसके बाद देवगौड़ा व गुजराल की संयुक्त मोर्चा सरकारों के गठन तक, सुरजीत के नेतृत्व में वामपंथ ने महत्वपूर्ण भूमिका अदा की। सांप्रदायिकता के बढ़ते खतरे के संदर्भ में, बाहर से वामपंथ के समर्थन पर टिकी यूपीए सरकार के गठन में भी उनकी महत्वपूर्ण भूमिका रही थी। उनके निधन से सिर्फ कम्युनिस्ट आंदोलन की ही नहीं, राष्ट्रीय राजनीति की जो भारी क्षति हुई है, उसे भरने के लिए उनके कद का कोई दूसरा नेता अब शायद ही सामने आ सकेगा।
http://www.rashtriyasahara.com/ से साभार
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