Monday, August 11, 2008

हाशिए पर सिमटे समाज सुधार आंदोलन

भारत डोगरा
भारत जैसे विकासशील देश के लिए जहां आर्थिक विकास जरूरी है, वहीं समाज में प्रचलित विभिन्न बुराइयों, रूढ़ियों व तनावों को दूर करने के प्रयास भी आवश्यक हैं। हाल के वर्षों में आर्थिक विकास पर अधिक ध्यान केन्द्रित हुआ है, जबकि समाज–सुधार को पहले की अपेक्षा कम महत्व मिल रहा है। कुछ महत्वपूर्ण समाज-सुधारों के बारे में अब तो यह मान्यता हो रही है कि यह पुरानी बात हो गई है, अब यह ‘फैशन’ के अनुकूल नहीं है। उदाहरण के लिए, समाज के एक बड़े हिस्से में शराब के चलन को ऐसी मान्यता ही नहीं प्रतिष्ठा भी मिली है, जो पहले कभी नहीं थी। शराब की किस ब्रांड का सेवन किया जाए, इसे प्रतिष्ठा की बात माना जा रहा है। इस तरह की बदलती सोच के बावजूद यह सवाल उठाना जरूरी है कि क्या शराब से होने वाली शारीरिक, मानसिक व सामाजिक स्वास्थ्य की क्षति कम हो गई है? इस बारे में उपलब्ध वैज्ञानिक अध्ययनों को देखें, तो इस बारे में पहले से अधिक प्रामाणिक जानकारियां उपलब्ध हैं कि शराब कितनी तबाही मचाती है। अत: समाज-सुधार आंदोलन के लिए जरूरी है कि वह ‘फैशन’ या ‘चालू’ बातों से प्रभावित न होकर सामाजिक बुराइयों के बारे में सही व सच्ची जानकारी को आम लोगों तक पहुंचाने का कार्य निरंतरता से करे।
निश्चय ही, शराब व नशीले पदार्थों के विरूद्ध अभियान समाज-सुधार का एक बहुत महत्वपूर्ण हिस्सा है। ऐसे अभियानों का हमारे देश में प्रेरणादायक इतिहास भी रहा है, पर अब हमें आगे यह भी सोचना है कि इनसे अपेक्षित सफलता क्यों नहीं मिली और इनके बावजूद शराब का चलन क्यों बढ़ता गया। पिछले अनुभव से एक सबक यह मिला है कि शराब की दुकानों या ठेकों को हटाने के आंदोलन महत्वपूर्ण तो हैं, पर अपने आपमें पर्याप्त नहीं हैं। कई बार शराब विरोधी आंदोलन केवल यहीं तक सिमट कर रह गए, तो उन्हें दीर्घकालीन सफलता नहीं मिल सकी। अत: शराब व अन्य नशीले पदार्थों के विरूद्ध निरंतरता से कार्य करना जरूरी है। इसके लिए गांवों व शहरी बस्तियों में नशा विरोधी समितियां बनानी चाहिए, ताकि यह कार्य निरंतरता से चलता रहे।
समाज-सुधार के लिए केवल कानून बनाना पर्याप्त नहीं होता है। दहेज विरोधी कानून काफी सख्त बनाया गया, तो भी यह समस्या कम नहीं हुई अपितु बढ़ती गई। इतना ही नहीं, कानून का दुरूपयोग कर कुछ निर्दोष लोगों, विशेषकर वृद्ध महिलाओं को भी सजा दिलवा दी गई। इस अनुभव से हमें सीखना चाहिए कि कानून की भूमिका महत्वपूर्ण होते हुए भी सीमित ही है। समाज–सुधार का असली कार्य तो जागृत, सक्रिय नागरिकों द्वारा ही होता है जो भले-बुरे में भेद कर सकते हैं, इस कानून का दुरूपयोग रोक सकते हैं और कानून को उसके वास्तविक उद्देश्यों के अनुकूल लागू करने में सहायक हो सकते हैं। दहेज के खिलाफ चाहे कानून बन गया हो, पर समाज में बढ़ती लालच व उपभोक्तावाद के कारण दहेज ने जोर पकड़ा है। समाज में अच्छे आचरण के स्थान पर शान-शौकत व आकर्षक वस्तुओं के आधार पर प्रतिष्ठा प्राप्त करने की प्रवृत्ति बढ़ी है। इस कारण शादी-ब्याह जैसे अवसरों पर खर्च भी बहुत बढ़ा है। ये अवसर जहां धनी वर्ग को अपने धन-प्रदर्शन का मौका देते हैं, वहीं इसके कारण उन परिवारों पर भी अधिक खर्च का दबाव पड़ता है, जिनकी आर्थिक स्थिति कमजोर है। अनेक परिवारों के लिए तनाव व आर्थिक संकट का सबसे बड़ा कारण यह बन गया है कि वे बेटों या बेटियों के विवाह व दहेज के खर्च की व्यवस्था कैसे करेंगे! साथ ही, समाज में बढ़ रही लालच व झूठी शान-शौकत के गिरे हुए मूल्यों पर प्रहार करना समाज-सुधार आंदोलन के लिए बहुत जरूरी है।
महिलाओं के विरूद्ध हिंसा को रोकना, उन्हें शिक्षा के तथा विविध क्षेत्रों में अपनी क्षमताओं को विकसित करने के पर्याप्त अवसर उपलब्ध करवाना समाज-सुधार आंदोलन की महत्वपूर्ण जिम्मेदारियां हैं। यह कार्य अधिक व्यापक स्तर पर हो सकेगा और इसमें कम कठिनाइयां आएंगी, यदि पश्चिमी देशों की सोच को नासमझी से न अपनाया जाए और अपने समाज की स्थितियों के अनुकूल कार्य किया जाए। हमारे परंपरागत समाज में जहां महिलाएं कुछ अवसरों से वंचित रही हैं, वहीं कई मामलों में उन्हें विशेष सुरक्षा व प्रतिष्ठा भी दी गई। इस परंपरागत समाज में महिलाएं शराब जैसी कई बुराइयों से बची रहीं, जबकि पश्चिमी समाज के बारे में यह नहीं कहा जा सकता। परिवारों को बनाने-सहेजने में महिलाओं की बहुत मजबूत भूमिका हमारे यहां रही है।
परंपरागत समाज की सबसे बड़ी बुराई जाति पर आधारित भेदभाव व छुआछूत की प्रथा रही है। छुआछूत के विरूद्ध अब कड़ी कानूनी व्यवस्था है और विकास की प्रक्रिया में इसका चलन भी कम हुआ है। फिर भी कई स्थानों में आज भी छुआछूत के प्रचलन के चिंताजनक समाचार मिलते हैं। अत: छुआछूत जैसे कलंक दूर करने के व इससे जुड़ी विकृत सोच दूर करने के प्रयास आज भी जरूरी हैं। छूआछूत के अतिरिक्त जातियों में बहुत ऊंच–नीच की मान्यताएं चलती रहती हैं। समाज–सुधार आंदोलन को जाति, नस्ल, रंग किसी भी स्तर पर ऊंच–नीच के विरूद्ध माहौल बनाना चाहिए, ताकि कोई भी व्यक्ति केवल अपने आचरण, चरित्र व कार्य के आधार पर ही परखा जाए।
युवाओं द्वारा माता–पिता व बुजुर्गों को सम्मान देने की हमारी परंपरा बहुत समृद्ध रही है, उससे हमारे समाज को बल मिलता है। वृद्धावस्था में कोई उपेक्षित न हो, इस पर और जोर देना चाहिए, पर साथ ही युवाओं को अपने जीवन–साथी के चुनाव में और स्वतंत्रता मिलने की जरूरत है। सह–शिक्षा का प्रचलन बढ़ना चाहिए। स्कूल–कॉलेज, गांव–बस्ती में लड़के–लड़कियां खुले व स्वस्थ वातावरण में मिलें, बातचीत करें तो इससे समाज की प्रगति ही होगी। यदि इस खुले माहौल में कोई जाति से बाहर विवाह करना चाहे, तो उस पर परिवार या जाति–पंचायत द्वारा कोई रोक नहीं लगानी चाहिए। शादी–विवाह के पहले लड़का–लड़की एक दूसरे को देखें व बातचीत करें, यह प्रवृत्ति बढ़नी चाहिए। कम आयु के बच्चों को विवाह में धकेलने की प्रवृत्ति के विरूद्ध समाज को जागृत कर इसे रोकना चाहिए। लिंग–आधारित भ्रूण–हत्या के विरूद्ध समाज में व्यापक जागृति लाकर इस सामाजिक कलंक को समाप्त करना चाहिए।
इसी तरह आधुनिक तकनीकी के युग में अन्य समस्याएं अधिक विकट हुई हैं। इंटरनेट व कम्प्यूटरों के इस दौर में अश्लील सामग्री के प्रसार की समस्या बहुत विकट हुई है, उसे नियंत्रित करना जरूरी है। इन समाज–सुधार के कार्यों को समग्रता व निरंतरता से होना चाहिए। इन प्रयासों में महिलाओं की असरदार भागीदारी आवश्यक है। सभी सरकारों को चाहिए कि इन समाज–सुधार प्रयासों के प्रति प्रोत्साहन व सहायता की नीति अपनाए।
www.rashtriyasahara.com से साभार

1 comment:

Anil Kumar said...

एक ही साथ कई सामाजिक विषयों पर अच्छा कैप्सूल बनाया है आपने. आजकल राजनेता और ओलम्पिक ही छाये हुए हैं ख़बरों में, समाज की याद दिलाने के लिए शुक्रिया.