Wednesday, August 20, 2008

भारत के माओवादी भी चुनाव लड़ें

आलोक प्रकाश पुतुल
झापा, नेपाल से लौटकर
नेपाल की सीमा में घुसते ही मेचीनगर में जब हमारा ड्राइवर कस्टम की औपचारिकता निभा रहा था तो मैंने वहीं चहलकदमी कर रहे नेपाल पुलिस के जवान से आहिस्ता से पूछा-“कल तक जिन माओवादियों को आप लोग चुन-चुन कर मारते थे, अब उनकी सरकार बन रही है. क्या सोचते हैं ? ”उसने पहले तो अजीब-सा चेहरा बनाया फिर हंसते हुए कहा-“अब उनको शलामी करेंगे.”
लेकिन इस एक वाक्य के जवाब को हमारे गोरखा ड्राइवर ने यात्रा के दौरान बाद में पूरा किया, जब मैंने उससे भी यही सवाल पूछा कि यहां कि पुलिस क्या करेगी ? उसने मुस्कुराते हुए कहा “ इंडिया में भी तो डाकू लोग, गुंडा लोग पार्लियामेंट में मेंबर बन जाता है। उनका तो कोई आईडोलॉजी भी नहीं होता।”मुझे लगा कि सवाल पूछने में अब थोड़ी सावधानी बरतनी होगी.हम नेपाल के झापा जिले में थे. झापा यानी माओवादियों का इलाका. हाल के चुनाव में नेकपा माओवादी के विश्वदिप लिङदेन लिम्बु, धर्म प्रसाद धिमिरे और गौरी शकर खडका इस इलाके से चुनाव जीत कर काठमांडू पहुंचे हैं.
माओवादी गांव शांतिनगर
घने जंगलों वाले इलाकों से होते हुए सड़क किनारे एक स्कूल का बोर्ड देख कर हमने गाड़ी रुकवाई. लिटिल ऑक्सफोर्ड इंग्लिश स्कूल. पड़ोस के सोनसरी जिले से अपनी पढ़ाई पूरी करने के बाद अपने गांव शांतिनगर लौटे दीपेंद्र प्रधान 160 बच्चों वाला यह बोर्डिंग स्कूल चलाते हैं.उनके छोटे से कार्यालय की दीवार पर नेपाल नरेश स्व. वीरेंद्र विक्रम शाह और उनकी पत्नी की एक उखड़ी हुई तस्वीर टंगी हुई है. नेपाल में अब माओवादी सरकार को लेकर दीपेंद्र प्रधान मुस्कराते हुए कहते हैं- “ मैं सोचता हूं कि हमारे देश को इसकी आवश्यकता थी, इसलिए ऐसा हुआ.इसके पीछे सबसे बड़ा कारण भ्रष्टाचार है”
दीपेंद्र बताते हैं- “ हमारे गांव में कभी कोई नहीं आता था, कोई पुलिस वाला नहीं। आप जिस रास्ते से आए हैं, वो हाईवे है लेकिन अगर य़हां कोई मर भी जाता, अगर कोई किसी को शूट भी कर दे तो यहां कोई नहीं आता था न सेना, न पुलिस. ये हालत इलेक्शन से दो साल पहले तक थी. नेपाली जनता को लगा कि इतने साल तक सबको अपना समझ के वोट दिय़ा तो एक बार माओवादियों को ट्राई करने में क्या हर्ज है. इसलिए जनता ने माओवादियों को वोट दिया. मैंने भी माओवादियों को वोट दिया.मुझे उम्मीद है कि वे कुछ करेंगे. अगर ये इसमें असफल रहे तो दो साल बाद फिर चुनाव होगा.”वे बताते हैं कि किस तरह माओवादियों ने उनके गांव में नहर लाई और किस तरह माओवादियों के कारण इलाके में चोरी की घटनाएं खत्म हो गईं. दीपेंद्र के पास माओवादियों के पक्ष में कई बाते हैं.लेकिन तीन महीने पहले दुलाबाड़ी से ब्याह कर शांतिनगर में आने वाली गांव की एक बहु ने इस बार चुनाव में भाग नहीं लिया. जिंस-टॉप पहने हुए इस बहु ने हाथों को घुमाते हुए पूछा- “किसी के जीतने से क्या होता है ? जो जीतता है, वो तो राजगद्दी में बैठता है. वो थोड़ी हमसे चावल-दाल के बारे में पूछता है.”
बेरोजगारी
शांतिनगर गांव में दूर-दूर तक धूसर वीरान जमीन नजर आती है. कहीं-कहीं कुछ पेड़ नजर आते हैं, थोड़े से नारियल के थोड़े कुछ और पेड़. कुछ नौजवान एक कच्चे घर के बरामदे में लुडो खेल रहे हैं. घर और पड़ोस की कुछ बुजुर्ग महिलाएं भी वहीं खेल देख रही हैं. हमारे वहां बैठते और दुआ सलाम करते भीड़ इकट्ठी होने लगती है. गांव के लोगों से बात करें तो सबके मन में राजा औऱ पुरानी सरकार के प्रति एक आक्रोश साफ नजर आता है. राजा के लिए गांव के एक नौजवान कहते हैं-उसका घड़ा भर चुका था.गांव में अधिकांश लोगों के पास खेती के लिए जमीन नहीं है. जो खेत हैं, वे सरकार के हैं. सरकार के कब्जे वाले. खेती की संभावना भी नहीं है क्योंकि सिंचाई के साधन नहीं हैं. गांव वालों की मानें तो गांव के 90 फिसदी घर गिरवी हैं, साहूकार के पास. गांव के हर घर से कोई न कोई नौजवान काम करने के लिए दूसरे देश में है. अधिकांश भारत में. कागज पत्तर बनवाने औऱ रोजगार के लिए एजेंट को एक लाख दस हजार नेपाली रुपए देने पड़ते हैं. भारतीय़ मुद्रा में कोई 70 हजार.भीड़ में से एक नौजवान कहते हैं- “ हमारे यहां की सबसे बड़ी समस्या बेरोजगारी है. हमारे लोग बाम्बे से बिहार तक काम की तलाश में जाते हैं लेकिन अभी तो प्रचंड जी का सरकार बना है, अभी तो उनसे उम्मीद करने ठीक नहीं है लेकिन हमें विश्वास है कि वे हमारी समस्याओं को दूर करेंगे.”लेकिन माओवादियों के बारे में तो कहा जाता है कि वे उग्रवादी हैं, आतंक फैलाते हैं ? उनसे कैसी उम्मीद ?“ ये सब गलत इश्यू बनाए गए हैं. हम भी माओवादी हैं.” एक नौजवान आत्मविश्वास के साथ भीड़ में खड़े औऱ बैठे लोगों की ओर इशारा करते हुए कहते हैं- “ये भी माओवादी है, वो भी माओवादी है, हम सब माओवादी है. ये जनता ही माओवादी है.”
हम सब माओवादी है.
वे बताते हैं कि गांव के सभी लोगों ने माओवादियों को ही वोट भी दिया. भीड़ में कुछ पुरुष-स्त्री स्वर उभरते हैं- “ हम भी माओवादी...माओवादी...!”आतंकवादी मत कहिए
भीड़ में शामिल एक प्रौढ़ कहते हैं- “हम लोगों ने बहुत आशा के साथ माओवादियों को चुना है. हमने नेपाली कांग्रेस को देखा, नेकपा को देखा, राजी की पार्टी को भी देखा. लेकिन किसी ने हमारा दुख नहीं समझा. हमें गांव में रोजगार चाहिए. हम अपने दुख-दर्द को लेकर बाहर जाते हैं. हम भी अपने मां-पिता के साथ रहना चाहते हैं, अपने बच्चों के साथ रहना चाहते हैं.”गांव के कमल भंडारी कहते हैं- “ वो आतंकवादी इसलिए कहे जाते हैं, क्योंकि वे सरकार से जीत गए हैं. गरीब आदमी के पास घास नहीं है, कपास नहीं है. कल कारखाना नहीं है. सरकार के पास तो सब कुछ है लेकिन हम लोगों को देता नहीं है. माओवादी सब ठीक करेंगे .”
गांव में दुकान चलाने वाले बुजर्ग अभिकेसर मानते हैं कि माओवादियों ने चुनाव में आ कर अपनी ताकत दिखा दी है. उन्हें इस बात से बहुत दुख होता जब कोई माओवादियों को आतंकवादी कहता है. अमरीका से खासे नाराज अभिकेसर के अनुसार माओवादी जनता के साथ हैं और वे जनता की लड़ाई लड़ रहे हैं. ऐसे में जनता को कोई आतंकवादी कहे, यह उन्हें अच्छा नहीं लगता. देश-दुनिया की खबरों से वाकिफ अभिकेसर कहते हैं- “ भारत में जिस तरह आज माओवादी आंदोलन चल रहा है, एक समय नेपाल में भी ऐसा ही था. जिस तरह से यहां के माओवादियों ने हथियार छोड़ कर, जनता को साथ लेकर पार्लियामेंट में गए, वहां के माओवादी भी ऐसा ही करें, आपके साथ कितनी जनता है, ये दिखा दें. अगर जनता आपके साथ है तो वहां भी नेपाल जैसा ही होगा न ? अगर जनता आपके साथ है तो क्यों डरते हैं.” अभिकेसर ठहाके लगाते हुए कहते हैं- “ अगर जनता आपके साथ नहीं है तो फिर छोड़िए.”
www.raviwar.com से साभार

1 comment:

Anonymous said...

बहुत कम ऐसा होता है कि रिपोर्टर निरपेक्ष तरीके से रिपोर्ट लिखे क्योंकि आप अपनी विचारधारा को जेब में रख कर नहीं चलते. विचारधारा तो आपके हर कदम में नजर आती है. ऐसे में यह रिपोर्ट बहुत साक्षी भआव से लिखी गई है. आलोक भाई को मेरा साधुवाद.
संजीव हिंदुस्तानी