Saturday, August 23, 2008

यमुना पुश्ता के आसपास रह रहे बेघर-बेसहारा बच्चे, सरकार, समुदाय और मीडिया

(यमुना पुश्ता और पुरानी दिल्ली के इलाकों में रहने वाले बेघर-बेसहारा बच्चों के बीच काम करने के अपने लगभग डेढ़ वर्षों के दरम्यान मैंने काफी नज़दीक से इन बच्चों की असंभव दुनिया को महसूस करने की कोशिश की थी और आज मैं ख़ुद को ऐसा दावा करने की स्थिति मै पाता हूँ कि जब तक आप इन बच्चों के साथ उनकी रोज़मर्रा की जद्दोज़हद में शिरकत नहीं करते तब तक आप उनकी ज़िन्दगी की वास्तविकताओं का अनुमान भी नहीं लगा सकते। और इतना कर पाना भी एकदम आसान नहीं है, मैंने ऐसे दर्जनों कार्यकर्ताओं(कर्मचारियों) को इनके आसपास मंडराते देखा है जो महीनों गुज़र जाने के बाद भी अपनी समझ को संस्कारों से ऊपर नहीं ले जा पाते। ज्यादातर लोग यहाँ अपनी उसी नफरत और हिकारत को अन्दर छिपाए हुए काम करते रहते हैं जिसे वे समाज से ग्रहण करते हैं। यह हिकारत की भावना उन्हें सचमुच में बच्चों से एक अदृश्य(उनकी समझ से) दूरी बनाये रखने के लिए प्रेरित करती है और वे अंत तक निरपेक्ष बने रह जाते हैं। मैंने जो समझा है उसके हिसाब से ये बच्चे घरेलू बच्चों से अतुलनीय रूप से ज़्यादा संवेदनशील,शंकालू,आक्रामक और मेधावी होते हैं तथा zindagee ke निर्मम प्रहार उन्हें इतना परिपक्व बना देते हैं कि वे पहली नज़र में ही आप का नजरिया भांप लेते हैं कि आप उनके विषय में क्या सोचते हैं। इन बच्चों की ज़िंदगी में जिस एक चीज़ का सबसे बड़ा अभाव रहता है वह है सम्मान। जिस दुनिया में वे रहते हैं वहां हर कोई या तो उनका इस्तेमाल करता है या फिर उनसे बेइंतहा नफरत करता है। जब ये बच्चे अपने घरों को पीछे छोड़कर फुटपाथ की दुनिया में कदम रखते हैं तो स्थानीय समुदाय, छोटे व्यवसाइयों, ढाबा मालिकों, सेक्स रैकेटों, ड्रग्स के सौदागरों, पुलिस और पहले से सड़क पर रह रहे बड़े बच्चों के भयावह शोषण का शिकार होते हैं। ऊपर से सरकारी और गैरसरकारी संस्थानों के बहेलिये भी इन बच्चों पर घात लगाये रहते हैं। इतने मज़बूत घेराव में जीते और सबकुछ बर्दाश्त करते हुए ये बच्चे किस मनःस्थिति में पहुँच जाते होंगे इस बात का अनुमान तो लगाया ही जा सकता है। इन बच्चों के साथ मैंने जितना वक़्त गुज़ारा वह पुलिस और अस्पताल और तमाम किस्म के शिकारियों के साथ लड़ते-भिड़ते हुए गुज़ारा, इतने अनुभवों को समेट पाना मेरे लिए कठिन है और बातें क्रम में नहीं आ पा रहीं हैं, पर कुछ खंडों में बातें ज़रूर आपतक पहुचाने की कोशिश करूंगा)
जब
हम पूरी दुनिया में बच्चों की हालत पर दृष्टिपात करते हैं तो हम एक असंभव दुनिया से रूबरू होते हैं। तीसरी दुनिया के देशों में और खासकर भारत में तो हालत और भी बदतर है और बच्चों की विशाल आबादी अत्यंत कठिन और अमानवीय परिस्थितियों में जीवन व्यतीत कर रही है। ये बच्चे जीवन की बुनियादी सुविधाओं एवं अधिकारों से भी वंचित हैं और इनके बारे में सोचते ही अन्दर एक हाहाकार भर जाता है। पूँजी के अनियंत्रित बहाव,महानगर केन्द्रित विकास और गरीबी के परिणामस्वरूप राष्ट्रव्यापी विस्थापन का भयानक संकट नया नहीं था, पर ग्लोबलाइजेशन और उदारीकरण ने दुनिया के कमजोर और मेहनतकश वर्गों को और भी असहाय, और भी बेहाल कर दिया और गैरबराबरी की खाई इतनी चौड़ी हो चुकी है कि उसे पाटना दिन पर दिन असंभव होता जा रहा है। आर्थिक विपन्नता और उपभोक्तावाद ने सामाजिक ताने-बाने को छिन्न-भिन्न तो किया ही है, इसे संवेदनहीन और असहिष्णु भी बना दिया है। इसका सबसे बडा खामियाजा बच्चों को ही भुगतना पड़ा और आज अगर केवल महानगर दिल्ली की ही बात करें तो लाखों बच्चे सूदुर प्रांतों से आकर यहां के सड़कों, फुटपाथों, रेलवे प्लेटफार्मों और खुले पार्कों में नारकीय जीवन जी रहे हैं। इनके साथ न तो किसी आत्मीय या अभिभावक का संरक्षण है और न ही समाज उनपर विश्वास करता है। इनके साथ ही अगर दिल्ली की झुग्गी बस्तियों से आए उन बच्चों को भी जोड़ लिया जाए जिनका अधिकांश समय दिल्ली की सड़कों पर गुजरता है और परिवार के साथ उनका संपर्क नहीं के बराबर है तो यह आँकड़ा अविश्वसनीय लगने लगता है। ये बच्चे चाहे स्थानीय हों अथवा बाहर से भाग कर आए, उनकी स्थिति में कोई गुणात्मक अन्तर नहीं है। ये बच्चे कूड़ा चुनते हैं, भीख माँगते हैं, बूट पॉलिश करते हैं, नशा करते हैं और दैहिक मानसिक शोषण का शिकार होते हैं। इन बच्चों में बड़े पैमाने पर लड़कियाँ भी शामिल हैं जो फुटपाथों पर वेश्यावृत्ति करने को बाध्य हैं। मंदिरों और गुरुद्वारों में मुफ्त बँटने वाले भोजन के कारण बच्चे काफी संख्या में उन इलाकों में केन्द्रित हो जाते हैं। गन्दगी में रहने, शारीरिक -मानसिक प्रताड़ना, पौष्टिकता से रहित भोजन, नशे की अधिकता और सर्दी गर्मी बरसात में खुले में रहने से ये बच्चे सहज ही बीमारियों का शिकार हो जाते हैं और बड़ी संख्या में बच्चों की मौत हो जाती है। इन परिस्थितियों में रहते हुए इन बच्चों के लिए शिक्षा अथवा अन्य अधिकारों की बात करना बेमानी है। जब तक इन बच्चों के लिए जीवन की बुनियादी सुविधाओं और सुरक्षा एवं संरक्षण का पक्का इंतजाम न किया जाए तथा इनके प्रति सामाजिक नजरिये में परिवर्तन न लाया जाए,इन्हें मुख्यधारा में लाने का लक्ष्य हासिल नही किया जा सकता। चुनौती सचमुच बहुत बड़ी है और इसे अब और अनदेखा नही किया जा सकता।
यमुना पुश्ता क्षेत्र की सामाजिक, आर्थिक एवं भौगोलिक स्थिति
यमुना पुश्ता का इलाका यमुना नदी के किनारे लाल किला, विजय घाट, आइएसबीटी बस अड्डा और कश्मीरी गेट तक फैला हुआ है। इस इलाके की सामाजिक संरचना निम्न मध्यवर्गीय है और यहां की संस्कृति के केन्द्र में हिन्दू धर्मावलम्बियों की आस्था और उससे अनुस्यूत् कर्मकाण्ड हैं जिनसे यहां का जनसमुदाय किसी न किसी रूप में जुड़ा हुआ है। खास तौर से प्राचीन हनुमान मंदिर और निगमबोध घाट की अवस्थिति स्थानीय समुदाय के व्यवसाय और सामाजिक-सांस्कृतिक सरोकारों को प्रभावित निर्देशित करती है। अधिकांशतः लोग मंदिर के इर्द-गिर्द मिष्टान्न,पूजन-सामग्री,धार्मिक प्रतीकों-मूर्तियों के उत्पादन-विपणन कार्य में संलग्न हैं या फिर मंदिर की सफाई, अन्य जन सुविधाओं एवं परिवहन व्यवस्था में हैं। मंगलवार और शनिवार को यहां हजारों श्रद्धालुओं का जमाव रहता है अतः पूरे क्षेत्र में अच्छी व्यावसायिक चहल-पहल रहती है। खैरात बाँटने की पुरानी परंपरा ने इस मंदिर के आसपास आलसी मुफ्तखोरों की एक विशाल जमात तैयार की है जो इन दो दिनों में सुबह से लेकर रात तक पूरी-कचौरी,मिठाइयों,फलों,कम्बल एवं दूसरी चीजों के लिए धमाचौकड़ी मचाती रहती है। विविधतापूर्ण भोजन-सामग्रियों नशीली वस्तुओं एवं भीख की सहज उपलब्धता ने सुदूर प्रांतों से भागकर आए अथवा निकटवर्ती इलाकों के सैकड़ों बच्चों को मन्दिर व इसके आसपास के पार्कों को अपना स्थायी ठिकाना बनाने को मजबूर किया है, जहां वे भयावह नारकीय जीवन जी रहे हैं। एक अनुमान के मुताबिक तकरीबन 800 लोग इस हनुमान मंदिर और निकटस्थ मंदिरों में बँटनेवाले खैरात और भीख के सहारे जीवनयापन कर रहे हैं,जिनमें 350से अधिक 16 साल की उम्र तक के बच्चे हैं। बाकी लोगों में असहाय औरतें, विकलांग और वृद्ध शामिल हैं। बच्चों के इतने बडे जमाव के पीछे एक बड़ा कारण यह भी है कि यहां से अन्तर्राज्यीय बस अड्डा, पुरानी दिल्ली रेलवे स्टेशन, जामा मस्जिद, मीना बाजार, लाल किला, चांदनी चौक बाजार आदि काफी नजदीक हैं, जहां दिन में बड़ी तादाद में बाल श्रमिकों के लिए काम की गुंजाइश रहती है, पर शाम होते ही वहां के पार्कों और दूसरे खाली स्थानों में पुलिस की दबिश बढ़ जाती है जिस वजह से बच्चे यमुना बाज़ार के खुले पार्कों और घाटों की ओर रुख करते हैं जहां रात में हजारों की तादाद में बेघर, बेसहारा और मुसीबतजदा लोग मौसम,भूख और पुलिस की मार सहते हुए रात काटते हैं। इनके साथ ही सैकड़ों ऐसे लोगों की भी यह शरणस्थली बनी हुई है जिनका काम नशीली वस्तुओं का विक्रय-विनिमय, ठगी, जुआ-खेलना, चोरी, लूटपाट आदि है। कुछ लोग अवैध रूप से विडियो पर अश्लील फिल्में दिखाने का कारोबार कर रहे हैं, जहां दर्शकों में छोटे बच्चों की बहुतायत रहती है तो कुछ लोग अबोध बच्चों को भयाक्रांत कर अथवा लालच देकर उनका दैहिक शोषण करने-करवाने का संगठित उद्योग चला रहे हैं। जाहिर है,इतने बड़े पैमाने पर गैरकानूनी गतिविधियाँ बगैर पुलिस के सहयोग और संरक्षण के नही चलायी जा सकतीं।



शहरीकरण और विकास के नाम पर एक दशक पहले यमुना पुश्ता और आसपास की झुग्गी बस्तियों को उजाड़ने की दमनात्मक कार्रवाई का आतंक आज भी यहां की आबोहवा में गूँजता महसूस होता है। आधुनिक लोक कल्याणकारी राज्य के पुनर्वास के सरकारी मुहावरों की सच्चाई तब यहां सामने आ गई जब उजाड़े गए विस्थापितों ने अपना सबकुछ गँवाने के बावजूद एक सर्वथा अपरिचित स्थान बवाना जाकर पुनर्वासित होना कबूल नहीं किया और सांस्कृतिक एवं स्थानिक मोहवश फुटपाथ की भयावह जिन्दगी को नियति मानकर अपना लिया। इस अमानवीय विस्थापन की यही स्वाभाविक परिणति हो सकती थी कि आज इन परिवारों की अधिकांश स्त्रियाँ पेट के लिए देह-व्यापार के पेशे में संलग्न हैं और बच्चे भीख मांगने को विवश। क्षेत्र के दैनिक जन जीवन का सामाजिक,आर्थिक और राजनीतिक अन्वेषण करते हुए हमने लक्ष्य किया कि पूरे परिदृश्य में सबसे ज्यादा मुसीबत में बच्चे हैं-उनमें भी वैसे बच्चे जो पूरी तरह सड़क पर हैं और जिन्हें किसी आत्मीय या अभिभावक का संरक्षण भी प्राप्त नहीं है। 300 से 350 बच्चों की इस आबादी में 5 से लेकर 18 साल तक के बच्चों की अधिकता है। इन बच्चों में लगभग 60 प्रतिशत बच्चे नशा करते हैं और कुछ ही बच्चों ने प्राथमिक स्तर की शिक्षा प्राप्त की है। 40 प्रतिशत बच्चे भीख मांग रहे हैं और 50-60 प्रतिशत बच्चे कूड़ा चुनने, ढाबों में काम करने जैसे कार्यों में लगे हुए हैं। भयावह नारकीय परिस्थितियों में जी रहे इन बच्चों को न तो भोजन उपलब्ध है न रहने का ठिकाना। चार-पाँच प्रतिशत बच्चे भी स्वास्थ्य के सामान्य स्तर तक नही पहुँचते हैं। हाँ यह बात बिल्कुल तय है कि शत-प्रतिशत बच्चे पुलिस की ज्यादतियों के शिकार होते हैं। इन बच्चों की तत्काल सबसे बड़ी आवश्यकता भोजन और सुरक्षित आवास की है। खास बात यह है कि लगभग 60-70 प्रतिशत बच्चे पढ़ाई करने की इच्छा जाहिर करते हैं, पर परिस्थितियाँ इन्हें एक जगह टिककर रहने नहीं देतीं, और इनका बिखराव जारी रहता है। इन्हें इनके भोजन, आवास, शिक्षा , स्वास्थ्य और रोजगार के अधिकार के लिए जागरूक और संगठित करना एक बड़ी चुनौती है, जिसे आगे बढ़कर स्वीकार करना एक सभ्य समाज और संवेदनशील सरकार की प्राथमिक जिम्मेदारी होनी चाहिए, किन्तु वास्तविकता यह है कि भयावह परिस्थितियों में जी रहे इन बच्चों की तरफ से सरकार तो सर्वथा उदासीन है ही, गैरसरकारी संस्थाओं का रवैया भी आपराधिक है। ज्यादातर संस्थाएँ बच्चों का इस्तेमाल कर देशी-विदेशी धनदाताओं से करोड़ों का अनुदान प्राप्त करने में सफल हो जाती हैं। यह शोध का विषय हो सकता है कि दर्जनों बाल अधिकार संस्थाओं और बच्चों के नाम पर प्रतिवर्ष खर्च होने वाले हजारों-लाखों डॉलर की राशि के बावजूद आज तक कितने बच्चों की जिन्दगियों में बदलाव आ सका है।

1 comment:

स्वयम्बरा said...

awak si rah gayi hoon mai.in bachcho ki jindgi narkiya hai itna to jaanti thi par jamini hakikat kya hai iski jaankaari aapse hi hui.aapke dwara kiye jaa rahe kaam ko hamara salam.hamari bhi ek sanstha haiYAWANIKA.ham bihar ke bhojpur disstrict me oos jagah kaam kar rahe hai jo oogravaad se trast tha.vaha ke bachcho ke haath me kabhi bandooke hoti thi.hamare prayaas ne unme apni sanskriti ki or jhukaya hai.....khair aapko phir se badhai.aapke agle chitthe ke injaar me hoon.