Thursday, August 7, 2008

कल का वाम

राजेन्द्र शर्मा
राजनीतिक विश्लेषक
वामपंथ ने जब से यूपीए सरकार से अपना समर्थन वापस लिया है और खासतौर पर मनमोहन सिंह की सरकार ने जब से वामपंथ के बिना ही लोकसभा में अपना बहुमत साबित किया है, उसके बाद से ही वामपंथ के लिए जोर-जोर से शोक गीत पढ़े जाने की शुरूआत हो गयी है। एक आ॓र यूपीए सरकार को उकसाया जा रहा है कि वामपंथ के अंकुश से बरी होने के बाद, निर्द्वन्द्व होकर नव-उदारवादी रास्ते पर सरपट दौड़ चले। दूसरी आ॓र वामपंथ को समझाया जा रहा है कि इस विफलता से सबक ले कि आर्थिक नीतियों से लेकर विदेश नीति तक, विभिन्न क्षेत्रों में नव-उदारवादी नीतियों का विरोध करेगा तो घाटे में रहेगा। इन दोनों ही फतवों में एक बात समान है। ये फतवे देने वाले यह भूल जाते हैं कि यह झगडा़ सिर्फ वामपंथ बनाम अन्य का आपसी मामला नहीं है। इसमें इस देश की जनता का भी दखल है बल्कि अंतत: तो उसी को फैसला करना है। जनता की यह सत्ता ही वामपंथ के शोक गीत पढ़ने वालों को गलत साबित करते हुए आने वाले दिनों में वामपंथ की बढ़ती प्रासंगिकता साबित करने जा रही है।


इसके दो बहुत ही सीधे सरल से कारण हैं, जो परस्पर जुड़े हुए हैं। पहला, शासक हलकों के स्तर पर नव-उदारवादी नीतियों पर जितनी सर्वानुमति दिखाई देती है, जनता के स्तर पर इन नीतियों का उतना ही विरोध है। बेशक, जनता के इस विरोध को दबाने, छुपाने, भटकाने की तमाम कोशिशें लगातार जारी रही हैं और इन कोशिशों को कुछ न कुछ कामयाबी भी मिली है। इसके बावजूद इन नीतियों और आम आदमी के बीच खाई ज्यादा से ज्यादा चौड़ी ही होती जा रही है। इसी का नतीजा है कि न सिर्फ सत्ता में रहने वाले का आम चुनाव में सत्ता से हटाया जाना एक नियम ही बन गया है बल्कि श्रीमती गांधी की हत्या की पृष्ठभूमि में हुए 1984 के असामान्य चुनावों के बाद से किसी भी आम चुनाव में जनता ने किसी एक पार्टी को तो दूर, किसी चुनाव-पूर्व गठबंधन को भी पूर्ण-बहुमत नहीं दिया है। उल्टे इन नव-उदारवादी नीतियों के मुख्य प्रतिनिधि के रूप में कांग्रेस और भाजपा जैसी पार्टियों से जनता इस कदर विमुख हो चुकी है कि आज ये पार्टियां मिलकर भी संसद की आधी सीटों तक भी मुश्किल से ही पहुंच पाती हैं। जिसे आज राजनीति में गठबंधन युग कहा जाने लगा है, आम जनता और प्रमुख सत्ताधारी पार्टियों की इसी विमुखता की सचाई का दूसरा नाम है।

इस राजनीतिक संकट से उबरने की कोशिश में सत्ता की राजनीति की एक धारा ने सांप्रदायिक धु्रवीकरण का सहारा लेने का रास्ता पकडा़ है। तत्काल इसकी काट के लिए वामपंथ, उस मध्यमार्गी राजनीति को सहारा देकर खडा़ करने की कोशिश कर रहा है, जिसके झंडे नव-उदारवाद की आंधी में मुख्य-सत्ताधारी पार्टियों ने नव्बे के दशक के शुरू में ही गिरा दिए थे। 2004 के चुनाव में भाजपा के नेतृत्व में एनडीए के इंडिया शाइनिंग के नारे के बुरी तरह से पिटने के बाद सरकार के गठन के लिए कांग्रेस के नेतृत्व वाले गठबंधन को बाहर से समर्थन देने के जरिए वामपंथ, मध्यमार्गी राजनीति का ही पुनराविष्कार करने की कोशिश कर रहा था। इसीलिए यह समर्थन एक सीमित किंतु जनहितकारी साझा न्यूनतम कार्यक्रम के आधार पर दिया गया था ताकि वामपंथ के दबाव के सहारे सरकार को मध्यमार्ग पर रखा जा सके। असली मुद्दा यह नहीं है कि यह कोशिश सफल हुई या विफल रही या इस कोशिश को तो विफल होना ही था। असली मुद्दा मौजूदा हालात में ऐसी कोशिश के जरूरी होने का है।

जाहिर है कि नव-उदारवादी रास्ते की अपनी वफादारी के लिए कांग्रेस के नेतृत्व ने एक अपेक्षाकृत संतुलित रास्ता निकालने की इस कोशिश को विफल कर दिया है। लेकिन इससे जनता के पक्ष में संतुलित ऐसे रास्ते की जरूरत खत्म नहीं होती है बल्कि और बढ़ जाती है। वामपंथ की तीसरा मोर्चा या विकल्प खडा़ करने की कोशिश, इसी जरूरत से जुड़ा है। बेशक यह विकल्प न तो आसानी से खडा़ हो पाएगा और न ही इसका कोई बना-बनाया सांचा पहले से मौजूद है। एक-डेढ़ दशक पहले कौन कह सकता था कि वामपंथ, बाहर से ही सही समर्थन देकर कांग्रेस के नेतृत्ववाली सरकार चार साल से ज्यादा चलवाएगा। वैसे यह भी कौन कह सकता था कि भारत में कथित आर्थिक सुधारों के सूत्रकार मनमोहन सिंह की सरकार पर चार बरस तक अनेक मामलों में जनता के हितों का अंकुश लगाए रखा जा सकेगा।

अचरज नहीं कि इन्हीं जटिलताओं के बीच, खुद वामपंथ की समझ तथा लक्ष्य की एकता की सीमाएं भी सामने आती हैं। ये जटिलताएं इस तथ्य से और भी बढ़ जाती हैं कि देश के तीन राज्यों में अपेक्षाकृत लंबी अवधि से जो वामपंथी राज्य सरकारें कायम हैं, उनके ऊपर अखिल भारतीय स्तर पर शासकों द्वारा अपनायी गयी नव-उदारवादी नीतियों का विरोध करने के साथ-साथ, देश के पैमाने पर लागू की जा रही इन नीतियों के ही दायरे में अपने -अपने राज्य में मेहनतकश जनता को राहत दिलाने की जिम्मेदारी भी है। इसी संदर्भ में वामपंथी नेतृत्व वाली सरकारों और खासतौर पर प। बंगाल की वाम मोर्चा सरकार के उघोगीकरण के कुछ कदमों को लेकर नव-उदारवादी नीतियों के वामपंथ के विरोध की ही साख बिगाड़ने की कोशिश की गयी है। किसी खास कदम के सही-गलत, जरूरी-गैरजरूरी होने से अलग इस तरह के प्रचार का मकसद देश भर में ठीक उन्हीं नीतियों का रास्ता निरापद करने की कोशिश करना है, जिनकी आलोचना का स्वांग किया जा रहा होता है।

बेशक, वामपंथ की अपनी सीमाएं भी हैं। जाहिर है कि उसकी सबसे बड़ी सीमा तो देश के पैमाने पर उसका सीमित आधार ही है। वामपंथ उस आम राजनीतिक-सामाजिक वातावरण के प्रभावों से भी पूरी तरह से बरी होने का दावा नहीं कर सकता है, जिसके बीच तथा एक अल्पसंख्यक उपस्थिति के रूप में उसे काम करना पड़ रहा है। सोमनाथ चटर्जी प्रकरण इसका ताजा गवाह है। फिर भी आज के दौर में जब शासकों और शासितों के बीच की दूरी अनुल्लंघनीय रूप से बढ़ती जा रही है, आम शासितों के हितों को अपना प्रस्थानबिंदु बनाने वाले वामपंथ की जरूरत बढ़ने ही जा रही है और उसकी संभावनाओं का भी बढ़ना तय है। हां, अंत में एक वैधानिक चेतावनी और खासतौर पर वामपंथ के आधार की सीमाओं के चलते, बहुत सी जगहों पर शासकों व शासितों के बीच की खाई, हिंसक विस्फोटों का भी रूप ले सकती है।

1 comment:

222222222222 said...

राजेंद्रजी
आप तो वैसे भी वामपंथ के पुराने सिपाही हैं। आप क्यों भला वामपंथ या वामपंथियों के खिलाफ जाकर कुछ कहेंगे? नंदीग्राम पर वामपंथियों के वहशी आचारण पर आपकी सहमति को मैं जनसत्ता में पढ़ चुका हूं। इस लेख में कुछ भी खास नहीं है। वही पुराना रोना-धोना है।
वामपंथ की पुरानी लाइन से बाहर निकलें जनाब। यह दुनिया कहां से कहां पहुंच चुकी है और आप वहीं के वहीं हैं।