Friday, August 8, 2008

यह तो महात्मा गांधी का रास्ता नहीं

संदीप पांडेय
रायपुर में छत्तीसगढ़ विशेष जन सुरक्षा अधिनियम, 2005 की वापसी तथा इस अधिनियम के तहत गिरफ्तार तमाम निर्दोष लोगों, जैसे डॉ. विनायक सेन, अजय टीजी, साई रेड्डी, आदि, की रिहाई हेतु आयोजित दस दिवसीय उपवास पर एक लेख के माध्यम से छत्तीसगढ़ के पुलिस महानिदेशक एवं साहित्यकार विश्वरंजन ने टिप्पणी की है कि यदि गांधी आज जीवित होते तो शायद बस्तर के जंगलों में अकेले जा कर माओवादियों से कहते कि, 'मित्र! हिंसा छोड़ो, जो तुमसे असहमत हैं, उन्हें मारना छोड़ो, हम तुम्हें अब नहीं मारने देंगे. तुम्हे आदिवासियों को मारने के पूर्व हमें मारना पड़ेगा. हम उफ्फ तक नहीं करेंगे. हम हाथ तक नहीं उठाएंगे...
यह बात तो विश्वरंजन जी भी स्वीकार करेंगे कि राज्य की जो पुलिस व सेना के रूप में हिंसक शक्ति है वह नक्सलवादियों या किसी भी गैर राज्य हिंसक शक्ति से बड़ी है। विश्वरंजन जी जो बात गांधी के मुंह से गांधीवादियों के लिए कहलवाना चाहते हैं वही बात हम विश्वरंजन जी की पुलिस व उसके द्वारा समर्थित 'सलवा जुडूम नामक गैर संवैधानिक सशस्त्र बल के लिए कहना चाहेंगे। विश्वरंजन जी के अनुसार गांधी किसी भी हालत में उस समूह के साथ नहीं खड़े होते जिसका बुनियादी फलसफा हिंसा और आतंक पर टिका हुआ है। इसीलिए हम विश्वरंजन साहब को बताना चाहते हैं कि हम उनकी पुलिस, सलवा जुडूम व उनकी सरकार के साथ नहीं खड़े हैं.
इसका यह मतलब कतई नहीं है कि नक्सलवादियों द्वारा की गई हिंसा को जायज ठहराया जा सकता है। कुल मिलाकर विश्वरंजन जी जब नक्सलवादी हिंसा की बात करते हैं तो वे यह नहीं भुला सकते कि नक्सलवादी हिंसा असल में राज्य हिंसा के जवाब में प्रति हिंसा है। इस राज्य हिंसा में प्रत्यक्ष हिंसा तो शामिल है ही जिसके अंतर्गत लोग पुलिस सेना व सलवा जुडूम द्वारा की गई हिंसात्मक कार्रवाईयों के शिकार हुए हैं, लेकिन ज्यादा महत्वपूर्ण वह अप्रत्यक्ष हिंसा है जिसके तहत एक लंबी अवधि के दौरान आम लोगों को उनकी न्यूनतम मजदूरी, सार्वजनिक वितरण प्रणाली के तहत अनाज, मूलभूत चिकित्सा व अन्य सुविधाओं से वंचित कर उन्हें घुट-घुट कर मरने के लिए मजबूर किया गया है।
यह शोषण व भ्रष्टाचार की व्यवस्था तो विश्वरंजन साहब नक्सलवाद से पुरानी समस्याएं हैं और आपकी राज्य व्यवस्था ने स्थिति को ठीक करने के लिए कोई भी ठोस कदम नहीं उठाया। बिना नक्सलवाद के मूल कारणों का विश्लेषण किए तथा नक्सलवाद के पनपने में राज्य व्यवस्था की भूमिका की बात किए बिना नक्सलवाद को सिर्फ कोसने से कुछ काम नहीं चलेगा। नक्सलवाद के पनपने का सीधा-सीधा मतलब है कि राज्य असफल रहा है. यदि राज्य ने अपने सभी नागरिकों को उनकी मौलिक आवश्यकताओं की पूर्ति हेतु साधन उपलब्ध कराए होते तथा उन्हें सम्मान व सुरक्षा के साथ जीने का मौका उपलब्ध कराया होता तो शायद हमें आज नक्सलवाद की समस्या का सामना ही न करना पड़ता. नक्सलवाद की समस्या के निश्चित सामाजिक आर्थिक-राजनीतिक कारण हैं और उसका समाधान भी सामाजिक-आर्थिक-राजनीतिक क्षेत्रों में ही ढूंढ़ना होगा. नक्सलवाद की समस्या का समाधान सलवा जुडूम कतई नहीं हो सकता. राज्य व्यवस्था को अपने चरित्र में परिवर्तन लाना पड़ेगा. उसे सिर्फ संपन्न वर्ग, जिसमें अब ठेकेदार, कंपनियां व माफिया भी शामिल हैं, के संरक्षक की भूमिका छोड़कर आम गरीब वंचित नागरिकों का हितैषी बनना पड़ेगा.
इस बात में तो कोई शक है ही नहीं कि गांधी कभी भी नक्सलवादियों के हिंसा व आतंक के फलसफे का समर्थन नहीं करते लेकिन, विश्वरंजन साहब ने आज जिस शासन-प्रशासन तंत्र का प्रतिनिधित्व कर रहे हैं उसका भी कभी समर्थन नहीं करते। गांधी की ग्राम स्वराज्य व्यवस्था में तो हिंसा व आतंक के तरीकों का इस्तेमाल करने वाली पुलिस व सेना का कोई स्थान हो ही नहीं सकता। वह पुलिस जो आम नागरिकों के लिए दहशत का प्रतीक है को गांधी कभी स्वीकार करते ही नहीं. आपके थानों में जहां आम इंसान अपमानित होता है, साधारण सी प्राथमिकी भी दर्ज नहीं होती, 'पहुंच वाले अपराधी खुले घूमते हैं तथा निर्दोष लोगों को पकड़ कर जेलों में डाल दिया जाता है ऐसी व्यवस्था के मुखिया हैं आप यदि आज एक संवेदनशील साहित्यकार हैं तो हम आपसे यह तो उम्मीद नहीं ही करेंगे कि आप एक फासीवादी सरकार की सेवा करते हुए उसके फासीवादी तरीकों को जायज ठहराएंगे.चलिए हमारी हिम्मत नहीं है कि हम जाकर बस्तर के जंगलों में नक्सलवादियों को अहिंसा का पाठ पढ़ा सके, लेकिन आपके पास तो पूरा तंत्र है. किसी भी गांधीवादी की संस्था से बहुत ज्यादा साधन आपके पास हैं. नक्सलवाद से लड़ने के लिए केंद्र सरकार ने आपको असीमित साधन उपलब्ध कराए हैं.आप ही कुछ गांधीवादी तरीकों का प्रयोग क्यों नहीं करते? क्या आप पुलिस की व्यवस्था को और मानवीय बना सकते हैं? क्या आप प्रदेश के पुलिस मुखिया होने के नाते ऐसा माहौल बना सकते हैं कि आज गरीब नागरिक को पुलिस से डर न लगे और वह पुलिस को मित्र के रूप में स्वीकार कर सके? जब आम इंसान थानों में जाए तो उसका स्वागत गालियों से न हो बल्कि उसे सम्मानपूर्वक बैठाया जाए. क्या आपकी पुलिस लोगों को सुरक्षा प्रदान करने के साथ अन्य सरकारी योजनाओं, जैसे सार्वजनिक वितरण प्रणाली, वृध्दावस्था- विधवा पेंशन, गरीबों के लिए आवास, भूमिहीनों के लिए पट्टे, मूलभूत शिक्षा स्वास्थ्य सुविधाएं तथा राष्ट्रीय ग्रामीण रोजगार गारंटी योजना का पूरा-पूरा लाभ, बिना किसी भ्रष्टाचार के, उपलब्ध करा सकती है.फिलहाल तो लोगों को छत्तीसगढ़ में राष्ट्रीय ग्रामीण रोजगार गारंटी अधिनियम के तहत न्यूनतम एक सौ दिनों का रोजगार नहीं मिल रहा. व्यापक स्तर पर धांधली अलग है. राष्ट्रीय ग्रामीण रोजगार गारंटी अधिनियम भी एक राष्ट्रीय कानून है. क्या इस कानून की खुलेआम धाियां उड़ाने वाले अधिकारियों-कर्मचारियों-जनप्रतिनिधियों- ठेकेदारों के खिलाफ आज छत्तीसगढ़ विशेष जन सुरक्षा अधिनियम या गैर कानूनी गतिविधियां (निरोधक) कानून के तहत कोई कार्रवाईयां कर सकते हैं? क्या पुलिस प्रभावशाली लोगों की संरक्षक बने रहने के बजाए इस देश के आम इंसान के मौलिक एवं कानूनी अधिकारों की संरक्षक बन सकती है? मौलिक सवाल यह है कि क्या आज इस व्यवस्था में मूलचूल परिवर्तन लाने वाले कोई कदम उठा सकते हैं? सलवा जुडूम का प्रयोग तो कोई भी कर सकता है क्योंकि शासक वर्ग की मानसिकता में जनता के किसी उभार को कुचलने के लिए हिंसक रास्ता ही सहज रूप से आता है. किंतु क्या हम आप जैसे संवेदनशील अधिकारी से उम्मीद करें कि वह कोई सृजनात्मक अहिंसक प्रयोग करेगा जिसे वार्क में गांधीवादी श्रोणी में रखा जा सके?हमारी जो क्षमता है उससे हम सरकार की सभी जन विरोधी नीतियों के खिलाफ बोलते रहेंगे. नक्सलवादियों की हिंसा का हम समर्थन नहीं करते. किंतु राज्य की ताकत व भूमिका नक्सलवादियों से बड़ी है. राज्य से हम उम्मीद करते हैं कि वह अपनी संवैधानिक जिम्मेदारियां ठीक से निभाएगा. हमारा मानना है कि राज्य ही नक्सलवाद की समस्या के उभरने के लिए जिम्मेदार है तथा वही अपनी नीतियों में परिवर्तन कर इस समस्या पर काबू भी पा सकता है. हमारे लिए छत्तीसगढ़ विशेष जनसुरक्षा अधिनियम व गैर कानूनी गतिविधियां (निरोधक) अधिनियम के खिलाफ संघर्ष लोकतंत्र को बचाने संघर्ष है. समस्या पेचीदी है तथा समाधान भी आसान नहीं है यह आप भी जानते हैं. अत: नक्सलवाद की समस्या पर बहस को सिर्फ हिंसा-अहिंसा के पक्ष या विरोध में बहस तक सीमित न करें. अच्छा होगा यदि आप अपने कौशल का प्रयोग नक्सलवाद की समस्या के मानवीय समाज में लगाएं. जब तक आपके तरीके नहीं बदलते तब तक हम आपकी सरकार के खिलाफ बोलते रहेंगे तथा उपवास जैसे कार्यक्रमों का भी आयोजन करेंगे.आपको याद है न गांधी ने क्या कहा था स्वराज्य के बारे में. स्वराज्य का मतलब सिर्फ कुछ लोगों द्वारा सत्ता प्राप्त कर लेना नहीं बल्कि बहुसंख्यक जनता के अंदर यह शक्ति पैदा होना है कि वह कुछ लोगों द्वारा सत्ता के दुरुपयोग का प्रतिकार कर सके. सलवा जुडूम सत्ता का दुरुपयोग है. लोगों के हाथ में हथियार देना कोई बुध्दिमानी पूर्ण कार्रवाई नहीं कही जाएगी. क्या हम इतिहास से यह सबक नहीं सीखेंगे कि जब भी गैर राज्य शक्तियों को हथियारों से लैस किया गया है वह कुछ समय के बाद अनियंत्रित हो जाती है तथा समाज के लिए घातक हो जाती हैं.आखिर सलवा जुडूम के माध्यम से लोगों को गांव छोड़कर शिविरों में रहने के लिए क्यों मजबूर किया जा रहा है? लोगों को उनके गांवों, खेतों, जंगलों से उजाड़कर उन्हें अपनी आजीविका के लिए भी मोहताज बनाकर हम उन्हें कैसी सुरक्षा प्रदान कर सकते हैं? छत्तीसगढ़ प्राकृतिक संसाधनों में धनी है. फिर भी विडम्बना यह है कि लोग गरीब एवं लाचार.गांधी के ग्राम स्वराज्य विचार के मुताबिक तो गांवों को ही सिर्फ यह अधिकार है कि वे अपनी व्यवस्था कैसे बनाएं. गांवों में प्राकृतिक संसाधनों का प्रबंधन कैसे होगा, गांव में शिक्षा स्वास्थ्य सुरक्षा की व्यवस्था कैसी होगी यह तय करने का अधिकार स्थानीय लोगों को ही है. किंतु ऐसा प्रतीत होता है कि छत्तीसगढ़ सरकार अपने प्राकृतिक संसाधनों पर से स्थानीय लोगों का अधिकार समाप्त कर पूंजीपतियों के मुनाफा कमाने के लिए उन्हें इन संसाधनों के खुले दोहन की छूट देना चाहते है.क्या आप इस तथाकथित विकास के समर्थक हैं विश्वरंजन जी? यह विकास तो गांधी के विचारों के अनुकूल है नहीं. यदि आप नक्सलवादियों को नहीं समझा सकते तो कम से कम उन पूंजीपतियों को ही समझा दे कि जनता के प्राकृतिक संसाधनों से अपनी गिध्द दृष्टि हटा ले. यदि आप ये भी नहीं कर सकते तो गांधी के प्रिय विषय मद्यनिषेध पर तो कुछ पहल ले ही सकते हैं. क्या आप सरकार द्वारा शराब को बढ़ावा देने के कार्यक्रम जिससे फायदा सिर्फ शराब माफियों का हो रहा तथा आम इंसान का परिवार बरबाद हो रहा को रोकने के लिए कुछ कदम उठा सकते हैं?
www.rashtriyasahara.com से साभार

1 comment:

राजीव रंजन प्रसाद said...

बस्तर पहुँचने का अधिक किराया भी नहीं है और वहाँ होटल-वोटल भी सस्ते हैं। हवा में लिखने से बेहतर है हमारी मिट्टी का सच देख कर लिखा जाये।

भ्रष्टाचार और शोषण क्या केवल बस्तर की ही समस्या है? पूरा देश इस विभीषिका का शिकार है और अपने पंगू हो चुके लोकतंत्र को मजबूती प्रदान करने या कि व्यवस्था के खिलाफ बहुत सी आवाजे उठती भी हैं। केवल समाजिक-आर्थिक कारण का मुलम्मा लगा कर इस सच से इनकार नहीं किया जा सकता कि नक्सलवादी एसे आतंकवादी हैं जिन्होंने जंगल छुपने की सुविधा के कारण अपने अड्डे बना रखे हैं..क्रांति की छी-छा लेदर इनका प्रोफेशन है।


सलवा जुडुम नक्सलवाद के विरोध में खडा स्वर है। भाई जब आदिम नहीं चाहते कि उनकी लडाई तेलुगु या बंगाली गुण्डे लडें और वे हुंकार करते हैं कि अपनी लडाई लडने के लिये वे मुरिया-माडिया-भतरा-हलबा ही काफी हैं तो दिल्ली के पेट में क्यों दर्द है? अखबार नवीसों को क्या भूत दिखने कम हो गये?


झूठ के पंख नहीं होते। मेरी मातृभूमि बस्तर का दर्द है नक्सलवाद और कलम घसीटों से गुजारिश है कि झूठ की चाशनी में आतंकवादिता को क्रांति का चोला पहनाने की कोशिशे बंद ही करें तो बेहतर...
इस सीधे साधे अंचल को भी चैन से जीने का अधिकार है।

***राजीव रंजन प्रसाद