Thursday, August 7, 2008

जीवित रहेगा नक्सलवाद

महाश्वेता देवी
लेखिका व सामाजिक चिंतक
नक्सलवाद की प्रासंगिकता और इसके प्रति जन रूझानों में कोई कमी नहीं आई है। लगता है, 70 के दशक से कहीं अधिक इसकी जरूरत आज है। विगत 10–15 सालों में भूखे, गरीबों की संख्या में लगातार इजाफा हुआ है। राजनीतिक–आर्थिक तंत्र पूरी तरह अमीरों के हवाले हैं। यह आंदोलन और आगे बढ़ेगा, क्योंकि वर्तमान व्यवस्था में बहुसंख्यक लोग हाशिये पर खड़े हैं और उनका तीमारदार कोई नहीं है। सरकार भी मान रही है कि नक्सलवाद का प्रसार लगातार बढ़ रहा है और अभी यह देश के एक-तिहाई से अधिक क्षेत्रों में अपनी जड़ें जमा चुका है, लेकिन सरकार नक्सलवाद को लेकर हमेशा यह दुविधा पालती रही है कि इसे कानून-व्यवस्था की समस्या माना जाए या सामाजिक–आर्थिक समस्या। समस्या यह है कि सरकार नक्सलियों के दमन की नीति पर चलती रही और उन समस्याओं पर बिल्कुल गौर नहीं किया, जिनके आलोक में नक्सलवाद का उदय हुआ था।
नक्सलवाद लोगों के दिलों में इसलिए जगह बनाए हुए है, क्योंकि इसके आंदोलनकर्मियों का अपना कोई हित नहीं होता। उन्हें न तो सत्ता चाहिए और न वोट। वे वैचारिक लड़ाई लड़ने वाले आत्म-त्यागी लोग हैं। उनमें गजब का साहस है। उनके बलिदानी व्यक्तित्व में मुझे आदर्श नजर आता है। उनका आंदोलन ईमानदार, आकर्षक व अच्छे उद्देश्यों के लिए है। यही कारण है कि मेरी लेखनी में भी यह प्रमुखता से मौजूद है। फिर आपको यह समझना होगा कि उल्फा, बोडो, एनएससीएन की तरह यह कोई पृथकतावादी आंदोलन नहीं है। फिर नक्सली संगठनों को स्थानीय स्तर पर समर्थन भी पृथकतावादी संगठनों से काफी अधिक प्राप्त है। नक्सलवाद की जड़ें इसलिए भी मौजूद हैं कि नक्सल संगठनों ने बिल्कुल निचले स्तर से अपनी जड़ें जमानी शुरू कीं। जैसे छत्तीसगढ़ में सबसे पहले आदिवासियों को बिचौलियों और तेंदू पत्ता के ठेकेदारों के खिलाफ एकजुट किया गया। जमीनी स्तर पर यह आंदोलन शुरू हुआ, इसलिए सरकार के लिए आज यह एक बड़ी चुनौती बन गई। राज्य व्यवस्था के अपराधीकरण और पंगु होने का नतीजा ही है कि नक्सलवाद का प्रसार तेजी से हो रहा है।
जिन मुद्दों पर यह आंदोलन शुरू हुआ था, वे आज भी मौजूद हैं इसलिए कोई कारण नहीं कि इस आंदोलन की जड़ें कमजोर हो जाएं। आज देश में 56 नक्सल गुट मौजूद हैं और इनके प्रभाव में देश की एक-तिहाई भूमि है। मैं समझती हूं कि इसके अधिकार क्षेत्र में और बढ़ोत्तरी होगी, क्योंकि समाज से असंतोष और विक्षोभ का नाश नहीं हुआ है। लाखों लोग भूखे, पीड़ित, शोषित और अपने मौलिक अधिकारों से भी वंचित हैं, ऐसे में नक्सलवाद का खात्मा कैसे होगा? अर्थव्यवस्था का जब तक असंतुलित विकास होगा, दबे-कुचले लोग व्यवस्था के प्रतिरोध में हथियार उठाएंगे ही। यह स्थिति सर्वकालिक व सर्वदेशीय होगी।
प्रस्तुति- आशुतोष प्रताप सिंह
www.rashtriyasahara.com से साभार

1 comment:

राजीव रंजन प्रसाद said...

बडे झूठ जब बडे नाम बोलते हैं तो उन्हे यह मुगालता होता है कि वे सच बोल रहे हैं। नक्सलवाद् और आतंकवाद में कोई अंतर नहीं।

आतंकवाद की प्रासंगिकता में कौन सी कमी आ गयी है? सुकारू मारा जाता है बस्तर में, तो बेचारा क्रांति की वेदी चढ गया और अहमदाबाद में आतंकवाद की..दोहरे मापदंड से लोग बाहर क्यों नहीं निकलते पता नहीं। यह सच है कि नक्सली आतंकवाद और आतंकवाद का प्रसार लगातार बढ रहा है अंतर केवल इतना है कि एक विक्षिप्त मानसिकता के लोगों द्वारा संचालित है तो दूसरा विक्षिप्त किस्म के बुद्धिजीवियों द्वारा।

नक्सलियों का महिमामंडन तो ठीक है लेकिन उन हजारों स्कूल विहीन बच्चों और विस्थापित होते ग्रामीणों के पीछे जिनके हाँथ हैं वे कितनी आरतियों से संतुष्ट होंगे पता नहीं। किन्हें इनकी जरूरत है? बस्तर के अंचल का होने के कारण एक सवाल कि उन्हे हमारी मिट्टी नें आवाज नहीं दी..किस लिये आये? बस्तर की कराह वहाँ के आम जन से सुन कर देखें.. फिर सुकारू-बोदी-बुदरू अपनी लडाई खुद लडना जानते हैं उन्हे लाल-पीली सोच वाले लेखकों की न तो सहानुभुति चाहिये न ही बंदूखें। आत्मत्याग, बलिदान जैसे शब्दों के बडे अर्थ होते हैं आतंकवादियों के लिये इनका प्रयोग ठीक नहीं।

बहुत से लोग आज इन्ही नक्सलियों के कारण भूखे-नंगे और अशिक्षित रह गये हैं। पलायन कर रहे हैं या क्षुब्ध हैं..या मारे जा रहे हैं। बहुत पैर पसार लिया इस आतंक नें लेकिन एक सवाल "श्याम-श्वेत" में कि डाकू चंबल में ही क्यो और नक्सली जंगल में ही क्यों? उत्तर सपाट है कि "बिल चाहिये..."।

नक्सलवाद कभी आन्दोलन हुआ करता था आज विशुद्ध आतंकवाद है।.... और आम लोगों पर तरस खाने की आवश्यकता भी नहीं सच जानना है तो इतिहास की परतें यहाँ से उधेडें

http://rajeevnhpc.blogspot.com/2008/07/blog-post_14.html

***राजीव रंजन प्रसाद