Monday, August 11, 2008

मीडिया : डर का बाजार

सुधीश पचौरी
डर का बाजार नए सिरे से गर्म किया जा रहा है। यह काम कथित धर्ममूलक चैनल तो करते ही रहते हैं, इन दिनों इस धंधे में कुछ खबर चैनल बढ़त ले रहे हैं। यह सब बातें समाचार कर्म के सामान्यतया मान्य लक्ष्यों के विपरीत नजर आती हैं। भारतीय आसमान में धर्ममूलक चैनलों का पहले से ही बोलबाला है। इनकी संख्या आधा दर्जन के करीब है। इनकी दर्शक जनता अलग है। इनमें तरह-तरह के बाबा, स्वामी और योगी आदि आते-जाते हैं। कथाएं कहते, प्रवचन-उपदेश देते रहते हैं। धर्म विषयक चैनल जगत प्रपंच को डरावना बताते हैं। काया को माया बताते हैं और ईश्वर आराधना के विविध तरीके बताते रहते हैं। डर की दुकानें यहां भी लगती हैं। ये दुकानें परंपरागत कही जा सकती हंै। नास्तिक की नजर में धर्मानुभव भक्त्यानुभव उस अनजाने-अनकहे डर के आगे दिलासा देने वाले मानवकृत उपाय हंै जो सबके जीवन में आदतन रहते हैं। धर्ममूलक चैनलों में भक्ति या धर्म भावना किसी भव्य लीला की तरह, तमाशे की तरह दी जाती है। इन चैनलों में रोज प्रवचनादि करने वाले सैकड़ों बाबा लोग बहुत सजे-धजे चमकदार सिंहासन पर शोभित होते हैं। अच्छे सांउड सिस्टम होते हैं। सामने उनके मघ्यवर्गीय खाते-पीते घरों के शिष्य गण, आगंतुक श्रद्धालु जन बैठे होते हैं। उनमें से अनेक बाबा जी के विशेष पंथ में दीक्षित तक होते हैं। गंडा ताबीज बंधाते हैं, कथामृत-उपदेशामृत का पान करते रहते हैं। कीर्तन और गाने बजाने पर नाच उठते हैं। ये चैनल धर्म के इस कारोबार में खासी कमाई करते हैं और इन दिनों महत्वपूर्ण बाबाओं के लाइव टेलिकास्ट भी किया करते हैं। इनके कैमरामैन सुंदर चेहरों की आ॓र युवतियों की आ॓र खास मौकों पर फोकस किया करते हैं। इनमें कथारस तो नाम मात्र को रहता है। गीत-संगीत, नाच-गाने ज्यादा रहते हैं। बाबा लोग, उनकी संगीत मंडली फिल्मी गानों की धुन पर भजनादि गाती रहती हैं अब तो ऐसे चैनल ‘बॉडी फिटनेस’ के, ‘जिम’ के सामान और ब्यूटी प्रसाधनों के विज्ञापन भी देने लगे हैं। इस तरह की इनकी धर्म विषयक लीलाएं अपने लीला रूप में डर का निर्माण करते-करते भी आनंदकारी और कई बार कॉमिक तमाशा लगा करती हैं।
सवाल उठता है कि खबर चैनल ऐसे विषयों में क्यों आगे आने लगे हैं? क्यों कई चैनल पौराणिक कथाओं को सामान्य तीर्थाटन की खबर बनाने की जगह दिव्य मिथक कथाओं को यथार्थ जैसा बनाते हैं? विश्वसनीय बनाने के लिए कथित ‘वैज्ञानिक जांच’ आदि तक का जिक्र करते रहते हैं ताकि दर्शक उनकी प्रामाणिकता पर संदेह न करें। इन दिनों ऐसे चैनलों के कुछ कैमरे पुराण कथाओं को, मिथकों को सीधे फील्ड में खोजते फिरते हैं। कैमरों के जरिए ढूंढ़ते नजर आते हैं। और उन्हें अक्सर हर जगह कुछ न कुछ मिल ही जाता है जैसे एक चैनल ने परशुराम का धनुष खोज निकाला तो दूसरे ने रावण की गोलियां निकाल डाली। किसी ने रावण की तपस्या की जगह खोज डाली और किसी ने सीता जी की अशोक वाटिका ही ख्ोाज निकाली! किसी दिन कोई मंदोदरी के कक्ष तक में प्रवेश कर जाएगा।
हाल में आठ अगस्त दो हजार आठ के दिन ‘आठ आठ आठ’ के संयोग को लेकर जिस तरह कई चैनलों ने अंक ज्योतिष का सहारा लेकर प्रलयोन्मादी हड़कंप मचाया वह तो डर का पूरा कोरस ही रहा। कई हिंदी खबर चैनल आठ-आठ के अंक के संयोग पर ऐसी ऐसी भविष्यवाणियां देने लगे मानो आठ अगस्त के दिन या उसके बाद किसी भी दिन दुनिया में प्रलय हो जाएगी। सृष्टि विनाश तय समझिए। एक चैनल ने माया सभ्यता को लेकर जो बातें की वह सिर्फ प्रलयलीला की तरह ही रहीं। इन दिनों ही शनिवार को कम से कम दो खबर चैनल बाबाओं को बिठाकर शनि माहात्म्य पर लंबी चर्चाएं कराते हंै उनके साथ राशिफल जोड़कर सबको शनि के दिन क्या करना है, क्या पहनना है, खाना है- आदि व्यवस्था देते रहते हैं।
पिछले दो-तीन महीने से बड़े देवता और बड़े मिथक के रूप में शनिदेव का निर्माण किया जा रहा है। इससे शनिदेव संबंधी भक्ति उघोग जुड़ा है। पिछले कई बरस से दक्षिण दिल्ली में एक शनि मंदिर के बडे़ पोस्टर लगे रहे और जिस दिन शनि की सबसे बड़ी पूजा का दिन बताया गया उस दिन उस मंदिर में अभूतपूर्व भीड़ पहुंची। खूब चढ़ावा आया। इस नए मिथक्करण के काम में ऐसे बाबाओं को प्रसारित करने वाले चैनलों की भूमिका से इनकार नहीं किया जा सकता। शनिदेव डराने वाले देवता माने जाते हैं। ज्योतिष में उनकी ढइया और साढ़े साती कष्टकारी अवस्था कही जाती है। उनके शमन के उपाय भी बताए जाते हैं। धर्ममूलक चैनल ऐसे कार्यक्रम देते हैं तो ठीक लगता है लेकिन यही काम जब खबर चैनल करने लगते हैं तो ऐसे मिथक खबर की तरह सच बनने लगते हैं।खबर चैनलेंा की विश्वसनीयता उनके समकालीन होने, यथार्थवादी दिखने तथा तथ्यसम्मत होने में निहित रहती है। वे जो भी दिखाते हैं उसे तथ्यगत और तर्कसंगत माना जाता है। उनकी प्रामाणिकता खबर की समग्र ‘तर्कसंगति’ में ही बनती है। मिथक को सच की तरह देकर ये खबर चैनल मिथक को ‘तर्क संगति’ देकर उसे प्रामाणिक की तरह बनाते हैं और मिथक-मानसिकता को बल प्रदान देते हैं। इस तरह यह नवीन धार्मिक एजंडे बनाते हैं जिनकी अनुगूंजें और छायाएं नित्य नए बनने वाले धार्मिक समूहों की नरम-गरम गतिविधियों में सुनाई दिखाई देती हैं। समाज में हर तरफ धार्मिक महोच्चार के स्वर और मिथक प्रसारण के वर्तमान उघम के बीच कोई अनकही या कि निहित परस्परता दिख पड़ती है। यही समकालीन डर की राजनीति है जो विकासमूलकता के विरोध में जाती है।
www.rashtriyasahara.com से साभार

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