Thursday, July 31, 2008

ब्लॉग, आजादी और जिम्मेदारी

सुधीश पचौरी
ब्लॉग लेखन साइबर–लेखन है। साइबर–स्पेस नई तरह की आजादी वाला स्पेस है।
हिंदी में ब्लॉग बढ़ रहे हैं। यहां एकदम नवांकुर- नवेच्छु अभिव्यक्तियां करने लगे हैं। इनमें नए पत्रकार ज्यादा हैं। बहुत से अखबारों में काम करने वाले हैं, बहुत से टीवी आदि में काम करते हैं, बहुत से एनजीआ॓ वाले हैं और बहुत से लिखने-पढ़ने के शौकीन हैं। इन सबमें एक समान तत्व मिलता है : अपने मत को साइबर में धड़ल्ले से व्यक्त करना।
जिस हिंदी में अनेक पढ़े-लिखे लोग, बुद्धिजीवी कल तक कम्प्यूटर क्रांति के विरोध में रहे, उसे खतरा मानते रहे, उनकी जगह नए आ रहे हैं और धड़ल्ले से साइबर स्पेस का उपयोग कर रहे हैं। यह एक प्रगतिशील तत्व है। एक नई पीढ़ी नए ढंग की आजादी में ‘आजाद’ हो रही है। साहित्य-संस्कृति के बहुत सारे बौद्धिकों के चंगुल से बाहर निकलकर वे अपनी अभिव्यक्तियों की दुनिया रच रहे हैं। यह अच्छी बात है। उनके विषय अनंत हैं।
बहुत से ब्लॉग गंभीर काम करते हैं। वे सामाजिक महत्व की टिप्पणियां करते रहते हैं। बहुत से ब्लॉग उतने गंभीर नजर नहंीं आते हैं। ज्यादातर हिंदी ब्लॉगर हिंदी और समाज तथा निजी व्यक्तिगत विषयक विचार करते हैं। कई राजनीति पर लिखते हैं और राजनीति-सी करते रहते हैं। कई पर्सनल स्कोर सेटल करने के चक्कर में रहते हैं। भाषा अराजक-सी हो उठती हैं। उनके लेखक अपने लक्ष्य के एकदम समक्ष होते हैं और उनके आहत-अनाहत भी उनसे सम्मुखता में रहते हैं। यहां बेहद ‘तात्कालिकता’ का सदृश्य बना रहता है। उसी में उनके हिस्सेदार भी रहते हैं। ऐसे कई ब्लॉग हैं, जिनमें निजी समक्षता और तीखा तुरंतापन नजर आता है। दुश्मन साफ नजर आते हैं। मारने वाले भी सामने होते हैं और मजेखोर भी।
हिंदी ब्लॉग का यह वर्तमान सीन सातवें दशक के आसपास की ‘लिटिल मैग़जीनों’ के विस्फोट की याद ताजा करता है। तब का सीन ऐसा था : किसी छोटे शहर से या कहीं से भी कोई छोटी पत्रिका निकाल बैठता। उसमें अपनी रचना अपने दोस्तों की रचनाएं और विचार देता। वह नए लोगों के बीच प्रसारित रहती। पुरानों के बीच जाती। भाषा में नाराजगी एक स्थायी भाव की तरह होती। बड़े ंसंस्थानों के विरोध में उनमें टिप्पणियां रहतीं। बड़े प्रेस के विरोध में उनमें लिखा रहता। भाषा तीखी, एकदम पर्सनल हिसाब निपटाने की भी रहती।
अकविता, अकहानी और मोहभंग के लेखन के तीखे नए स्वर यहंीं नजर आए। उनसे एक प्रवृत्ति बनी। कई कवि ख्यात हुए, कई कहानीकार बने, अपने निजीपन-अपनी तात्कालिकता और गरम मिजाजी के कारण छोटी पत्रिकाएं नयों का ध्यान खींचतीं। उनकी दीक्षा-सी करतीं। उनका मंच बनतीं। अंतत: यह प्रवृत्ति अपनी ताजगी खो बैठी। गुस्सा पिलपिला हो गया और ठहराव आ गया।
ब्लॉग लेखन का स्पेस लिटिल मैगज़ीन के स्पेस से जरा अलग है। यह साइबर है, इसलिए ‘अनंत’ का अहसास देता है, ज्यादा आजाद जगह का अहसास देता है। भारत में कम्प्यूटर अभी कम है। हिंदी क्षेत्रों में उनका ज्यादा प्रवेश नहीं है। इंटरनेट का उपयोग करने वाले बहुत नहीं हैं। उसका भी निजी अभिव्यक्तिपरक उपयोग करने वाले और भी कम हैं, इसलिए उसकी नागरिकता अभी सीमित है। इसलिए इसमें उपलब्ध होने वाली आजादी अपने निश्चित समाज के अनुशासन में नहीं होती, क्योंकि यहां कोई निश्चित समाज या कहें, साक्षात पाठक नहीं रहता। पाठक होते हैं, प्रतिक्रिया करने वाले सक्रिय पाठक होते हैं। वे प्रतिक्रियाएं देते भी हैं। उन्हें भी स्पेस मिलता है। इस तरह ब्लॉग स्पेस मूलत: इंटरएक्टिव है।
यहीं साइबर स्पेस की आजादी के यथार्थ अंतर्विरोध पैदा होने लगते हैं। वहां ‘स्थिरता’ और ‘आजादी’ में विलोम का भाव रहता है। उसके ताजापन यानी तात्कालिता और शब्दार्थ की निरंतर परिवर्तनशीलता में अ–विरोध रहता है। वहां अर्थ की अराजकता रहती है। यह लेखनी का क्रीड़ा– स्थल बनता है। चूंकि साइबर स्पेसी लेखन में पोस्टमॉडर्न के लक्षण भी रहते हैं, इसलिए उसमें कुछ अनिवार्य नैतिक विमर्श काम करते हैं। साइबर स्पेस के लेखन में आजादी और नैतिक विमर्शों के बीच तनाव रहते हैं। साइबर स्पेस में पुराने ढंग के साहित्य की उम्मीद करना व्यर्थ है। यह अच्छा भी है और बुरा भी है।
पाठक के प्रति समक्षता रहती है, मगर पाठक की साक्षात उपस्थिति का अभाव रहता है। तिस पर भी एक ब्लॉग कम्युनिटी का अहसास तिहरे अंतर्विरोध को जन्म देता है। समक्ष है, लेकिन साक्षात नहंीं। समाज है, लेकिन निर्गुण है लेकिन यह जीवन तो सगुण है भाई!
इस तरह किसी भी समाज में आते ही उसके कानून से इस आजादी का टकराव होता है। प्रिंट में कानून सीधे लागू होता है इसलिए स्थिरता रहती है, टीवी आदि में भी रहती है लेकिन साइबर स्पेस की आजादी इस ख्याल में अपनी अति पर रहती है कि उसकी नकेल किसी के हाथ में नहीं है। यह गलतफहमी एक हताशा ही साबित हो सकती है।
आजादी है, तो जिम्मेदारियां कम नहीं होतीं, बढ़ती जाती है। जितने आप आजाद हैं उतने आपको जिम्मेदार होना होता है और उतनी ही आजादी दूसरे को देनी होती है। साइबर स्पेस का असल मूल्य उदारवाद है, सहने की क्षमता है। अगर साइबर स्पेस एकतरफा निजी आजादी का स्पेस बना रह जाता है, तो वह जिम्मेदारी से विरत होने वाली बात है। यहां अभिव्यक्तियां करने वाले अपने शौक या काम के अंतर्विरोधों के बारे में सोच-विचार किया करें। इससे साइबर स्पेस वयस्क और जिम्मेदार बनेगा।
www.rashtriyasahara.com से साभार

3 comments:

रवि रतलामी said...

"...ऐसे कई ब्लॉग हैं, जिनमें निजी समक्षता और तीखा तुरंतापन नजर आता है। दुश्मन साफ नजर आते हैं। मारने वाले भी सामने होते हैं और मजेखोर भी। ..."

ऐसे कितने हैं सुधीश जी? माफ कीजिए, तीन हजार में से सिर्फ दो-चार, और वो आपको नजर आ गए. ब्लॉग पर सुधीश की विवेचना सतही और घोर साहित्यिक नजर आती है. विषयों, माध्यमों (दृश्य, श्रव्य)और लेखकों की विविधताओं और संभावनाओं पर ज्यादा बात तो की ही नहीं गई जो कि इसका सबसे बड़ा प्लस पाइंट है. फिर भी, चलिए कुछ हल्ला तो हो रहा है और इससे हिन्दी ब्लॉगजगत का फायदा तो है...:)

शोभा said...

सुन्दर अभिव्यक्ति।

दिनेशराय द्विवेदी said...

सुधीश जी जरा एक आलोचना का हिन्दी ब्लाग खुद शुरू कीजिए फिर आनंद आएगा साइबर स्पेस की इस विधा का। आप का बहुत पुराना परिचित हूँ। इसलिए सलाह दे रहा हूँ।