तुम पूछते हो कि मेरी कविताएं क्यों नहीं करतीं फूलों और पत्तियों की बातें मेरे साथ आओ और देखो सड़कों पर बहता हुआ लहू ...पाब्लो नेरुदा.
Thursday, July 31, 2008
ब्लॉग, आजादी और जिम्मेदारी
बोल इस देश के गूंगे आदमी
आतंक और हिंसा को बढ़ावा देती फिल्में
Wednesday, July 30, 2008
संघर्ष की धाराएं
भारत में राजनैतिक आंदोलनों का इतिहास पुराना है। अगर एक-डेढ़ सौ साल के आसपास का इतिहास देखें तो आदिवासी इलाकों में अंग्रेज साम्राज्यवाद के खिलाफ विद्रोह हुए। अंग्रेजों ने अपना साम्राज्य बनाए रखने के लिए जिस निरंकुश नौकरशाही ढांचे को निर्मित किया उसके खिलाफ विद्रोह तेजी से पनपा। उसके बाद ब्रिटिश साम्राज्यवादियों के खिलाफ संघर्षों की लंबी कड़ी शुरू होती है। इसके बाद के भारत में सामंतवाद का विरोध राजनैतिक आंदोलन के केंद्र में खडा़ दिखाई देता है। वह सामंतवाद जो साम्राज्यवादी विचारों और निर्मित होने वाली निरंकुश व्यवस्था की धूरी के रूप में दिखाई देता है। यानी अपने यहां आंदोलन का वास्तविक अर्थ किसी व्यवस्था के आमूलचूल परिवर्तन की अपेक्षा में प्रगट होता रहा है। उसकी मुख्य अंतर्धारा राजनैतिक विकल्प की रही है। लेकिन यह भी देखा जा सकता है कि अंग्रेज साम्राज्यवाद के खिलाफ विद्रोह की पृष्ठभूमि को सिंचने वाला आदिवासी समाज यानी इस समाज का सबसे ज्यादा शोषित, पीड़ित, दमित व्यक्ति तमाम तरह के व्यवस्था विरोधी आंदोलनों के बावजूद अपनी स्थिति से निकल नहीं पाया है। उसे कल भी लूटना जारी था और वह निरंतर आज तक जारी है। आज सबसे ज्यादा ‘जनांदोलन’’ आदिवासी इलाके में ही हो रहे हैं और इलाकों में ही बहुराष्ट्रीय कंपनियों के साथ सबसे ज्यादा एमआ॓यू (मैमोरडम ऑफ अंडरस्टैंडिंग) साइन हो रहे हैं। जनांदोलन भी हो रहे हैं और गांव के गांव उजड़ रहे हैं।
आज जनांदोलन वे सभी तरह के आंदोलन कहलाने लगे हैं जिसमें किसी जाति, धर्म, समुदाय, पेशेवर तबके के किसी मुद्दे या समस्या को लेकर आंदोलन होते हैं। जनांदोलन से वास्तव में जो ध्वनि निकलती है क्या ये स्थितियां उसके अर्थ का विस्तार हंै या फिर उसके संकुचन के उदाहरण हैं ? इस पर बाद में विचार कर सकते हैं कि विस्तार और संकुचन की वाहक कौन सी शक्तियां रही है यानी किसने इस तरह से जनांदोलनों की धारा को विस्तारित किया है या फिर उसकी अर्थवत्ता को समेटने की योजना तैयार की। लेकिन यहां एक बात बहुत स्पष्ट तौर पर सामने आती है कि जनांदोलनों का अर्थ महज परिवर्तनगामी राजनीति के वाहक के रूप में नहीं रह गया है। सुधार के लिए संगठित कार्यक्रम नियमित तौर पर किए जाते हैं तो वे भी जनांदोलन कहलाते हैं। किसी समस्या या सीमित अर्थों वाले मुद्दों को लेकर विरोध कार्यक्रम, मांग के कार्यक्रम आयोजित किए जाते हैं तो उन्हें भी जनांदोलन कहा जा सकता है। अब तो कई बार सरकारें भी अपने किसी कार्यक्रम के लिए जनांदोलन करने का नारा देने लगती हैं। क्या इससे यह बात बहुत हद तक स्पष्ट नहीं होती है कि जनांदोलन के साथ विरोध की चेतना और परिवर्तन की राजनीति का जो पक्ष अनिवार्य रूप से जुडा़ दिखता रहा है वह बेहद कमजोर हुआ है। राजनीति अनिवार्यत: जनांदोलन का आधार होती है। कई बार राजनैतिक पक्ष को व्यापक अर्थों में प्रगट कर यह साबित करने की कोशिश की जा सकती है कि किसी क्षेत्र विशेष में किसी यथास्थितिवादी या वर्चस्ववादी समूहों की पक्षधर सरकार की नीति के खिलाफ सामूहिक भागेदारी वाले कार्यक्रमों को राजनैतिक जनआंदोलन कैसे नहीं माना जा सकता है? उसे भी माना जा सकता है और तमाम सुधारवादी आंदोलनों को भी राजनैतिक माना जा सकता है।
वह कौन सी तारीख है जब आंदोलनों को जनांदोलन कहने की जरूरत पड़ी। पहली बात तो यह कि यह जरूरत पड़ी क्यों? जहां तक ख्याल है कि अस्सी के बाद आंदोलनों में इस शब्द का तेजी से विकास दिखाई देता है। शायद 1974 के जेपी के नेतृत्व में इंदिरा गांधी के नेतृत्ववाली कांग्रेस की सत्ता के खिलाफ जो आंदोलन चला और जो सरकार बनी उसके भी विफल हो जाने के बाद राजनीतिक स्तर पर बुनियादी परिवर्तन की धाराओं ने अतीत से अलग आंदोलन की एक नई धारा विकसित करने की जरूरत पर बल देने के लिए जनांदोलन की शुरूआत करने की रणनीति बनाई हो। एक वैसे राजनैतिक लेखों का संग्रह सामने है जिसमें जनांदोलनों से जुड़े लेखक बुद्धिजीवी के नाम शमिल है। लेकिन उनमें से एक को छोड़कर किसी ने भी जनांदोलन शब्द का इस्तेमाल नहीं किया है। एक लेखक जिसने जनांदोलन शब्द का इस्तेमाल किया है उसका रिश्ता वर्गवादी विचारधारा से रहा है। ऐसा भी नहीं देखा गया कि पीपुल्स मूवमेंट जैसा कोई अंग्रेजी का शब्द भी अंग्रेजी की पुस्तक में दिखाई दिया हो। आज जिन अर्थों में जनांदोलन प्रचलित हुआ है वह अंग्रेजी के पीपुल्स मूवमेंट का ही अनूदित रूप हो सकता है। यहां इस बात की व्याख्या खुद करें कि अपनी भाषा में उपजे जनांदोलन और शासक की भाषा के अनूदित जनांदोलन से यहां क्या आशय है।अस्सी के बाद जो राजनीतिक स्थितियां बनीं, वह मतदाताओं के जबरदस्त मोह भंग का दौर था। यह बहुत खोज का विषय नहीं है कि उस राजनैतिक परिवर्तन में जन की कोई भूमिका नहीं थी। यहां जन का इस्तेमाल उन अर्थों में ही किया गया है जिन अर्थों में अब किया जा रहा है। जैसे जेपी ने झारखंड के धनबाद में आचार्य राममूर्ति को यह देखने के लिए कहा कि उनकी इस महती सभा में कितने आदिवासी आए हैं। तो आचार्य ने जेपी को जो सूचना दी उससे जेपी बेहद दुखी थे। उस सभा में आदिवासी नहीं थे। आदिवासी से मतलब 1947 के बाद के भारत का सबसे ज्यादा शोषित, दमित तबका जो शायद अपने पुराने जीवन स्तर से जरा भी ऊपर नहीं आ पाया है। सत्ता ने उसके साथ रिश्ता बनाने के बजाय उन्हें अपने लिए खाद पानी बनाए रखा। इस तरह से मोहभंग केवल मध्यवर्ग का हुआ था। असंतोष जो समाज के दबे–कुचले पिछड़े–दलितों के बीच पनप रहा था वह तेज हुआ था। सत्ता और राजनीतिक पार्टियों का रिश्ता जन और नागरिकों से लगभग समाप्त हो गया था।
अस्सी के बाद एक खास प्रवृत्ति यह दिखाई देती है कि समूह का रूप एक व्यक्ति के नेतृत्व में परिवर्तित होता चला गया। उस समय मास मोबलाइजेशन, लोक राजनीति जैसी शब्दावली सामाजिक कार्यकर्ताओं के इर्द–गिर्द दिखाई देने लगी। हालांकि दूसरे स्तर पर राजनीतिक जनांदोलनों की भी कोशिश जारी देखी जाती है। उनके बीच मोर्चाबद्ध होने की पहल भी होती है। लेकिन उनका राजनैतिक आंदोलन क्रमश: विस्तार के बजाय सिकुड़ता चला जाता है। जिस तरह से मोहभंग की स्थिति थी और असंतोष का विस्तार हुआ था उसे जनांदोलन में बदलने की क्षमता उनमें नहीं दिखी दूसरी तरफ विभिन्न हिस्सों में विभिन्न मुद्दों और विषयों पर कई कई ‘जनांदोलन’ दिखाई देने लगते हैं। यह कोशिश भी की गई कि गैर चुनावी और गैर पार्टीगत, राजनीतिक प्रक्रिया से अलग एक धारा विकसित की जाए। इसे आंदोलन की धारा के रूप में तो स्थापित किया गया, लेकिन व्यापक राजनैतिक सरोकार वहां से गायब था। तबकों, समूहों, समुदायों के आंदोलन थे, तो लेकिन दूरियां भी थीं। तब सार्वजनिक जीवन में सामाजिक कार्यकर्ताओं या आज की प्रचलित शब्दावली में स्वयंसेवियों की भूमिका बदल गई और वह ऐसी राजनीतिक भूमिका के रूप में विकसित हुई जो किसी वैकल्पिक राजनीति के विस्तार की संभावना पैदा करने की क्षमता से दूर थी।
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फुटकरीकरण जनांदोलन का
आदमी को चोट लगे और वह चीखे नहीं, यह नहीं हो सकता। दांत दबा कर मार खाना मनुष्य के स्वभाव में नहीं है। अगर ऐसा होता, तो दुनिया से दास प्रथा कभी खत्म नहीं होती। यह भी सच है कि गुलामी के संस्कार जाते-जाते ही जाते हैं। इसलिए बहुत लोगों को सिर उठाने में समय लगता है। जब बहुत सारे लोग किसी एक मुद्दे पर संगठित होकर सिर उठाते हैं, तो यह जनांदोलन की शक्ल ले लेता है। भारत का स्वतंत्रता संघर्ष ऐसा ही एक महान जनांदोलन था। जनांदोलन से पैदा होने वाला यह नया देश अपनी मूल प्रतिज्ञा को ही भूल जाए, यह एक अस्वाभाविक स्थिति है। लेकिन आंखों दिखती सचाई से कौन इनकार कर सकता है?
जनांदोलन के लिए कम से कम तीन तत्व चाहिए-- मुद्दा, लोग और नेतृत्व। इनमें से कोई भी एक तत्व गायब हो तो आंदोलन नहीं हो सकता। जरूरी नहीं कि मुद्दा जायज हो। हमने पिछले दो दशकों में राम जन्मभूमि मंदिर को केंद्र में रख कर एक ऐसे आंदोलन को जन्म लेते और पूरे उत्तार भारत में फैलते देखा है, जिसके बिना देश का काम बखूबी चल सकता था। लेकिन नेतृत्व इतना शक्तिशाली था कि आंदोलन घनीभूत होता गया और हजारों लोगों की जान गई तथा समाज में फूट-सी पड़ गई। इस तरह के कई नकारात्मक आंदोलन हम देख चुके हैं। वस्तुत: नकारात्मक आंदोलन भी किसी न किसी कुंठा से शक्ति और ऊर्जा पाते हैं। इसका ताजा उदाहरण कश्मीर में अमरनाथ श्राइन बोर्ड को दी गई और फिर वापस ले ली गई जमीन का मुद्दा है। अगर यह जमीन न दी गई होती, तो कोई मुद्दा नहीं था। लेकिन दी गई जमीन वापस ले लेने पर हिन्दू मानस में अपमानित होने का भाव पैदा हो गया। इसी तरह राजस्थान के गुर्जर हाल तक शांत थे। लेकिन जब उन्हें यह लगा कि आरक्षण का आश्वासन देकर उनका वोट लेने का छल किया गया था, तो वे उन्माद में आ गए। अब गोरखालैंड की मांग को लेकर गर्मी पैदा होने की बारी आती दिखाई पड़ रही है। सुबास घीसिग जिस मिशन को आधी दूर तक ले जा कर बैठ गए और सत्ताा सुख में डूब गए, उस मिशन को आगे बढ़ाने के लिए कुछ और खूंखार लोग सामने आ रहे हैं। गोरखालैंड कहे जाने वाले इलाके में खून-खराबा होना निश्चित है।
हाल के समय में जो एक तार्किक और संगत आंदोलन देखने में आया, वह है नर्मदा बचाआ॓ आंदोलन। कहा जा सकता है कि नर्मदा बचाआ॓ आंदोलन की नेता मेधा पाटकर भारत की अंतरात्मा का उज्ज्वल प्रतीक बन चुकी हैं। उन्होंने नर्मदा नदी पर बनाए जा रहे बड़े-बड़े बांधों के खिलाफ जितना सश‡ जनांदोलन खड़ा किया, वह एशिया में एक अद्भुत उदाहरण है। इसकी खास बात यह थी कि इस जनांदोलन का आधार दलित और आदिवासी जन थे। देश का खाता-पीता मध्य वर्ग कुल मिलाकर उसके खिलाफ ही था। सरकार के तीनों अंग -- विधायिका, कार्यपालिका और न्यायपालिका -- मुख्यत: इसी वर्ग के लोगों द्वारा संचालित होते हैं। इसीलिए जबरदस्त प्रतिवाद के बावजूद नर्मदा को नहीं बचाया जा सका। उसे जगह-जगह बांधा जा रहा है। चूंकि मेधा पाटकर ने इस एक मुद्दे से ही अपनी पहचान को जोड़ रखा है, इसलिए अब उनके पास कोई मुद्दा नहीं बचा। जहां भी जन आक्रोश की लपटें दिखाई देती हैं, वे पहुंच जाती हैं। उनके पास वैकल्पिक व्यवस्था की एक पूरी सोच दिखाई देती है, पर वे सत्तार के दशक तक के समाजवादी या साम्यवादी आंदोलन की तरह कोई व्यापक मुद्दों वाला जनांदोलन खड़ा करने में असमर्थ हैं। यह बहुत ही दुर्भाग्यपूर्ण घटना है।
ऐसा लगता है कि किसी सक्षम नेतृत्व के अभाव में इस समय कोई ऐसा बड़ा जनांदोलन खड़ा नहीं हो पा रहा है जिसमें मुद्दों की व्यापकता हो और जो एक विस्तृत इलाके को अपने सम्मोहन में ले सके। नई अर्थनीति के खिलाफ और स्वदेशी के पक्ष में राष्ट्रीय स्तर का जनांदोलन संगठित किया जा सकता था। यह गुंजाइश अभी भी है। लेकिन यह न हो पाया, न होता हुआ दिखाई देता है। मुद्दों की कोई कमी नहीं है, लोग भी उत्तोजित हैं, पर सक्षम नेतृत्व का अभाव है। लगता है कि एक बड़ी सेना की छोटी-छोटी टुकड़ियां कभी यहां तो कभी वहां किसी न किसी स्थानीय मुद्दे पर तलवार भांज रही हैं। लेकिन उन्हें किसी वैचारिक व्यवस्था और व्यापक संगठन से जोड़ने वाला नेतृत्व अभी तक पैदा नहीं हो पाया है। परिणामस्वरूप जनांदोलनों का फुटकरीकरण हो रहा है। छोटी-छोटी घटनाओं के माध्यम से लोगों का असंतोष विस्फोटक ढंग से प्रगट हो रहा है, पर इससे सत्ता के तिलिस्म को कोई निर्णायक चोट नहीं लगती। वह और मजबूत होता जाता है। वह जितना मजबूत होता जाता है, उतना ही आततायी हो रहा है। इसलिए असंतोष उत्तारोत्तार विस्फोटक तथा हिसक होता जाता है। लोग कहीं थानेदार को पीट देते हैं, कहीं सरकारी अधिकारियों को घेर लेते हैं, कहीं आग लगा देते हैं, कहीं सड़क बंद कर देते हैं और कहीं अपने इलाके में सरकारी नुमाइंदों को घुसने नहीं देते। पुलिस गोली चलाती है, आतंक फैलाती है और फिर स्थिति जस की तस हो जाती है।
निश्चय ही कुछ जनांदोलन अहिसक और जनशक्ति की प्रखर अभिव्यक्ति पर टिके हुए हैं। सूचना का अधिकार आंदोलन ऐसा ही है। राजस्थान के एक गांव से शुरू हुआ यह जनांदोलन काफी हद तक सफल रहा है। अब वह प्रशासनिक धूल-गर्द को साफ करने में अहम भूमिका निभा रहा है। लोकसभा में नोट उछाल कांड की वास्तविक पृष्ठभूमि की पड़ताल करने के लिए कई व्यक्तियों और संस्थाओं ने स्पीकर से सूचना के अधिकार के तहत आवश्यक जानकारियां मांगी हैं। सामाजिक अंकेक्षण (सोशल ऑडिट) का आंदोलन भी एक ऐसी ही कार्रवाई है। इसके माध्यम से राष्ट्रीय ग्रामीण रोजगार गारंटी योजना में चल रहे तरह-तरह के भ्रष्टाचार को सामने लाने में अद्भुत सफलता मिली है। विशेष आर्थिक क्षेत्र (सेज) के खिलाफ भी जगह-जगह फुटकर आंदोलन चल रहे हैं। ये आंदोलन वस्तुत: किसानों के विस्थापन को रोकने के लिए हैं। यह मामूली बात नहीं है कि जमीनी स्तर के उग्र विरोध को देखते हुए गोवा सरकार को नीतिगत घोषणा करनी पड़ी कि हमारे राज्य में कोई सेज नहीं बनेगा। यह भी दिलचस्प है कि गोवा की ग्राम पंचायतें, एक के बाद एक, अपने-अपने क्षेत्र में बड़ी-बड़ी बिल्डगें न बनने देने और सभी प्रकार की मेगा परियोजनाओं के खिलाफ लगातार प्रस्ताव पास कर रही हैं। सिगुर और नंदीग्राम के संघर्ष से कौन अवगत नहीं है?
इसलिए यह कहना उचित नहीं है कि जनांदोलन का समय अब नहीं रहा। समाज के विभिा वगा की पीड़ा बढ़ रही है, लोग विस्थापित हो रहे हैं, आर्थिक नीतियों के कुपरिणाम आने शुरू हो गये हैं, अपराध की वृद्धि और पुलिस की नििष्क्रयता से लोग छटपटा रहे हैं, कार्यस्थलों पर नियोक्ताओं की मनमानी बढ़ गई है। ऐसे बेचैन हालात लोगों को क्यों नहीं आंदोलित करेंगे? मुद्दे हैं, छटपटाते हुए लोग भी हैं, पर उनका नेतृत्व करने के लिए विचारशील, चरित्रवान और व्यवस्थित लोग सामने नहीं आ रहे हैं। वे समाचारपत्रों में लेख लिखकर, सेमिनारों में व्याख्यान दे कर और साथियों के साथ चर्चा कर संतुष्ट हैं, मानो लातों के देवता बातों से ही मान जाएंगे। इसलिए जगह-जगह स्वत: स्फूर्त संघर्ष हो रहे हैं। चिनगारियां उठती हैं और बुझ जाती हैं। अन्याय और अत्याचार में भारत देश की शक्ति जितनी संगठित हो कर प्रगट हो रही है, उनका प्रतिवाद करने वाली शक्तियां उतनी ही बिखरी हुई और असंगठित हैं।
लेकिन क्या यह जरूरी है कि आज का सच ही कल का भी सच बन जाएगा? माफ कीजिए, इतिहास कभी भी लंबे समय तक एक ही करवट नहीं बैठा रहता।
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आंदोलनों के फलित और दलित
दिल्ली विश्वविघालय के समाजविज्ञान विभाग की प्रोफेसर सुश्री अमिता बाविसकर पर्यावरण आंदोलन से लंबे समय से जुड़ी रही हैं। उन्होंने नर्मदा आंदोलन पर बहुत कुछ लिखा है। अपनी हालिया किताब के एक हिस्से में उन्होंने मध्य प्रदेश के निमाड़ इलाके में आंदोलन का मजबूत आधार रहे पाटीदार समुदाय (जो राजनीतिक तौर पर ताकतवर है व आर्थिक तौर पर समृद्ध है) के बहाने आंदोलन के सामने खड़े द्वंद्वों की चर्चा की है।उनके मुताबिक निमाड़ के पाटीदार भूस्वामी जो दैनिक आधार पर मजदूरों को रखते हैं, उन्हें हर दिन 12 से 15 रूपए प्रतिदिन की मजदूरी देते हैं जबकि कानूनी न्यूनतम मजदूरी 25 रूपए है। उनके मुताबिक कुछ साल पहले जब एक जागरूक सब- डिवीजनल मैजिस्ट्रेट ने न्यूनतम मजदूरी लागू करने के लिए कोशिशें तेज की तो नर्मदा आंदोलन की रैलियों में अपनी ताकत का अहसास करानेवाले इन्हीं पाटीदारों ने ‘आंदोलन के दौरान हासिल सांगठनिक कुशलताओं का इस्तेमाल करके इस अफसर का तबादला करवा दिया।’ उनका यह भी कहना था कि भूमिहीन मजदूर जो ‘कडमाल जैसे गांवों में आबादी का 40 फीसद हैं, जो मुख्यत: अनुसूचित जाति और जनजातियों से संबद्ध हैं, वे नर्मदा आंदोलन के प्रदर्शनों से और स्थानीय स्तर पर एनबीए कार्यकर्ताओं के बीच लगभग अनुपस्थित दिखते हैं।
’नर्मदा बचाआ॓ आंदोलन जैसे आंदोलन के बारे में आंदोलन की सहयात्री अमिता बाविसकर ऐसे कई अन्य सवालों को उठाती हंै, जिनमें यह स्वर भी उठता प्रतीत होता है कि विस्थापन को लेकर उठे इस आंदोलन में दलित के लिए वाकई कोई जगह है या नहीं। इसे बताने के लिए किसी अध्येता की आवश्यकता नहीं कि नर्मदा आंदोलन के कर्णधारों ने अपने इन पाटीदार समर्थकों पर (जो न्यूनतम मजदूरी देने जैसे संविधानप्रदत्त कर्तव्य को भी पूरा नहीं करते)अंकुश लगाने के लिए कोई कदम उठाया होगा।
ऐसी बात नहीं है कि ऐसे प्रश्न पहली दफा उठे हैं जो आंदोलन के बारे में जनमानस में व्याप्त छवि को अवश्य थोड़ा असहज बनाते हैं। अक्सर होता यही रहा है कि आंदोलन की पक्षधरता का प्रश्न इतनी बड़ी अहमियत हासिल करता रहा है कि सहयात्रियों द्वारा उठाए सवालों को भी एक तरह से उनके खेमा बदलने के तौर पर समझा जाता रहा है और वहीं खारिज किया जाता रहा है।
अगर 90 का दशक बड़ी परियोजनाओं से निर्मित विस्थापन के खिलाफ उठे जनांदोलनों को लेकर चर्चित रहा है, तो 21 वीं सदी की पहली इकाई का उत्तरार्द्ध विशेष आर्थिक क्षेत्र के निर्माण, विशेषकर कारपोरेट समूहों को लिये औने-पौने दाम उपलब्ध की जाती रही जमीन के मसले पर उठती जन हलचलों के इर्द-गिर्द केंद्रित होता दिखा है। आजादी के साठ साल बाद भी इस देश में भूमि सुधार के मसले को लेकर कभी तत्पर न दिखीं विभिन्न सत्ताधारी पार्टियों द्वारा कारपोरेट समूहों को जमीनें उपलब्ध कराने को लेकर दिखायी जा रही अतितत्परता निश्चित ही चौकाने वाली रही है। लेकिन आप देखेंगे कि सेज विरोधी आंदोलन दो किस्म की विसंगतियों, खामियों का शिकार रहा है। जहां सारी लडा़ई का फोकस जमीन देने या न देने पर या उसके बेहतर दाम हासिल करने पर केंद्रित रहा है, वहीं उन आर्थिक नियमों को प्रश्नांकित नहीं किया जा रहा है कि किस तरह ऐसे क्षेत्र मुल्क विशेष में मजदूरों के अधिकारों की सुरक्षा करनेवाले, कर, व्यापार, उत्पादन-शुल्क आदि को लेकर बने निश्चित कानूनों के तमाम ‘बंधनों’ से मुक्ति के क्षेत्र होंगे। दूसरे यह प्रश्न भी नहीं पूछा जा रहा कि इलाका विशेष में रहनेवाले उन लोगों के पुनर्वास का क्या होगा जो मेहनत मजदूरी करके खाते-कमाते रहे हैं, जिनके पास जमीन का एक टुकडा़ भी नहीं रहा है। पिछले दिनों एक अखबार ने हरियाणा में एक ऐसे ही विशेष आर्थिक क्षेत्र पर स्टोरी की थी और उजागर किया था कि एक तरफ जहां सेज निर्माण के बाद मिले मुआवजे से जमीन के मालिकानों अपनी ऊंची-ऊंची हवेलियां बनवायीं और गाड़ियां खरीदीं, वहीं दूसरी तरफ वहां के भूमिहीनों को, जो मुख्यत: दलित थे, जो सदियों से वहीं रहते आए थे, उन्हें बिल्कुल खदेड़ दिया गया।
यह सही है कि जनता के विशष्टि मुद्दों पर खड़े जनांदोलनों का अपना गति विज्ञान होता है और वह काफी हद तक आंदोलन के सहभागी तत्वों की सामाजिक-सांस्कृतिक स्थिति और नेतृत्व के दृष्टिकोण से तय होता है। अगर आंदोलन को अधिकाधिक व्यापक बनाना है तो लोगों की सहभागिता जरूरी होती है। ऐसे में नेतृत्व अगर बेहद सचेत न हों तो कई बार लोक संस्कृति व परंपरा की दुहाई देते हुए ऐसे प्रतीकों को, आंदोलन के ऐसे रूपों को अपनाया जाता है, जो जनता के एक हिस्से को अलगाव में डाल सकते हैं। मध्य प्रदेश में जनांदोलनों से लंबे समय से जुडे़ योगेश दीवान ने नर्मदा आंदोलन में इस्तेमाल प्रतीकों पर काफी कुछ लिखा है। उनका कहना है कि आंदोलन के दौरान नर्मदा मैया की आरती उतारना एक चर्चित मामला है।
अभी पिछले साल जब भोपाल में आंदोलन का लंबा धरना चला था, वहां पर भी मंच पर नर्मदा मैया की आरती उतारी गयी जबकि धरने में न केवल अल्पसंख्यक समुदाय के लोग बल्कि दलित-आदिवासी सभी शामिल थे। उनके मुताबिक आरती उतारने जैसा रूप जो वर्ण समाज में अधिक प्रचलित है हिंदू संस्कृति से बहिष्कृत रखे गए दलितों-आदिवासियों को या अल्पसंख्यक समुदाय के लिए आंदोलन से एकाकार होने में बाधा नहीं बनता होगा ? इस संदर्भ में वह आंदोलन के सेक्युलर रूपों को अपनाने पर जोर देते हैं।
विडंबना यही कही जाएगी कि उच्च-नीच अनुक्रम पर टिके भारतीय समाज में दलितों के अपने आंदोलन भी कहीं न कहीं उन्हीं तरीकों का अनुकरण करते दिखते हैं जिसे वर्ण समाज के कर्णधारों ने प्रचलित किया हो। प्रख्यात समाजशास्त्री एम एन श्रीनिवास इस प्रक्रिया को ‘संस्कृतिकरण या संस्कृताइजेशन’ के तौर पर संबोधित करते हैं। दो साल पहले हरियाणा के हिसार में अनुसूचित जाति व जनजातियों से संबद्ध कर्मचारियों के एक फेडरेशन द्वारा आयोजित संगोष्ठी में इसका गहराई से एहसास हुआ। सभा की शुरूआत में फेडरेशन के चर्चित नेता ने महात्मा बुद्ध के नाम वंदना करने का निर्देश दिया और वहां जुटे जनसमुदाय ने नेता की बात का सम्मान करते हुए बौद्धवंदना की। कुछ समय तक मुझे लगा कि रेल विभाग के कर्मचारियों की सभा में मैं बैठा हूं या किसी धार्मिक आयोजन का हिस्सा हूं।
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जनांदोलनों की दरकती जमीन
विभांशु दिव्याल
‘जनांदोलन’ एक बहुत ही भ्रामक, लचीला और बहुमुहां शब्द है जिसके हजार संदर्भों में हजार अर्थ निकाले जा सकते हैं और हजार व्याख्याएं की जा सकती हैं। इसलिए पहले चरण में ही यह समझ बनानी जरूरी है कि भारतीय लोकतंत्र और वर्तमान भारतीय सामाजिक- आर्थिक परिस्थितियों की पृष्ठभूमि में जनांदोलन से हम क्या व्यावहारिक अर्थ निकालना चाहते हैं या इस शब्द को हम क्या अर्थवत्ता देना चाहते हैं। इसे स्पष्टता से समझने के लिए हाल ही के कुछ उन आंदोलनों का उल्लेख किया जा सकता है जिनमें भारी संख्या में जनसमूह शामिल थे और जिनके कारण देश के कई हिस्सों में स्थानिक तौर पर सार्वजनिक जीवन अस्त-व्यस्त और त्रस्त रहा। अमरनाथ बोर्ड जमीन मामले में कश्मीर घाटी के मुसलमान तब तक जन-जीवन को ठप किये रहे जब तक कि अमरनाथ बोर्ड को दी गई भूमि का सरकारी आदेश निरस्त न कर दिया गया। इसके विरोध में जम्मू के हिदू संगठन लंबे समय तक आक्रामक आंदोलन चलाते रहे और देश के अनेक हिस्सों में उग्र प्रदर्शन हुए। इससे पहले अनुसूचित जाति में आरक्षित होने के लिए गुर्जरों ने उग्र आक्रामक और परिवहन जाम कर देने वाला जातीय आंदोलन कई दिनों तक चलाया और उत्तार भारत के लोगों को यातायात व्यवस्था भंग हो जाने के कारण पचासियों तरह के कष्ट झेलने पड़े। इससे पहले एक आंदोलन तसलीमा नसरीन के विरूद्ध हुआ था जिसके दबाव में बांग्लादेश की इस निर्वासित लेखिका को मार्क्सवादी पश्चिम बंगाल की राजधानी कोलकाता से एक बार फिर से निष्कासन झेलना पड़ा। एक और आंदोलन सिखों का था जो उन्होंने एक दूसरे मत के संस्थापक बाबा राम रहीम के विरूद्ध कई दिनों तक चलाया था और अब भी यह एक छोटे से उकसावे पर फूट पड़ता है। ऐसे और इसी तरह के मिलते-जुलते आंदोलन किसी न किसी बहाने से देश में होते ही रहते हैं। इनमें जनता की भागीदारी अपनी-अपनी कल्पित अस्मिताओं, हितों के लिए अथवा अपनी उपेक्षा, अपने अपमान या अपने किसी आहत बोध के प्रतिकार के लिए होते हैं। लेकिन क्या ये आंदोलन जनांदोलन है?
अगर इस तरह के आंदोलनों को हम जनांदोलन मान लेंगे तो एक अर्थगत संकट खड़ा हो जाएगा। इन और ऐसे आंदोलनों की उभार या निर्माण प्रक्रिया को देखें तो इनके पीछे दूसरे वर्ग- समूह, धर्म-समूह या जाति-समूह के प्रति नफरत और तिरस्कार का भाव निहित रहता है। इनकी सामाजिक ष्टि क्षुद्र और स्वार्थ केंद्रित होती है। इनकी पहुंच किसी धर्म विशेष, किसी जाति विशेष या किसी क्षेत्र विशेष तक होती है। लोकतांत्रिक आजादी के नाम पर किए गए ये आंदोलन वस्तुत: सामाजिक विग्रह को बढ़ाते हैं, लोकतंत्र का संस्थानात्मक क्षय करते हैं और अपनी परिणति में जनविरोधी होते हैं। ये आंदोलन जो अधिकतर किसी जाति या धर्म-समूह के भावनात्मक दोहन पर आधारित होते हैं, अधिक-से-अधिक जन उभार, जन उत्तोजन या जन विचलन कहे जा सकते हैं लेकिन जनांदोलन नहीं।
इस अर्थ में जनांदोलन उन्हें कहा जा सकता है जो सामान्य जनता के व्यापक हितों पर केंद्रित हों, जड़तावादी और विघटनकारी संकुचित जीवन मूल्यों के विरूद्ध समन्वयवादी, समतावादी, न्यायवादी और बहुजन नागर समाज के सामाजिक, आर्थिक , सांस्कृतिक उत्थान पर केंद्रित हों। यानी जो आर्थिक असमानता के विरूद्ध हों, जातीय दुराग्रहों के विरूद्ध हों, सांप्रदायिक श्रेष्ठताबोध के विरूद्ध हों और लोकतांत्रिक समाज को किसी भी तरह से क्षति पहुंचाने वाली स्थापित परंपराओं और उनके औचित्यीकरण के विरूद्ध हों। मतलब साफ है कि इस समय इस तरह के आंदोलन लगभग अनुपस्थित हैं। जो आंदोलन इस समय होते और चलते दिखाई देते हैं और जो प्राय: मीडिया को अपनी आ॓र खींचते रहते हैं वे वस्तुत: जनविरोधी आंदोलन हैं, जानंदोलन नहीं। अब अगर जनांदोलन नहीं उभर रहे हैं तथा जन विक्षोभ और जन असंतोष अन्यान्य तेवरों और बहानों के साथ उभर रहे हैं तो यह समूचे भारतीय लोकतंत्र के लिए एक चिता की बात है।
यहां यह कहना भी जरूरी है कि जनांदोलन जहां एक आ॓र पुरानी मूल्य व्यवस्थाओं को चुनौती देते हैं तो नई मूल्य व्यवस्थाओं का निर्माण भी करते हैं। जनांदोलनों द्वारा संचालित ध्वंस और निर्माण की प्रक्रिया एक सतत प्रक्रिया है जो नियमबद्ध और अनुशासित तरीके से संचालित होती है। यह प्रक्रिया वृहद् समाज के हित में निश्चित लक्ष्यों के लिए होती है। यह आवेश का निरंकुश तथा नियंत्रणविहीन विस्फोट नहीं होता, बल्कि व्यापक जन अपेक्षाओं की पूर्ति के लिए और व्यापक जन असंतोषों के निराकरण के लिए सुनिश्चित रणनीति के तहत अमानवीय जड़ताओं के विरूद्ध सतत जनसंघर्ष होता है। ऐसा जनसंघर्ष जिसमे संकुचित स्वाथा तथा क्षुद्र हितों के लिए कोई जगह नहीं होती।
कहने की जरूरत नहीं है कि इस समय का भारत लगभग जनांदोलनविहीन भारत है, जिसमें र्आिथक वैषम्य, राजनीतिक कदाचार, सर्व स्तरीय भ्रष्टाचार, क्षुद्र अस्मिताओं के अभद्र दुराग्रह सांप्रदायिक शक्तियों के ध्रुवीकरण, जातियों के टकराव, व्यावसायिक विचलन, सांस्कृतिक अवमूल्यन, सामाजिक संबंधों के बिखराव, पर्यावरणीय संकट आदि निरंतर बढ़ रहे हैं। भारत को अब वास्तविक जनांदोलनों की जरूरत है जो इन सारी दुष्प्रवृत्तिायों विरूद्ध देश की व्व्व राष्ट्रीयसहारा कॉम जनता के वास्तविक हितों को समाहित कर सकें तथा इन हितों पर दावेदारी करने वाले दलालों, ठगों, बेईमानों और अपने-अपने समूहों के मतांध ठेकेदारों को समाज की मुख्यधारा से निर्वासित कर अतीत के कूड़ेदान में फेंक सकें। जनांदोलन इस समय के भारत की एक अनिवार्य मांग हैं और उम्मीद की जानी चाहिए कि भारतीय जनता इस दिशा में सचेत होकर सोचेगी।
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Friday, July 25, 2008
गंगा का आख़िरी गर्जन
बरसात के मौसम में रात के वक्त भागीरथी घाटी में घुप्प अंधेरा नजर आता है. इसमें सुनाई देती है हिमालय की ढलानों से टकराने वाली तूफानी हवा और घनघोर बारिश के थपेड़ों की आवाज. और ऐसे में अगर आप भागीरथी के किनारे बसी किसी जगह पर हों तो नदी की भयानक गर्जना हर दूसरी आवाज को बौना कर देती है.
मगर दिन निकलने के साथ दृश्य भी बदलने लगता है और आवाजें भी. पहाडों को खोखला करती ड्रिलिंग मशीनों की कर्कश ध्वनि, पीले हेलमेट, कंक्रीट, खोखली सुरंगों में सांय-सांय बहती हवा और ऐसा बहुत कुछ जो बताता है कि यहां मनुष्य प्रकृति पर विजय पाने की लड़ाई लड़ रहा है. नदियों को बांधने की वो लड़ाई जिसका मकसद देश की आर्थिक तरक्की के लिए बिजली पैदा करना है.
भारत में 4,500 बड़े बांध हैं. हाल-फिलहाल तक उत्तरकाशी और गंगोत्री के बीच इनमें से सिर्फ एक यानी मनेरी भाली-1 हुआ करता था. मगर अब 125 किलोमीटर लंबे इस इलाके में पांच बड़ी जलविद्युत परियोजनाओं का निर्माण अलग-अलग चरणों में है. अगर सब कुछ निर्धारित योजना के मुताबिक चला तो भागीरथी यानी गंगा को अपना वो रास्ता छोड़ना होगा जिस पर वह युगों-युगों से बहती आ रही है. 125 किलोमीटर की इस दूरी में उसे अधिकांश जगहों पर सुरंगों से होकर बहना होगा. गंगा के बारे में कहा जाता है कि वो मुक्तिदायनी है मगर विडंबना देखिए कि वही गंगा अपने ही जन्मस्थल में कैद होकर रह जाएगी.
भागीरथी घाटी में जो हो रहा है उसे अच्छी तरह से समझने के लिए आपको अपनी यात्रा विवादास्पद टिहरी बांध से शुरू करनी होगी जिससे जुलाई 2006 में विद्युत उत्पादन शुरू हुआ था. बांध से बनी झील की लंबाई करीब 60 किलोमीटर है और इसका पानी नीला और जड़ नजर आता है. गंगा की वह पुरानी जीवंतता फिर से वहीं पर नजर आती है जहां ये झील खत्म होती है. मगर यहां भी गंगा की जिंदगी थोड़े ही दिन की मेहमान है.
टिहरी से करीब 50 किलोमीटर की दूरी पर स्थित धरासू नाम की जगह मनेरी भाली जलविद्युत परियोजना का द्वितीय चरण है. यहां जनवरी 2008 से विद्युत उत्पादन शुरू हो चुका है. चूंकि 304 मेगावॉट बिजली बनाने के लिए पानी का टरबाइन पर एक निश्चित ऊंचाई से गिरना जरूरी है इसलिए इस ऊंचाई को हासिल करने के लिए गंगा को 24 किलोमीटर लंबी एक सुरंग से होकर गुजारा जाता है जो उत्तरकाशी से शुरू होती है. यानी 24 किलोमीटर की इस लंबाई में नदी का अस्तित्व लगभग खत्म हो चुका है.
इस क्षेत्र में परियोजनाएं कुछ इसी तर्ज पर बन रही हैं. एक परियोजना की पूंछ जहां पर खत्म होती है वहां से दूसरी परियोजना का मुंह शुरू हो जाता है. यानी नदी एक सुरंग से निकलती है और फिर दूसरी सुरंग में घुस जाती है. इसका मतलब ये है कि जब ये सारी परियोजनाएं पूरी हों जाएंगी तो इस पूरे क्षेत्र में अधिकांश जगहों पर गंगा अपना स्वाभाविक रास्ता छोड़कर सिर्फ सुरंगों में बह रही होगी.
ये बात अलग है कि मनेरी भाली द्वितीय चरण वर्तमान में अपनी निर्धारित क्षमता से काफी कम यानी सिर्फ 102 मेगावॉट बिजली का ही उत्पादन कर रहा है. ये भी गौरतलब है कि इस इलाके में स्थित तीनों बांध—टिहरी और मनेरी प्रथम और द्वितीय—कभी भी अपनी निर्धारित क्षमता के बराबर विद्युत उत्पादन नहीं कर पाए हैं. दिलचस्प है कि सभी जलविद्युत परियोजनाओं को मंजूरी ही इस आधार पर दी गई थी 90 प्रतिशत मौकों पर वे अपनी पूरी क्षमता के हिसाब से बिजली का उत्पादन करेंगे मगर दिल्ली स्थित एक गैरसरकारी संगठन साउथ एशियन नेटवर्क ऑन डैम्स, रिवर्स एंड पीपुल (एसएएनडीआरपी) के द्वारा जुटाए गए आंकड़े एक अलग ही तस्वीर पेश करते हैं. संगठन ने अपने अध्ययन में जिन 208 बांधों के आंकड़े जुटाए उनमें से 89 फीसदी निर्धारित क्षमता से कम विद्युत उत्पादन कर रहे हैं. 49 फीसदी में तो कुल क्षमता की आधी से भी कम बिजली बन रही है.
एसएएनडीआरपी के संस्थापक हिमांशु ठक्कर कहते हैं, “इससे पता चलता है कि बड़ी संख्या में अव्यावहारिक परियोजनाओं को मंजूरी दी जा रही है. हमें वास्तविक कीमत और वास्तविक लाभों का एक वास्तविक अध्ययन करने की जरूरत है. ये सुनिश्चित करने के लिए कोई भरोसेमंद तंत्र मौजूद नहीं है कि केवल न्यायसंगत परियोजनाओं को ही मंजूरी मिले.”
धरासू से उत्तरकाशी तक के सफर में नदी आपके साथ चलती है. बारिश के मौसम की वजह से आजकल इसमें काफी पानी है मगर स्थानीय लोगों के मुताबिक सर्दियों में ये पानी की एक पतली लकीर सरीखी नजर आती है क्योंकि तब अधिकांश पानी सुरंगों में चला जाता है. इस दौरान नदी को आसानी से पैदल ही पार किया जा सकता है.
भागीरथी घाटी में जो हो रहा है उसके महत्व को समझने के लिए आपको इस नदी की विशालता, इसकी पारिस्थिकी और इस पर निर्भर मानव जीवन के साथ हो रही छेड़छाड़ को समझना जरूरी है.
वर्ल्ड वाइल्डलाइफ फंड ने गंगा को दुनिया की उन 10 बड़ी नदियों में रखा है जिनके अस्तित्व पर खतरा मंडरा रहा है. गंगा मछलियों की 140 और उभयचरों की 90 प्रजातियों को आश्रय देती है. इसमें पांच ऐसे इलाके हैं जिनमें पाई जाने वाली पक्षियों की किस्में दुनिया के किसी अन्य हिस्से में नहीं मिलतीं. इसके किनारों पर पाई जाने वाली वनस्पति और जंतुओं की इसके पोषण और जल संरक्षण में अहम भूमिका है और ये भूक्षरण को भी नियंत्रण में रखते हैं. गंगा के बेसिन में बसने वाले करीब 45 करोड़ लोग प्रत्यक्ष और अप्रत्यक्ष रूप से इसपर निर्भर हैं.
पर्यावरणविद कहते हैं कि गंगा के पानी में अनूठे बैक्टीरिया प्रतिरोधी गुण हैं. यही वजह है कि दुनिया की किसी भी नदी के मुकाबले इसके पानी में आक्सीजन का स्तर 25 फीसदी ज्यादा होता है. ये अनूठा गुण तब नष्ट हो जाता है जब गंगा को सुरंगों में धकेल दिया जाता है जहां न ऑक्सीजन होती है और न सूरज की रोशनी. ये जलविद्युत परियोजनाएं नदी के रास्ते का बुनियादी स्वरूप भी बदल देती हैं जिससे पानी में जैविक बदलाव आ जाते हैं. उदाहरण के लिए मनेरी भाली प्रथम चरण के लिए जहां से पानी जलाशय में दाखिल होता है वहां पर इसके नमूने बताते हैं कि गुणवत्ता के हिसाब से इसे साफ कहा जा सकता है. मगर जलाशय के आखिर में पानी के नमूने बताते हैं कि ये बुरी तरह से प्रदूषित है. केंद्रीय औद्योगिक प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड द्वारा पिछले साल मई में जारी एक रिपोर्ट बताती है कि भागीरथी में पारे का स्तर भी बढ़ रहा है.
लेकिन ये तो संकट का सिर्फ छोटा सा हिस्सा है. नोबेल पुरस्कार जीतने वाले इंटरनेशनल पैनल ऑन क्लाइमेट चेंज की रिपोर्ट के मुताबिक 2030 तक गंगोत्री ग्लेशियर के आकार में 80 फीसदी तक की कमी आ जाएगी जिससे गंगा, सदानीरा से एक मौसमी नदी में तब्दील हो जाएगी. इसका मतलब है कि सिर्फ 20 साल में इतना पानी ही नहीं बचेगा कि इन बांधों की टरबाइंस चलाई जा सकें.
इसके बावजूद सरकार इन विशाल परियोजनाओं पर अड़ी हुई है. जब तहलका ने पानी की उपलब्धता और व्यावहारिकता से संबंधित डाटा के बारे में केंद्रीय जल आयोग के अध्यक्ष ए के बजाज से जानकारी मांगी तो उनका जवाब था, “गंगा जल से संबंधित डाटा गोपनीय है.”
भागीरथी को सुरंगों और बांधों के जरिये कैद करने का विरोध तो स्थानीय लोग छह साल पहले तभी से कर रहे हैं जब इन परियोजनाओं को मंजूरी दी गई थी. मगर इस विरोध को राष्ट्रीय स्तर पर सुर्खियां तब मिलीं जब जाने-माने पर्यावरणविद और आईआईटी कानपुर के पूर्व प्रोफेसर जी डी अग्रवाल ने इसके विरोध में उत्तरकाशी में अनिश्चतकालीन भूखहड़ताल की घोषणा की. पर्यावरण की गहरी समझ रखने वाले अग्रवाल ने इन परियोजनाओं को मातृहत्या जैसा बताया. लोग और साधु-संत उनके समर्थन में उमड़ पड़े और नतीजा ये हुआ कि उत्तराखंड के मुख्यमंत्री मेजर जनरल भुवन चंद्र खंडूड़ी दो परियोजनाओं को अस्थाई रूप से रोकने पर सहमत हो गए.
बाद में अग्रवाल दिल्ली आ गए और लोहारीनाग पाला में एनटीपीसी की 600 मेगावॉट की परियोजना के विरोध में उनकी भूख हड़ताल जारी रही. कुछ दिन पहले उन्होंने अपना अनशन तब तोड़ा जब ऊर्जा मंत्रालय ने उन्हें आश्वासन दिया कि गंगा के अविरल प्रवाह को सुनिश्चित करने के लिए एक कमेटी बनाई जाएगी.
मगर मुद्दा अभी सुलझने से काफी दूर है. तहलका से बात करते हुए केंद्रीय ऊर्जा मंत्री सुशील कुमार शिंदे कहते हैं, “हमने फैसला किया है कि पानी का बहाव अविरल रहना चाहिए. मगर परियोजनाएं भी चलनी चाहिए. तकनीकी रूप से हमें ऐसा करने का रास्ता खोजना होगा. इसलिए हमने तीन महीने का समय मांगा है. एक कमेटी बनाई जा रही है. भागीरथी के साथ भारत के लोगों की भावनाएं जुड़ी हैं. मैं लोगों की भावनाओं के साथ खिलवाड़ नहीं करना चाहता. यही वजह है कि हम कोई रास्ता खोजने के लिए सहमत हो गए हैं.”
मगर ये केवल भावनाओं की बात नहीं है और रास्ता खोजना आसान नहीं होगा. शिंदे कहते हैं कि 600 मेगावॉट की परियोजना को पूरी तरह से रद्द नहीं किया जा सकता और विशेषज्ञ कमेटी के साथ निर्माण कार्य भी जारी रहेगा. वे कहते हैं, “2000 करोड़ रुपये की अग्रिम मंजूरी हो चुकी है. अब आप इसे रोकने के लिए कह रहे हैं. जब छह साल पहले ये परियोजनाएं शुरू हुई थीं तो मैं मंत्री नहीं था. जब भाजपा ने इनका शिलान्यास किया था. तब तो किसी ने इनका विरोध नहीं किया.”
विडंबना ये भी है कि भारत में बड़े बांधों की योजनाओं को उस दौर में आगे बढ़ाया जा रहा है जब दुनिया भर में बड़े बांधों को हटाया जा रहा है. अकेले अमेरिका में ही 654 बांध खत्म किए जा चुके हैं और 58 दूसरे बांधों के साथ भी ऐसा ही किया जाना है. इनमें से कई ऐसे हैं जिन्हें इसलिए हटाया जा रहा है ताकि सामन मछलियों के निवास को बहाल किया जा सके. गौरतलब है कि सामन मछलियां प्रजनन के लिए समुद्र से नदी के उद्गम की तरफ जाती हैं. बांध उनके इस सफर को रोककर उनकी प्रजाति को संकट में डालते हैं. दरअसल देखा जाए तो सामन मछलियों की घटती संख्या अमेरिका में कई ऐतिहासिक अदालती फैसलों का कारण बनी है. इनमें से सबसे प्रभावशाली उदाहरण है एलव्हा और ग्लाइंस कैन्यन बांध को खत्म किया जाना जो देश के सबसे ऊंचे बांधों में से एक था. इसे हटाने में 10 करोड़ डालर खर्च हुए.
अमेरिकन रिवर्स नामक एक गैरसरकारी संगठन से जुड़ीं एमी कोबर कहती हैं, “इन बड़े बांधों को हटाया जाना इस बात का सूचक है कि अपनी नदियों को लेकर देश के नजरिये में महत्वपूर्ण बदलाव आया है. इस मुल्क को ये अहसास हो गया है कि एक स्वस्थ, अविरल नदी एक समुदाय के लिए सबसे कीमती संपत्तियों में से एक हो सकती है.”
मगर भारत का ऊर्जा मंत्रालय इस बात को समझने के लिए तैयार नहीं है. सवाल ये है कि आखिर जब सारी दुनिया में बड़े बांधों के खिलाफ आंदोलन हो रहा है तो भारत में इन पर अब भी क्यों जोर दिया जा रहा है? शिंदे से पूछिए और जवाब आता है, “भारत में 30 हजार मेगावॉट बिजली की कमी है. हम इतनी बिजली कहां से लाएंगे? चीन को देखिए. उनके थ्री गॉर्जेज डैम को देखिए. जब चीन ये कर रहा है तो हम क्यों नहीं कर सकते? टिहरी में 1000 मेगावॉट की परियोजना के लिए हमें इतनी आलोचना झेलनी पड़ी. अगर आप बिजली चाहते हैं तो आपको कुछ न कुछ बलिदान तो करना ही होगा.”
दरअसल देखा जाए तो टिहरी इसका एक सटीक उदाहरण है कि अपनी ऊर्जा आवश्यकताओं को लेकर भारत की समझ में कितना धुंधलापन है. भारत में किसी भी बांध परियोजना का इसके पूरा होने के बाद मूल्यांकन नहीं किया गया है. टिहरी दुनिया का आठवां सबसे ऊंचा बांध है. मार्च 2008 तक बांध पर कुल 8,298 करोड़ रुपये खर्च हो चुके थे जो उस अनुमानित लागत से कहीं ज्यादा है जो परियोजना के प्रारंभ में तय की गई थी. इसकी प्रस्तावित विद्युत उत्पादन क्षमता 2,400 मेगावॉट थी मगर वर्तमान में यह केवल 1000 मेगावॉट बिजली का उत्पादन कर रहा है. यानी क्षमता के आधे से भी कम.
भागीरथी घाटी में घट रही इस त्रासदी का एक मानवीय पहलू भी है. उसे समझने के लिए आपको प्रेम दत्त जुयाल जैसे किसी व्यक्ति से मिलना होगा. जुयाल के पास धुंधले पड़ते जा रहे कागजों का एक गट्ठर है. ये वो दस्तावेज हैं जिन्हें वे तब से इकट्ठा कर रहे हैं जब से उनके घर के नीचे की जमीन धंसनी शुरू हुई. जुयाल जलवाल गांव के निवासी हैं जो उस जगह से कुछ ही किलोमीटर की दूरी पर है जहां कभी पुराना टिहरी शहर हुआ करता था. जलवाल और इसके आसपास के गांवों को पुनर्वास योजना का हिस्सा इसलिए नहीं बनाया गया क्योंकि ये टिहरी झील के 840 मीटर ऊंचाई के स्तर से ऊपर स्थित थे. पिछले साल से उनके खेत दरक रहे हैं और गांववालों की जान लगातार हो रहे भूस्खलन से खतरे में है. ये सब इसलिए हो रहा है क्योंकि टिहरी झील का पानी लगातार उस बुनियाद को कमजोर कर रहा है जिस पर ये गांव बसा है. इससे भी बड़ी त्रासदी ये है कि जिस बाजार में ये लोग अपनी सब्जियां बेचते थे और जिन स्कूलों में इनके बच्चे पढ़ने जाते थे, वे सब झील में दफन हो गए हैं. नये टिहरी शहर जाने के लिए इन्हें 250 किलोमीटर की दूरी तय करनी पड़ती है. यानी इनकी जिंदगी पूरी तरह से अलग-थलग पड़ गई है. मगर उनके पुनर्वास की मांग पर ध्यान देने वाला कोई नहीं है.
भारतीय लोक प्रशासन संस्थान द्वारा 54 बांधों पर कराया गया एक विस्तृत अध्ययन बताता है कि एक बड़े बांध से विस्थापित होने वाले लोगों की औसत संख्या 44,182 है. भारत में 4,500 बड़े बांध हैं. अगर माना जाए कि एक बांध से कम से कम 10,000 लोग भी विस्थापित होते हैं तो इसका मतलब ये है कि बड़े बांधों के कारण अब तक करीब साढ़े चार करोड़ लोगों को अपनी जड़ों से उखड़ना पड़ा है. उत्तरकाशी के नजदीक बसे जोशियाड़ा और कनसैण नामक गांवों के लोगों को भी अब ये अहसास होने लगा है कि उनकी नियति भी कुछ ऐसी ही होने वाली है.
जोशियाड़ा में मुख्य सड़क पर बद्री सेमवाल अपना हार्डवेयर की दुकान चलाते हैं. दुकान की ऊपरी मंजिल पर ही उनका निवास भी है. उनकी छत से साफ देखा जा सकता है कि मनेरी भाली द्वितीय चरण की झील का पानी धीरे-धीरे उनके घर को निगलने बढ़ा आ रहा है. सेमवाल कहते हैं, “टरबाइन चलाने के बाद ही अचानक उन्हें अहसास हुआ कि हम भी डूब क्षेत्र में आ रहे हैं. अब वे कहीं पहाड़ में हमारे पुनर्वास की बात कर रहे हैं. मगर वहां दुकान कैसे चलेगी. मैं जिंदगी कैसे चलाऊंगा?” जोशियाड़ा के दूसरे परिवारों की भी यही व्यथा है.
उत्तरकाशी से मनेरी भाली प्रथम चरण के लिए जाते हुए हमारी मुलाकात अतर सिंह पंवार से होती है. फैशनेबल जींस और टी शर्ट पहने इस व्यक्ति को देखकर कहीं से भी नहीं लगता कि उसके 38 साल पहाड़ में ही गुजरे हैं. पंवार के हाथ में कुरकुरे का पैकेट और बिसलेरी की बोतल है और वे किसी शहरी बाशिंदे जैसे ही लगते हैं. उन्होंने हाल ही में एनटीपीसी में अनुबंध पर मजदूरी शुरू की है. कभी वे पशु चराते थे और आलू व राजमा की खेती करते थे. वे कहते हैं, “मैं तब कहीं ज्यादा खुश था जब मेरे पास अपनी जमीन थी. तब मैं आजाद था. अब मुआवजे में भले ही लाखों रूपये मिल गए हों मगर जल्द ही ये खत्म हो जाएंगे. पैसा तो आता है और चला जाता है. जमीन हमेशा आपके पास रहती है.”
थोड़ा और आगे चलने पर हम पाला गांव पहुंचते हैं जहां विनाश की शुरुआत हो चुकी है. एक किलोमीटर दूर ही पाला-मनेरी सुरंग की खुदाई की जा रही है. यहां के घरों में दरारें पड़नी शुरू हो गई हैं. पानी के स्रोत सूख रहे हैं क्योंकि सुरंग के मलबे ने प्राकृतिक झरनों का रास्ता रोक दिया है.
अतर सिंह पंवार को कोई ऐसी शक्ति एक शहरी व्यक्ति के रूप में बदल रही है जिस पर उनका बस नहीं चल रहा. अपने जैसे सैकड़ों लोगों की तरह वे शहरी नहीं बनना चाहते. वे गंगा को अविरल बहते देखना चाहते हैं. ठीक वैसे ही जैसे उनकी पीढ़ियां सदियों से देखती आई हैं. मगर उनके लिए ऊर्जा मंत्रालय का जवाब है कि उत्तरी ग्रिड को और भी ज्यादा बिजली चाहिए. भले ही उनके जैसे लोगों को आसानी से पीने का पानी तक न मिले मगर शहरों के शापिंग मॉल्स का दिन-रात रोशनी में नहाना जरूरी है.
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अपना नहीं अमेरिकी हित
(वरिष्ठ माकपा नेता)
परमाणु करार को किसी एंगल से देशहित में नहीं कहा जा सकता। समझौता 123 अमेरिका के हाइड एक्ट से नियंत्रित है जो अमेरिका के राष्ट्रीय कानून का हिस्सा है। करार के बाद भारत की विदेश नीति पर अमेरिकी दखल बढ़ जाएगा। ऐसी भी आशंका है कि विदेश नीति से जुड़े कई मुद्दों के बारे में हमें अमेरिका से हर साल सर्टिफिकेट लेना और अमेरिकी कांग्रेस को सूचित करना होगा। भारत करार के बाद दोबारा परीक्षण करने के अपने अधिकार भी खो देगा। फिर ईंधन की आपूर्ति सुनिश्चित करने के प्रति भी करार में कोई प्रतिबद्धता नहीं है। मैं समझता हूं करार के बाद भारत की स्थिति अमेरिका के पिछलग्गुओं की तरह होगी। अमेरिका अपनी हर नीति में भारत को अपना समर्थन करने को बाध्य करेगा। एशिया में अमेरिका का जो हित है उसे पूरा करने के लिए वो भारत को अपने सहयोगी की भूमिका में उतारने को इच्छुक है। भारत की नीति अभी तक बहुधुव्रीय विश्व बनाने की रही है। अब सरकार देश का वह चोला उतार कर उसे गुटीय व्यवस्था की आ॓र मोड़ रही है।
सरकार के आगे अभी महंगाई जैसी बड़ी चुनौती थी किंतु उसने इसे अनदेखा किया और अमेरिकी हितों वाले समझौते की आ॓र बढ़ना जारी रखा। सरकार के हटवादी रवैये ने ही हमें समर्थन वापस लेने को बाध्य किया। हमने सरकार को न्यूनतम साझा कार्यक्रम के आधार पर ही समर्थन दिया था। इस कार्यक्रम में परमाणु करार जैसी कोई बात नहीं थी। सरकार करार के विरोध में संसद के बाहर व भीतर उठी अशंकाओं को दूर करने की जगह हमारी आपत्तियों पर उंगली उठाती रही। हमें विकास विरोधी कहा गया। सरकार करार से जुड़े कई बिंदुओं पर लोगों को गुमराह करती रही है। करार की दिशा में सरकार ने जब बढ़ना चालू किया उसी समय से उसका अमेरिका प्रेम भी बढ़ता गया है। अमेरिका प्रेम ही है कि हम ईरान के परमाणु मुद्दे पर आंख मूंद कर उसके खिलाफ हंै। गुटनिरपेक्ष आंदोलन में हमारी भूमिका भी काफी घट गई है। मध्य एशिया में आज हमारी छवि एक विरोधी राष्ट्र की बन रही है। फिलस्तीन से बढ़ती दूरी और इजराइल से नजदीकी इस आ॓र इंगित करती है।
अमेरिका के साथ हमारे संयुक्त युद्धाभ्यास और उसके साथ हुए उपकरण सहयोग समझौता से जाहिर है कि अमेरिका हमें अपना सैन्य सहयोगी बनाने को उतारू हैं। परमाणु करार हमारी रक्षा और विदेश नीति की स्वतंत्रता और हमारी आर्थिक जरूरतों के खिलाफ है। सवाल केवल अमेरिका विरोध का नहीं बल्कि देश की संप्रुभता, स्वतंत्रता और विदेश नीति की रक्षा का है। फिर करार को ऊर्जा जरूरतें पूरी करने के लिहाज से भी जायज नहीं ठहराया जा सकता। ऊर्जा सुरक्षा डील करने का बहाना भर है। परमाणु ऊर्जा वैसे भी काफी महंगी पड़ती है। ऊर्जा की संकट ही है तो हमें अन्य वैकल्पिक उर्जा के विकास पर ध्यान देना चाहिए।
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वैज्ञानिक अनुसंधानों में बढ़ती जालसाजी
विज्ञान सत्य की खोज है, लेकिन वैज्ञानिक अनुसंधान करनेवाले कई वैज्ञानिक सत्य का रास्ता न अपनाकर झूठ का रास्ता अपनाते हैं। वे अपने परिणामों की सचाई को झूठ में बदल देते हैं, और इस प्रकार जनता के धन से खिलवाड़ करते हैं। कहने को तो सारे वैज्ञानिक समुदाय में इनकी संख्या बहुत कम है, फिर भी इनका सारी बिरादरी पर खराब असर पड़ता है, जनता गुमराह होती है और विज्ञान पर से आस्था उठने लगती है। बहुत से झूठ पकड़े जाते हैं, लेकिन बहुतों के बारे में पता नहीं चलता।अमेरिका में सबसे ज्यादा वैज्ञानिक शोध होते रहते हैं, इसलिए वहीं सबसे ज्यादा जालसाजी पकड़ी जाती है। देखा गया है कि रिसर्च में इस तरह की जालसाजी को पहले बहुत कम समझा जाता था, लेकिन एक सर्वे से चौंकाने वाले परिणाम सामने आए हैं। लगभग दस प्रतिशत वैज्ञानिकों का कहना है कि उन्होंने स्वयं झूठे परिणाम देखे हैं, जो मनगढंत थे या किसी दूसरे वैज्ञानिक शोध को अपना बनाकर प्रस्तुत कर दिए गए। इससे बड़ी जालसाजी क्या हो सकती है और वह भी विज्ञान जैसे क्षेत्र में। इस सर्वे का प्रकाशन प्रतििष्ठत पत्रिका ‘नेचर’ में किया गया है। लगभग 600 विश्वविघालयों और शोध संस्थानों के 2,200 जैवचिकित्सा वैज्ञानिकों से प्रश्न किए गए, तो मालूम हुआ कि शोधकर्ता कदाचार का रहस्योद्घाटन नहीं करते। या तो वे डरते हैं या सोचते हैं कि उन्हें वांछित अनुदान नहीं मिलेगा। बताया गया है कि 37 प्रतिशत संदिग्ध मामले संबंधित संस्थानों को कभी बताए नहीं गए। सोचा गया कि यदि बताया गया तो गलत शोध परिणामों पर वैज्ञानिक को प्रताड़ित किया जाएगा या उसका वैज्ञानिक करियर चौपट हो जाएगा। इसलिए जालसाजी तो बहुत होती है लेकिन वह छुपायी जाती है।बहुत से वैज्ञानिक सोचते हैं कि गलत को ठीक बताकर क्यों न धन ऐंठा जाए। वास्तव में शोध से नाता रखने वाले वैज्ञानिकों को ये गलतियां पकड़नी चाहिए, नहीं तो ऐसा भी हो सकता है कि वरिष्ठ वैज्ञानिक नीचे के वैज्ञानिक के काम पर अपनी मुहर लगा दें। अब उसकी वास्तविकता या झूठ को कोई तीसरा वैज्ञानिक या पक्ष ही समझ सकता है। उपरोक्त सर्वे ऐसे समय आया है जब अमेरिका और अन्य देशों में शोध ईमानदारी पर प्रश्न उठाये जा रहे हैं। वैज्ञानिकों को औषध कंपनियों से धन मिलता है और ये कंपनियां झूठे शोध परिणामों से औषधियां बना सकती हैं, जो जनता के लिए हानिकारक सिद्ध हो सकती हैं। यहां वैज्ञानिकों और कंपनियों की सांठ-गांठ भी हो सकती है। अमेरिका के शोध जांच कार्यालय का कहना है कि गत तीन साल में उसने किसी न किसी प्रकार की जालसाजी पकड़ी है। पाया गया है कि प्रति वर्ष हर 100 शोधकर्ताओं में तीन केस जालसाजी के होते हैं। सबसे आम उदाहरण परिणामों में संख्या बढ़ाकर पेश करना है, जिससे शोध को संशोधित या सुधार कर रखा जाता है। हर वैज्ञानिक जानता है कि परिणामों में इस प्रकार की उलटफेर किसी भी वैज्ञानिक निष्कर्ष को अर्थहीन बना देती है। सत्य की खोज का अर्थ ही बदल जाता है। कार्यालय ने रहस्योद्घाटन किया है कि हर वर्ष अमेरिकी विश्वविघालयों में लगभग 1,350 मामले झूठे शोध के होते हैं, जिनमें अधिसंख्य पकड़े ही नहीं जाते हैं, क्योंकि वे कार्यालय को रिपोर्ट नहीं किये जाते। सर्वे स्वास्थ्य तथा जीवन विज्ञान में शोध पर किया गया। मालूम हुआ है कि ऐसे मामले विश्वव्यापी बन गए हैं, जिनमें मामूली शोध झूठों का पता ही नहीं चलता।वास्तव में इसी प्रकार के बड़े मामले का भंडाफोड़ 2005 में दक्षिण कोरिया में हुआ। वहां एक वैज्ञानिक ह्वांग वू सुक ने शोध परिणामों को गलत बताकर आदमी की स्तंभ कोशिकाओं के क्लोन तैयार करने का दावा किया। बाद में उसकी करोड़ों रूपये की ग्रांट छीन ली गई। इसी प्रकार 2002 में भौतिकी में एक और शोध जालसाजी का पता चला था, जो इस क्षेत्र में सबसे बड़ा मामला बताया जा रहा है। चार वर्ष तक एक युवा वैज्ञानिक हेनरिक शोन बैल प्रयोगशाला में अति चालकता से नेनो टेक्नोलॉजी तक जैसे विषयों के झूठे परिणाम गढ़ता रहा, और इस प्रकार सारे विज्ञान जगत को अंधेरे में रखा। केलिफोर्निया के एक वैज्ञानिक विक्टर निनोव ने नए सुपरहैवी तत्व 118 की खोज का दावा किया, जो सरासर झूठा सिद्ध हुआ।अब कुछ दशक पहले की अपेक्षा शोध वैज्ञानिकों की संख्या बहुत बढ़ गई है। उस हिसाब से सरकारी अनुदान भी बढ़ गया है। पहले के वैज्ञानिक केवल शोध का ध्यान रखते थे, उन्हें ग्रांट या धन की लालसा नहीं रहती थी। हमारे प्रफुल्ल चंद्र राय, जगदीश चंद्र बसु, सर सीवी रमन आदि ने बहुत कम धन में और समुचित प्रयोगशालाएं न होने पर भी महत्वपूर्ण शोध करके दिखाया और दुनिया में भारतीय विज्ञान का नाम ऊंचा किया। अब ऐसे वातावरण कहां है? आज विज्ञान पूरा प्रोफेशनल है, और वैज्ञानिक नाम कमाने और करियर बनाने के लिए तरह-तरह के हथकंडे अपनाते हैं, जिसका अर्थ यह नहीं कि सभी वैज्ञानिक ऐसे हैं। अपवाद भी बहुत हैं।यह अच्छी बात है कि सबसे महत्वपूर्ण शोध कार्य का जल्दी पर्दाफाश हो जाता है। विज्ञान में दोहराव बहुत आते हैं, यानी बारबार शोध के प्रयोग करने पड़ते हैं। यह नहीं कि एक बार में ही सफलता मिल जाए। हर बड़े दावे को दोहरा कर दिखाना पड़ता है, जिनकी परीक्षा स्वतंत्र वैज्ञानिक करते हैं। यदि कोई सफल परिणाम दोबारा नहीं दिखाया जा सकता, तो वह असफल सिद्ध हो जाता है। अनेक झूठे प्रयोग इसी प्रकार पकड़े जाते हैं। जो जालसाजी पकड़ी जाती है, वह इस बात का प्रमाण है कि वैज्ञानिक विधि ही सफल होती है। फिर भी विज्ञान और देखरेख व जांच-पड़ताल की जरूरत है। अनेक झूठे दावे पकड़ में भी नहीं आते। इसलिए जो वैज्ञानिक ऊपर बैठे हैं, उन्हें नैतिकता से ही काम लेना पड़ेगा और अनैतिकता का पर्दाफाश करना होगा।जालसाजी के मामले भारत में भी हुए हैं। चंडीगढ़ के एक भू वैज्ञानिक ने हिमाचल के कुछ फॉसिल चट्टानें खोजने का दावा किया था, जो अमेरिका की सिद्ध हुई। लेकिन विज्ञान में जालसाजी पूरी तरह नहीं रूक सकती। यह भी जीवन के अन्य क्षेत्रों की तरह होती रहेगी। नाम कमाने और सबको पीछे छोड़कर आगे बढ़ने की लालसा हमेशा रहेगी, जिस पर नियंत्रण की सबसे ज्यादा जरूरत है। वैज्ञानिक शोध का काम बड़ा महत्वपूर्ण है और यह आसान भी नहीं है। आदमी की कमियां तो आड़े आती रहेंगी, जिनके विरूद्ध एक पूरा मोर्च स्थापित करना होगा। आखिर विज्ञान की साख कैसे बनी रहेगी?
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कैसे नियंत्रित होगी महंगाई
महंगाई के बारे में सरकारी स्तर पर यह बार-बार कहा गया है कि यह विश्व बाजार में आई तेल व खाघ उत्पादों की कीमत में वृद्धि जैसे बाहरी मुद्दों से अधिक प्रभावित है। यह सच है कि तेल व खाघ उत्पादों की वृद्धि विश्व स्तर हुई है पर इसका अर्थ यह कतई नही है कि महंगाई व उसके दुष्परिणामों को नियंत्रित करना हमारे हाथ में नहीं है। सच्चाई तो यह है कि यदि खाघ ऊर्जा व्यापार व वित्त नीतियों में पहले से सुधार किए जाते तो महंगाई को काफी हद तक रोका जा सकता था। पर सरकार ने दीर्घकालीन अनुचित नीतियां अपनाई और वह काफी देर तक महंगाई के खतरे के प्रति उदासीन रही। इस वर्ष फरवरी में वार्षिक आर्थिक सर्वेक्षण प्रस्तुत करते समय तक महंगाई के खतरे के प्रति सरकार अनभिज्ञ बनी रही और उसने बहुत विश्वास से कहा कि महंगाई के तेज होने की संभावना नहीं है। ध्यान रहे कि इस समय तक विश्व में तेल व खाघ संकट की विकटता स्पष्ट हो चुकी थी। आज जब सरकार महंगाई के लिए बाहरी दबावों को जिम्मेदार बताती है तो यह सवाल उठना स्वाभाविक है कि सरकार इस विषय पर समय पर सचेत क्यों नहीं हुई और उसने जरूरी कदम क्यों नहीं उठाए।महंगाई नियंत्रण को लेकर जिस कठिनाई की या जादू की छड़ी उपलब्ध न होने की बात जो कि प्राय: की जाती है, वह चर्चा केवल अल्पकालीन नीतियों के सन्दर्भ में होने के कारण है। यदि दीर्घकालीन नीतियां सही हैं तो ऐसी कठिनाई नहीं आएंगी क्योंकि बाहर से आने वाले किसी संकट का सामना करने के लिए भी हमारा रक्षा कवच तैयार होगा। हमारे देश ने जो दीर्घकालीन नीतियां सही दिशा में अपनाई हैं, उनका लाभ हमें आज भी मिलता है। हमने अनाज के बफर स्टाक रखने की नीति अपनाई, गोदामों में पर्याप्त अनाज रखा, सार्वजनिक वितरण प्रणाली का विस्तार देश भर में किया, सबसे गरीब परिवारों को विशेष तौर पर अधिक सस्ते अनाज के राशन कार्ड दिए। इन नीतियों का कुछ न कुछ लाभ आज भी मिलता है। यही कारण है कि आज हमारा खाघ संकट उतना विकट नहीं है और खाघ कीमतें उतनी नहीं बढ़ी हैं जितनी कि कई अन्य देशों में।पर दुख की बात यह है कि खाघ सुरक्षा की दिशा में हमारी तैयारी कभी पूरी नहीं हुई। एक मुख्य कमी यह रही है कि खाघ उत्पादन बढ़ाने के खर्चीले तौर-तरीके अपनाए गए। ये तकनीकें टिकाऊ नहीं थीं और इनके निरंतर अधिक महंगे होते जाने की संभावना थी। दूसरी कमी यह बनी रही कि खाघान्न उत्पादन बढ़ाने के प्रयास कुछ विशेष स्थानों पर केन्द्रित रहे। इस तरह एक आ॓र तो खाघान्न उत्पादन महंगा हुआ तथा दूसरी आ॓र इसे कुछ अधिक उत्पादन के स्थानों से देशभर में पहुंचाने का खर्चा बढ़ गया। इस तरह किसान को विशेष लाभ दिए बिना ही खाघान्न की कीमत महंगी होने लगी। पर सरकार ने अरबों रूपए की सब्सिडी देकर यह प्रयास किया कि खाघान्न की कीमत आम लोगों के लिए सहनीय रहे। इस प्रयास में भी तीन कारणों से छेद होने लगे। पहली समस्या तो यह थी कि सरकारी सब्सिडी पर आधारित सार्वजनिक वितरण प्रणाली में भ्रष्टाचार बहुत बढ़ गया और जो लाभ सरकार आम लोगों, विशेषकर सबसे गरीब परिवारों को देना चाहती थी उस लाभ को असरदार लोग हड़पने लगे। दूसरी कठिनाई यह आई कि सरकार पर सब्सिडी कम करने या एक सीमा से आगे न बढ़ने देने का दबाव भी पड़ने लगा। तीसरी समस्या यह हुई कि सरकार की अनुचित नीतियों के कारण अनाज की सरकारी खरीद कम होने लगी और निजी कंपनियों की खरीद बढ़ने लगी। अत: सरकारी गोदामों में अनाज कम होने लगा।हाल के समय में कुछ बहुराष्ट्रीय कंपनियों के खेती में वर्चस्व बढ़ने से बीज, कीटनाशक दवाओं आदि पर खर्च और तेजी से बढ़ा। उधर तेल तथा गैस की कीमत विश्व बाजार में तेजी से बढ़ी तो इनसे उत्पादित रासायनिक खाद, पंपसेट व ट्रैक्टर के लिए जरूरी डीजल का खर्च भी बढ़ा। विश्व स्तर पर बहुत सी खाघ उत्पादन करने वाली भूमि का उपयोग बायोडीजल की फसलों के लिए होने लगा तथा तैयार खाघ फसलों को खाघ के रूप में बेचने के स्थान पर उन्हें बायोडीजल बनाने की फैक्ट्रियों में भेजा जाने लगा। इन मिले-जुले कारणों से अनेक खाघ उत्पादों के बाजार में जबरदस्त तेजी आई। जरूरत इस बात की थी कि सरकार खाघ उत्पादन बढ़ाने के लिए सस्ती व आत्मनिर्भर तकनीकों पर ध्यान केन्द्रित करती व उत्पादन बढ़ाने के प्रयासों को अधिक पिछड़े व गरीब क्षेत्रों में अधिक सशक्त करती। इस तरह एक आ॓र तो खाघ उत्पादन की लागत कम होती, साथ ही खाघ वितरण की लागत भी कम होती। सार्वजनिक वितरण प्रणाली के लिए अधिकांश अनाज स्थानीय स्तर पर ही उचित कीमत पर खरीदा जाता और उसे गरीब परिवारों तक पहुंचाने के कार्य को सरकार व सजग नागरिकों की निगरानी में किया जाता। वैसे तो पूरी सार्वजनिक वितरण प्रणाली में सुधार जरूरी है पर गरीबी की रेखा के नीचे के (बी।पी।एल।) व सबसे निर्धन (अंत्योदय) परिवारों के लिए सार्वजनिक वितरण प्रणाली सुधारना और भी जरूरी है। अनाज की सरकारी खरीद और गोदामों में पर्याप्त भंडार रखने को उच्चतम प्राथमिकता दी जानी चाहिए थी ताकि उसमें कमी की कोई शिकायत उपलब्ध न हो। तिलहन व दलहन में देश को आत्मनिर्भर बनाना निश्चित तौर पर संभव है। इस पर पर्याप्त ध्यान देकर दालों व खाघ तेलों की कीमत वृद्धि को रोका जा सकता था। इस समय भी बहुत देर नहीं हुई है। यदि सरकार उचित प्राथमिकताओं को अपनाए तथा साथ ही मुनाफाखोरों-सट्टेबाजों जैसे तत्त्वों पर कड़ा नियंत्रण रखे तो देश के सभी लोगों के लिए उचित कीमत पर खाघ उपलब्ध करवाना संभव है।इसी तरह तेल के आयात पर अधिक निर्भरता को देखते हुए हमें तेल बचाने वाली नीतियों पर अधिक जोर देना चाहिए था। विकास का ऐसा माडल अपनाना चाहिए था जो तेल की कम खपत करे, उस पर कम आश्रित हो। फिलहाल जो स्थिति है उसके आधार पर तो यही स्वीकार करना होगा कि हम तेल के आयात पर बहुत निर्भर हैं और तेल की कीमतें बहुत तेजी से बढ़ रही हैं। अत: तेल की खपत को कम करने व वैकल्पिक ऊर्जा के स्रोत विकसित करने पर हमें अधिक ध्यान देना चाहिए।महंगाई के बढ़ते दौर में इस आ॓र पहले से भी अधिक ध्यान देने की जरूरत है कि गरीबी उन्मूलन कार्यक्रमों तथा समाज के विभिन्न जरूरतमंद वर्गों को राहत देने वाली परियोजनाओं के क्रियान्वयन को बेहतर किया जाए, विशेषकर गांवों में रोजगार गारंटी योजना में भ्रष्टाचार दूर करने व इसे बेहतर बनाने पर विशेष ध्यान देना जरूरी है ताकि बढ़ती महंगाई के समय में गरीब लोग अपनी बुनियादी जरूरतों को पूरा कर सकें।
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सामाजिक नियंत्रण के गैरपारंपरिक नुस्खे
क्या आप ऐसे दृश्य की कल्पना कर सकते हैं कि मुल्क का मशहूर मजदूर नेता फैक्टरी गेट पर हड़ताली मजदूरों के हक में भाषण दे रहा है और अचानक बेहोश होकर गिरता है? इतना ही नहीं, नेता को सुनने एकत्रित भीड़ में से कई लोग उसी वक्त अपनी जगह पर खड़े-खड़े धड़ाम से गिर जाते हैं? अंदाजा लगाया जा सकता है कि आभासी लगनेवाला यह दृश्य अगर हकीकत में बदल जाए तो किस किस्म की भगदड़ मच सकती है और जीत के करीब पहुंची लड़ाई कभी अचानक हार में बदल सकती है।वैसे इन दिनों अमेरिकी रक्षा विभाग पेंटागन में सामाजिक नियंत्रण के जिन गैरपारंपरिक और गैरप्राणघातक हथियारों पर जोरशोर से काम हो रहा है, उसे देखते हुए आनेवाले कुछ दिनों में ऐसी संभावना से हम रू-ब-रू भी हो सकते हैं। विज्ञान पर चर्चित पत्रिका ‘न्यू साइंटिस्ट’ के कुछ समय पहले प्रकाशित अंक में ऐसे हथियारों की चर्चा थी (3 जुलाई, 2008)। इसके मुताबिक, पूंजीपति उघमियों का एक हिस्सा इन दिनों एक ऐसी माइक्रोवेव किरण गन तैयार करने में जुटा है, जो सीधे लोगों के सिर में आवाज पहुंचा देगी। इस उत्पाद को अमेरिका सेना द्वारा ‘युद्ध के अलावा अन्य कामों में’ भीड़ नियंत्रण हेतु इस्तेमाल किया जाएगा। इसमें माइक्रोवेव ऑडिआ॓ इफेक्ट का इस्तेमाल होता है, जिसमें छोटे माइक्रोवेव लहरें/पल्सेस तेजी से टिशू को गर्म करते हैं और सिर में एक शॉकवेव पैदा करते हैं। पेंटागन प्रसन्न है कि इस किरण को इलेक्ट्रॉनिक पद्धति से संचालित किया जाता है जो एक साथ कई निशानों तक पहुंच सकती है!साफ है कि इस माइक्रोवेव गन से किरणें फेंकी जाएगी तो पता चला, भाषण देते–देते मजदूर नेता वहीं बेहोश होकर गिर गया और उसके इर्दगिर्द खड़े मजदूर इसी तरह धराशायी हुए। इस बात के मद्देनजर रखते हुए कि ऐसी गन का विरोध होगा और उसे मानवाधिकारों का हनन बताया जाएगा, इसे स्वीकार्य बनाने की कवायद भी चल रही है। यह कहा जा रहा है कि इसके गैरसैनिक उपयोग भी हो सकते हैं, जैसे कहीं टिड्डी दल का हमला हो जाए तो ऐसे कीड़ों को भगाया जा सकता है। इतना ही नहीं, यह बात भी रेखांकित की जा रही है कि ऐसी तकनीक से उन लोगों को लाभ हो सकता है जिनकी सुनने की क्षमता ठीक नहीं है। पेंटागन में इसके लिए एक महकमा तैयार किया गया है, जो इस दिशा में नए–नए उपकरणों/हथियारों की खोज में जुटा है। इसका नाम है ‘ज्वाइंट नान–लेथल वेपन्स डायरेक्टोरेट’ अर्थात ‘गैरप्राणघातक हथियार निदेशालय’। यहां विकसित किए जा रहे अकोस्टिक माइक्रोवेव हथियार, लेसर चालित प्लाज्मा चैनल्स या वोर्टेक्स रिंग गंस जैसे उपकरणों से लोगों को बोध हो सकता है कि ये किसी विज्ञान कथा के हिस्से तो नहीं हैं। एक तरह से कहें, तो यहां सबसे महत्वपूर्ण काम रेथोन्स एक्टिव डिनॉयल सिस्टम पर हो रहा है जो एक तरह का संदेश ऊर्जा हथियार है जिसे भीड़ को काबू करने में हो सकता है। इसके इस्तेमाल के बारे में मशहूर है कि यह मनुष्य की त्वचा को 130 डिग्री फारेनहाइट तक गर्मा देती है। देख सकते हैं कि माइक्रोवेव किरण गन इसी का बहुत सुधरा रूप है। अमन पसंद वैज्ञानिकों में इन गैरपारंपरिक हथियारों को लेकर जागरूकता बढ़ रही है। चर्चित विश्लेषक टॉम बुर्गहार्ड के मुताबिक ‘यह नया फासीवाद जैव निर्धारणवादी विचारधारा और अग्रगामी तकनीकी साधनों का इस्तेमाल करते हुए शरीर पर हमला करता है।’ इन गैरपारम्परिक हथियारों के आविष्कार के जरिए अमेरिकी सैन्यवाद मानवाधिकार उल्लंघन की ऊंचाइयों पर पहुंच रहा है। अब लोगों को ‘शांत’ करने की अपनी योजनाओं के तहत सीधे मानवीय शरीर और मन की सीमाओं का उल्लंघन कर रहा है। इस नयी किस्म की ‘युद्धभूमि’ पर अपना वर्चस्व कायम करने में अकादमिक जगत न केवल केन्द्रीय भूमिका निभा रहे हैं। दमन के खास मकसद के लिए पेशेवर वैज्ञानिकों की विशष्टि सेवाएं ली जा रही हैं। ‘गैरप्राणघातक’ हथियारों के निर्माण के काम को सरकारों या निजी कॉरपोरेट प्रतिष्ठानोें की तरफ से धड़ल्ले से आगे बढ़ाया रहा है, जिसमें अग्रणी शिक्षा संस्थान जुड़े हैं। अपनी चर्चित किताब ‘द कॉम्प्लेक्स’ में निक टर्स नामक अनुसंधानकर्ता बताते हैं कि किस तरह दूसरे विश्व युद्ध के बाद अमेरिकी अकादमिक जगत अनुसंधान एवं विकास की परियोजनाओं के लिए पेंटागन के पैसे पर निर्भर रहने लगा है, जिसके अंदर ‘उच्च शिक्षा के परिदृश्य को बदलने, रिसर्च एजेंडे को प्रभावित करने, पाठ्यक्रमों की अन्तर्वस्तु बदलने’ की क्षमता दिखती है। इसी के अंतर्गत एमआईटी जैसे विश्वविख्यात संस्थान द्वारा स्थापित अपनी रिसर्च इंस्टीट्यूट ‘द मितर कॉरपोरेशन को 88 करोड़ डॉलर का अनुदान मिला!
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स्पीकर का लोभ या पार्टी की तानाशाही
लोकसभा की कार्यवाही और सांसदों के आचरण के स्तर पर आई भयावह गिरावट की चर्चा बहुत हो रही है, लेकिन स्पीकर सोमनाथ चटर्जी के व्यवहार पर सार्वजनिक चर्चा बहुत कम देखने में आई। ऐसा मान लिया गया था कि यह स्पीकर और उनकी पार्टी सीपीएम के बीच का मामला है। लेकिन अब जबकि सोमनाथ को पार्टी से निकाल दिया गया है, यह मामला निश्चय ही विवादास्पद बन गया है। कुछ लोगों को पार्टी के इस निर्णय में तानाशाही की बू आ रही है, तो कुछ स्पीकर की मनमानी को पचा नहीं पा रहे हैं। हमारी लोकसभा के छोटे-से इतिहास में यह अपने ढंग की पहली घटना है। इसलिए इस पर संजीदगी से विचार होना चाहिए, ताकि स्पीकर पद की कुछ मर्यादाएं निश्चित हो सकें। अराजकता के वर्तमान माहौल में कोई ऐसा बिन्दु नहीं छोड़ना चाहिए, जहां अराजकता को पनपने का अवसर मिल सके - यह अराजकता स्वयं स्पीकर की हो या उसकी पार्टी की। कायदे से स्पीकर ही सदन का नेता होता है। दिलचस्प है कि लोकसभा के अध्यक्ष को ‘स्पीकर’ कहा जाता है, पर वह सिवाय सदन को संचालित करने के अपनी आ॓र से कुछ भी ‘स्पीक’ नहीं करता। जब इंग्लैंड की संसद का, जिसे दुनिया की सभी ‘संसदों की मां’ कहा जाता है, विकास हो रहा था, उस समय संसदीय शासन नहीं था। संसद थी, पर विचार-विमर्श के लिए। वह न कानून बना सकती थी, न यह तय कर सकती थी कि सरकार की नीतियां क्या होंगी। यह सारा काम सम्राट ही करता था। उन दिनों स्पीकर ही सदन की आ॓र से सदन का प्रतिवेदन सम्राट के सामने रखता था। इस तरह वास्तविक जगह पर बोलने वाला सांसद स्पीकर ही था। जैसे-जैसे शासन की संसदीय प्रणाली का विकास होने लगा, स्पीकर की भूमिका कम होती गई। अब उसका रोल सिर्फ इतना रह गया है कि वह सदन की कार्यवाही का संचालन करे तथा उसकी मर्यादाओं की रक्षा करे।संसदीय प्रणाली दलों के आधार पर चलती है। बहुत-से सांसद स्वतंत्र और निर्दलीय भी होते हैं। जिस व्य‡ि को स्पीकर की भूमिका निभानी है, उसे लोकसभा का सदस्य तो होना ही चाहिए। कायदे से किसी निर्दलीय को स्पीकर बनाया जाए, तो सबसे अच्छा हो। लेकिन ऐसा हो नहीं पाता है, क्योंकि सभी सत्ताारूढ़ दल या गठबंधन चाहते हैं कि स्पीकर उनका अपना प्रतिनिधि हो। इसलिए कि स्पीकर अपने दल या गठबंधन का हुआ, तो संसदीय कामकाज संपन्न करने में सरकार को आसानी होती है। हमारे देश में स्पीकर को एक और महत्वपूर्ण काम दिया गया है-- दलबदल विरोधी कानून के प्रावधानों के तहत यह निर्णय करने का कि दलबदल हुआ कि नहीं और हुआ, तो दलबदल करने वाले की संसदीय सदस्यता को रद्द करना। इसलिए भी स्पीकर का राजनीतिक मूल्य बढ़ गया है। हम जानते हैं कि हमारे अनेक स्पीकरों ने दलबदल के मामले में पक्षपातपूर्ण फैसले किए हैं और अपने से संबंधित दलों को फायदा पहुंचाया है। इसके बावजूद माना यही जाता है कि किसी खास दल का सदस्य होने के बावजूद जब कोई सांसद स्पीकर चुन लिया जाता है, तो वह वास्तव में दलविहीन हो जाता है। दलविहीन हो जाने से उसके हितों को क्षति न पहुंचे, इसलिए कई देशों में परंपरा है कि स्पीकर की सीट पर कोई भी दल अपना उम्मीदवार खड़ा नहीं करता, ताकि वह दुबारा र्नििववाद चुना जा सके। हमारे देश में ऐसी कोई परंपरा नहीं बन पाई है। इसलिए यह श्य भी देखने में आता है कि स्पीकर का पद संभाल चुकने के बाद भी कोई सांसद बाद में मंत्रिमंडल का सदस्य हो जाता है या कहीं का राज्यपाल बना दिया जाता है। वर्तमान गृह मंत्री शिवराज पाटिल लोकसभा के स्पीकर रह चुके हैं। सोमनाथ चटर्जी एक आदर्श स्पीकर साबित हुए हैं, इसमें कोई संदेह नहीं है। ‘लोकसभा’ चैनल शुरू कर उन्होंने निश्चय ही एक खास काम किया है, लेकिन वह स्पीकर चुने जाते समय सीपीएम के सदस्य थे। स्पीकर बनने के बाद उन्होंने अपनी पार्टी से इस्तीफा नहीं दिया। इसलिए सीपीएम के शीर्ष नेताओं ने राष्ट्रपति को अपने सांसदों की सूची देते समय सोमनाथ चटर्जी का नाम भी जोड़ लिया, तो तकनीकी तौर पर वे गलत नहीं थे। बेशक, वह भूल गए कि सोमनाथ चटर्जी सिर्फ सीपीएम के सांसद नहीं हैं, बल्कि लोकसभा के अध्यक्ष भी है। यह कोई मामूली भूल नहीं थी। इससे पता चलता है कि पार्टी में न्यूनतम संवेदनशीलता भी नहीं बची है। चूंकि स्पीकर को निर्दलीय माना जाता है, इसलिए पार्टी पॉलिटिक्स में खींचने के पहले उनसे संवाद तो करना ही चाहिए था और उनकी सहमति के बिना उनका नाम सूची में शामिल नहीं करना चाहिए था। यह दुख की बात है कि सीपीएम नेतृत्व ने अपनी इस त्रुटि के लिए सोमनाथ चटर्जी और लोकसभा से माफी भी नहीं मांगी, न ही किसी प्रकार का खेद ही व्यक्त किया। सिक्के का दूसरा पहलू भी है। सोमनाथ चटर्जी के इस ष्टिकोण की भी प्रशंसा नहीं की जा सकती कि सीपीएम के प्रति मेरी कोई प्रतिबद्धता नहीं है और यह फैसला मुझे करना है कि स्पीकर पद से इस्तीफा देना है या नहीं। स्पीकर को फूंक-फूंक कर कदम रखना चाहिए-- खासतौर से पतनशीलता के इस दौर में। जब उनकी पार्टी ने फैसला कर लिया कि उन्हें परमाणु करार के विरोध में स्पीकर के पद से इस्तीफा दे देना चाहिए, तो उनके लिए विचार-पुर्निवचार की कोई बात ही नहीं बचती। संसद के प्रति वफादारी और पार्टी के प्रति वफादारी में विरोधाभास नहीं होना चाहिए। सोमनाथ चटर्जी भी कम्युनिस्ट हैं। उनकी विचारधारा वही है, जो सीपीएम की विचारधारा है। इसलिए यह कैसे हो सकता है कि जब पार्टी परमाणु करार के मुद्दे पर यूपीए सरकार से समर्थन वापस लेने जैसा कठोर कदम उठा चुकी हो, तब सोमनाथ चटर्जी जैसे वरिष्ठ मार्क्सवादी नेता का अंत:करण अविचलित रहे और वे निष्पक्षता के आवरण में अपने विचार से संसद को और देश को वंचित रखें? उन्हें अपनी पार्टी के निर्णय को शिरोधार्य कर लोकसभा अध्यक्ष के पद से तत्काल इस्तीफा दे देना चाहिए था और इस प्रकार वे अन्य सांसदों से जिस प्रतिबद्धता, मर्यादा, अनुशासन और शील की अपेक्षा करते हैं, उसका एक उदाहरण अपने निजी आचरण से प्रस्तुत करना चाहिए था।
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Tuesday, July 22, 2008
ग्लोबल वार्मिंग के लिए कार्बन तत्व कितने जिम्मेदार
हाल ही में पश्चिमी देशों ने एक स्वर से भारत और चीन को मौसम परिवर्तन और ग्लोबल वार्मिंग का मुख्य कारण माना है, लेकिन इसके ठीक विपरीत रूसी वैज्ञानिक जलवायु परिवर्तन के कुछ और ही कारण मानते हैं। वे कार्बन डायऑक्साइड को किसी भी रूप में ग्लोबल वार्मिंग के लिए जिम्मेदार नहीं मानते हैं। क्यूटो संधि में धरती की तपन का कारण कार्बन डायआक्साइड उर्त्सजन ही माना गया। लेकिन रूसी वैज्ञानिकों का मानना है कि बिना वैज्ञानिक तथ्यों का परीक्षण किये कार्बन को इसके लिए दोष देना उचित नहीं है। रूसी वैज्ञानिक आंद्रे कापिस्ता कहते हैं कि ग्लोबल वार्मिंग की वजह से कार्बन डाइआक्साइड वातावरण में है न कि कार्बन डाइआक्साइड की वजह से ग्लोबल वार्मिंग।
रूसी अनुसंधानवेत्ता अपने इस परिणाम पर तब पहुंचे, जब वे अंटाकर्टिका में साढ़े तीन किलो मीटर बर्फ के अंदर गहराई में विभिन्न पर्तों के नमूने इकठ्ठा कर रहे थे। प्राचीन काल में बर्फ गिरते और जमते समय हवा के बुलबुले ग्लेशियर के भीतर कैद हो गये थे, जो उस काल के पृथ्वी के वातावरण की सही जानकारी देते हैं। इन बुलबुलों के अध्ययन से बहुत सारी जानकारियां सामने आई हैं। यह अध्ययन धरती के पिछले चालीस हजार वर्षों की वातावरण की पूरी जानकारी देता है। इसमें उन्होंने पाया कि वातावरण में कार्बन की मात्रा समय-समय पर भिन्न-भिन्न रही है। पूरे इतिहास में पांच सौ से छह सौ वर्षों के बाद वातावरण गर्म होने पर कार्बन डाइआक्साइड की मात्रा बढ़ी है। इसलिए वे मानते हैं कि ग्रीन हाउस गैसों की वातावरण में सांद्रता ही मुख्य कारण है ग्लोबल वार्मिंग का।वे यह भी मानते हैं कि ग्रीन हाउस प्रभाव का मुख्य कारण पानी का वाष्पन ही है जो वातावरण में कार्बन डाइआक्साइड से दस गुणा अधिक है। यदि धरती से पूरी कार्बन डाइआक्साइड हटा दी जाए, तब भी धरती का तापमान इतना गिर नहीं सकता कि धरती ठंडी हो जाए। इस बात पर भैतिकविज्ञानी ब्लादिमिर बाशकृतसेव का विशेष मत है। रूसी विज्ञान संस्थान के आ॓लेग सोरोख्तिन, जो सागर विशेषज्ञ हैं के साथ–साथ अन्य वैज्ञानिकों का भी मानना है कि पृथ्वी का मौसम परिवर्तन एक प्राकृतिक कारण है। जैसे सौर गतिविधि, पृथ्वी के अक्ष में हलचल, सागर की तरंगों में बदलाव, समुद्र की सतह पर नमक के पानी की विरलता और सघनता का होना। ऐसे बहुत से कारण हैं ग्लोबल वार्मिंग के। औघोगिक उर्त्सजन इस स्थिति में मौसम परिवर्तन पर कोई विशेष प्रभाव नहीं डालता। पृथ्वी पर कार्बन डाइआक्साइड की मात्रा का बढ़ना पृथ्वी में जीवन के लिए अच्छा है। डा। सोरोख्तिन तर्क देते हैं कि इससे फसलों की पैदावार अच्छी होती है और वनों की वृद्धि भी तेजी से होती है।
इतिहास में बहुत समय ऐसा भी रहा जब कार्बन डाइआक्साइड की मत्रा पृथ्वी पर आज से लाखों गुणा अधिक रही, और जीवन का विकास सफलतापूर्वक चलता रहा। इस बात को रूस के रसायन भौतिकी विज्ञान के अरूत्यानोव ने भी स्वीकार किया है।
चार वर्ष पहले रूसी वैज्ञानिकों ने सलाह दी थी कि अंतरराष्ट्रीय मंच पर राष्ट्रपति पुतिन इस बात को दुनिया के बतायें कि पृथ्वी को गर्म करने में कार्बन तत्व जिम्मेदार नहीं है। लेकिन पुतिन ने इस बात को राजनीतिक कारणों से अनसुना कर रूस की संसद में क्यूटो संधि के पक्ष में वातावरण बनाया इसके पीछे तर्क यह था कि यदि मास्को संधि का समर्थन करेगा, तभी यूरोपियन यूनियन डब्लूटीआ॓ में सदस्यता के लिए समर्थन करेगी। रूस को इसकी आवश्यकता थी क्योंकि सोवियत संघ के बिखरने से वह बुरी तरह पस्त था, उसे मुक्त व्यापार में शामिल होने से अपनी अर्थव्यवस्था सुधारनी थी। इस रास्ते पर चलने के लिए उसे वैज्ञानिकों द्वारा दिये सुझावों को ठुकराना पड़ा।
डॉक्टर सोरोख्तिन का कहना है कि पृथ्वी के वातावरण में स्वयं एक स्व नियंत्रण प्रणाली है। उसी से तापमान घटता-बढ़ता रहता है। जब तापमान बढ़ता है, तब सागर का पानी तेजी से वाष्पित होकर घने बादलों को बनाता है और इतना बनाता है कि सूर्य की किरणें पृथ्वी तक पहुंचने से रूक जाती हैं , फलस्वरूप पृथ्वी की सतह का तापमान घटने लगता है। शिक्षा शास्त्री कपिस्ता तो क्यूटो संधि को सबसे बड़ा वैज्ञानिक घोटाला मानते हैं। रूसी वैज्ञानिकों का मानना है कि मंच से 1995 में मेड्रिड संयुक्त राष्ट्र सम्मेलन से उन वैज्ञानिकों के दस्तावेजों को गायब किया गया जो भिन्न मत रखते थे। हां, सल्फर डाइआक्साइड, नइट्रोजन आक्साइड, भारी धातुओं और अन्य जहरीले पदार्थों के उत्सर्जन पर जरूर रोक लगानी चाहिए न कि कार्बन के उर्त्सजन पर, जिसके असर को सिद्ध भी नहीं किया गया।
यदि एक बार 1970 के वर्ष में चलें तब पता चला कि पृथ्वी का तापमान घट रहा है। सावधान किया गया कि हमें हिम युग की चुनौतियां झेलनी पड़ेगी।
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विकासवादी होने के खतरे
भारत में जातिवाद और सम्प्रदायवाद से समाज के टूटने का खतरा जाहिर किया जाता है। यह खतरा इसीलिए है कि समाज के विविधता के ढांचे और चरित्र को बचाए रखना चाहते हैं। समाज को उन लड़ाइयों से दूर रखना चाहते हैं जिससे आखिरकार समाज के बड़े हिस्से का हर स्तर पर नुकसान ही होना है। ये धर्म और जाति पुरानी व्यवस्थाओं के आधार रहे हैं जिन्हें आधुनिक व्यवस्था से दूर करने का लक्ष्य होता है। आधुनिक व्यवस्थाएं ये लक्ष्य राजनीतिक विचारधाराओं के आधार पर निर्धारित करती हैं लेकिन पुरानी व्यवस्थाओं के जो आधार रहे हैं उनसे जुड़े वगा के हित उसमें सुरक्षित होते हैं इसीलिए वे किसी भी स्तर पर उसे बनाए रखना चाहते हैं। वे उन आधारों को एक विचारधारा में परिर्वितत करने और उसे स्थापित करने की कोशिश लगातार करते हैं। लेकिन दूसरी तरफ आधुनिक व्यवस्थाओं की भी अपनी टकराहट होती है। वे नई-नई विचारधाराओं की जगह बनाने की कोशिश करती हंै। आधुनिकतम होती व्यवस्थाओं में विचारधाराओं का आधार जाति, लिग, धर्म और क्षेत्र से बदल जाता है। उस समय लगता है कि जातियां समानता ग्रहण कर रही हैं। धर्म की भूमिका कम हो रही है। पूरी दुनिया ही एक क्षेत्र में बदल गई है। शोषित, पीडित आबादी को मुक्ति मिल रही है। लेकिन एक उदाहरण से समझने की ये कोशिश की जा सकती है कि जो आधुनिक व्यवस्था में बदलने और विकास का अहसास है वह दूसरी तरफ कैसे एक अधीनता और असमानता को बनाए रखने की कोशिश आधुनिकतम कहलाने वाली विचारधाराएं करती रहती हैं।
सन 1660 का एक तथ्य है। उस समय दिल्ली की आबादी लगभग पांच लाख थी। उसमें आधी से ज्यादा आबादी झुग्गी-झोपडियों में रहती थी। इस संख्या का अनुमान 1661 में दिल्ली में आग लगने की एक घटना के तथ्यों से भी लगाया जा सकता है। उसमें 60 हजार झुग्गियां और झोपडियां जलकर राख हो गई थी। दूसरा तथ्य खेत में अनाज पैदा करने वालों से जुड़ा है। दिल्ली और आगरा के इलाके में गेहूं का उत्पादन करने वाले खेतिहरों की स्थिति ऐसी नहीं थी कि वे गेहूं खरीद सकें। तीसरा तथ्य औरंगजेब के बाद के इतिहास में उल्लेख मिलता है कि 1770 के आरम्भ में जितनी मौतें हुई और अनाज की जिस तरह से किल्लत देखी गई उतनी अतीत में न कभी देखी गई थी और न ही सुनी गई थीं। इन साढ़े तीन सौ वषा में व्यवस्थाएं आधुनिकतम होती चली गई हंै लेकिन ये कहने की जरूरत नहीं होगी कि व्यवस्थाएं कहां खड़ी रही हैं और आज भी हैं।
उपरोक्त स्थितियों के आलोक में कहा जा सकता है कि राजनीतिक विचारधाराओं ने नई व्यवस्थाओं में विकास को एक ऐसा आधार बनाया जिसे केन्द्र में रखकर असमानताओं के पुराने आधारों को खत्म किया जा सकता है। इसीलिए विकास की अवधारणा के अंदर तमाम तरह की राजनीतिक विचारधाराओं के बीच तीखे संघर्ष होते रहे हैं। विकास की धुरी पर राजनीतिक सत्तााएं बनती-बिगड़ती रही हैं। लेकिन इसका अर्थ यह नहीं है कि विकास अपने आप में एक विचारधारा है पर विकास को एक ऐसी विचारधारा के रूप में विकसित किया गया है। पुरानी व्यवस्थाओं के आधार जातिवादी, सम्प्रदायवादी आदि रहे हैं उसी तर्ज पर विकासवादी जुड़ जाता है। भूमंडलीकरण की प्रक्रिया ने जाति और धर्म की तरह इसे एक विचारधारा के रूप में विकसित करने की कोशिश की है। भारतीय समाज को जातिवाद और सम्प्रदायवाद के मनोविज्ञान, मानसिक अवस्था और उसकी आक्रामकता के बारे में बताने की जरूरत नहीं है। लेकिन यह जरूर कहा जा सकता है कि भारत जैसे देशों में विकासवाद और विकासवादियों का वही चरित्र है। भूमंडलीकरण की नई र्आिथक नीतियों के लागू करने के फैसले सरकार ने जितने चरणों में लिए हंै वे उस विचारधारा को करपंथी के रूप में विस्तार करने के चरण रहे हैं। इस विचारधारा के करपंथी होने के कम से कम दो लक्षण यहां देखे जा सकते हैं। पहला लक्षण शाइनिग इंडिया या भारत 2020 का नारा बनना है। यानी ये देखा जा रहा है कि लोग अपनी पहले की स्थिति में ही हैं लेकिन सत्तााएं विकासवादी कहलाती हैं। इसमें आवाज पैदा की जाती है कि दूरदराज कहीं सपने पूरे हो रहे हैं। दूसरे विकास के सवाल उठाने वाले आक्रमण के शिकार होते हैं। दिल्ली में लाखों की तादाद में झुग्गियों के गिराए जाने से लेकर छत्ताीसगढ़ में नदियों को बेच देने तक पर कोई सत्ताा का बाल बांका नहीं कर सका और न ही लाख से ऊपर की तादाद में किसानों की मौत को कोई देख पाया। जातिवाद और सम्प्रदायवाद की भयावहता इसी तरह की तो देखी जाती है। विकासवाद भी उपरोक्त तथ्यों के आधार पर कम से कम साढ़े तीन सौ वषा पुरानी स्थिति में हमें खड़ा किए हुए है। वहां अनाज का अभाव और गेहूं के ऊंचे भाव से भुखमरी और मौत, और कर्ज से किसानों की मौत में क्या अंतर है। पुराने विचार वहां और यहां केवल जाति, धर्म की तलाश करेंगे लेकिन नई विचारधारा ने विकासवादी एक नई जाति और धर्म को विकसित कर लिया है उसकी शिनाख्त कैसे होगी। व्यवस्था आधार के रूपों का भी आधुनिकीकरण कर देती है।
समाज ने जिन तमाम तरह की बहसों को जन्म दिया और वैचारिक लड़ाइयां लड़ी वे उसकी सांस्कृतिक पूंजी हैं। उनकी उपलब्धियों के तौर पर उसे देखा जा सकता है। लेकिन विकासवाद ने तमाम उन उपलब्धियों और सांस्कृतिक पूंजी पर अपना आक्रमण जमा लिया है। यदि भारतीय समाज और राजनीतिक व्यवस्थाओं में इस विचारधारा के प्रभावों का अध्ययन किया जाए तो ये बेहद गहरे स्तर पर सक्रिय और सूक्ष्म स्तर पर आक्रामक दिखाई देगा। इसने अपनी भाषा विकसित की है और दूसरी तरफ बेजुबां करने के लिए भाषा ही छीन ली है। यह अब अक्सर सुना जाता है कि अजीब सा लग रहा है या वह अजीब सा है। क्या कभी किसी समाज में ऐसा होता है कि उसके बीच कुछ खड़ा हो और वह अजीब सा लगे। यदि आश्चर्यजनक चीजें अचानक खड़ी होती हों तो ऐसा हो सकता है। लेकिन यहां तो अजीबों की कड़ी तैयार दिख रही है और समाज उसे व्यक्त करने के लिए भाषा भी तैयार नहीं कर पा रहा है। सारे संबंध विघटन के दौर से गुजर रहे हैं। विकास जब तक एक योजना और कार्यक्रम है वह आक्रमणकारी नहीं हो सकता है लेकिन जैसे ही वह विकासवादी होता है उसके खतरे शुरू हो जाते हैं। विकासवाद ने तमाम और खासतौर से समानता मूलक राजनीतिक विचारों को रक्षात्मक स्थिति में कर दिया है। इसने व्यक्ति की हरेक इकाई को अपने प्रभाव में कर रखा है। हमें और आपको इसके बारे में सोचना होगा।
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Monday, July 21, 2008
बिके हुए समझौतावादी
एक ऐसे वक्त में जब लोकतंत्र, बकौल अरुंधति राय राजनेताओं का बिजनेस भर रह गया हो, तब ऐसीठगिनी राजनीति से निपटने के बारे में सोचा जाना चाहिए या फिर अपने करियर के बारे में- यह एक बड़ा सवाल है। जिसे कभी देशप्रेम और देशभक्ति कहते थे, वह जज्बा अब बचा नहीं है।
कुछ लोग तो यही समझने लगे हैं कि देश का मतलब अपना घर, परिवार भर है। ज्यादा से ज्यादा कुल खानदान या फिर नाते-रिश्तेदार। इसकी शुरुआत तभी हो गई थी, जब एक बड़ी राष्ट्रीय पार्टी धीरे-धीरे एक परिवार की राजनीति में सिमटने लगी और बाद में तो यहाँ तक हिमाकत की गई कि पार्टी बॉस को ही देश (राष्ट्र) का पर्याय कह डाला गया।
संतोष की बात यह है कि भारत के लोगों ने इसे नहीं माना। यह बात जो बात तो कम, बकवास अधिक थी, किसी के भी गले नहीं उतरी। हाँ, कुछेक दिनों के लिए वह पार्टी और उसका बॉस जरूर पटिए पर आ गए। यह इस देश के लोगों की राजनीतिक समझ ही थी जिसके आगे एक बड़ी राजनीतिक पार्टी के सबसे निरंकुश नेता को घुटने टेकने पड़े और माफी तक माँगनी पड़ी।
लोगों को भी समझ में आया कि लोकतंत्र लोगों की राजनीतिक सचेतनता और सजगता के बल पर बचता है, न कि उन राजनेताओं के सहारे जो राजनीति को अपना करियर बना चुके हैं। जिस महान (?) लोकतंत्र में राजनीति करने वाली बिरादरी का यह हाल हो, वहाँ लोकतंत्र का चेहरा, चरित्र और उसकी सेहत कैसी होगी, इसकी थोड़ी-बहुत कल्पना वे लोग तो कर ही सकते हैं, जो खुद को पढ़ा-लिखा और पेशेवर बुद्धिजीवी तबके से आया हुआ समझते हैं।
किंतु यह सब सोचना और ऐसी बातों में सिर खपाना उनका कन्सर्न नहीं बचा। राजनेता की राजनीति जैसे उसके अपने बीवी-बच्चों या घर-परिवार तक सिमट गई, वैसे ही कथित तौर पर पढ़े-लिखे बुद्धिजीवी तबकों की बुद्धि अपने निहायत घटिया स्वार्थों तक। इसलिए इन दोनों के बीच एक अलिखित समझौता-सा हो चुका है।
मुठभेड़ और संवाद करने के बजाय अब ये दोनों या तो एक-दूसरे के कुकृत्यों पर आँख मूँदते और चुप्पी साधते हैं या फिर एक-दूसरे की रक्षा और मदद के लिए भीतर ही भीतर सक्रिय हो उठते हैं। चूँकि संसद, विधानसभा और सचिवालय से लेकर पुलिस कोतवाली और एक सीमा तक कचहरियों तक इनका अपना व्यवस्थित नेटवर्क काम कर रहा है।
अपराधियों को बचाने और अपराध छिपाने के लिए कोई खास मशक्कत उन्हें नहीं करनी पड़ती। ऊपर से नीचे और नीचे से ऊपर तक इनके कारगर चैनल बने हुए हैं, जमीन और आसमान यहाँ तक कि हवा और पानी तक इनका इतना असर कायम है कि इस किले को भेदना आसान नहीं रह गया है। स्थिति इतनी खतरनाक हो उठी है कि इनके विरुद्ध उठी हुई उँगली काटी और इनके विरुद्ध उठी आँख निकाली जा सकती है।
सिंगुर और नंदीग्राम तो खैर बड़े उदाहरण हैं, पर छोटे-छोटे उदाहरणों की सूची भी कम नहीं है। जिस लोकतांत्रिक समाज में बुद्धिजीवी और राजनेता एक-दूसरे के स्वार्थों के इतने करीब हों और एक-दूसरे के काले कारनामे को ढँकने और छिपाने में महारत हासिल कर चुके हों, उस समाज में शासित जनसमूहों को अपनी रक्षा के उपाय अपने आप करने पड़ते हैं। पर अब यह इतना आसान काम नहीं रह गया है।
कारण यह कि बड़ी-बड़ी विदेशी कंपनियाँ और उनकी तर्ज पर विश्व विजयी देशी पूँजीपति विकास का ताजा से ताजा मुहावरा लेकर हमारे बीच आ खड़े हैं और जो बिकने लायक हैं उनको खरीद रहे हैं, जो बिकने में आनाकानी कर रहे हैं, उन्हें सत्ता के सहारे अपने रास्तों से हटाकर अपना विजय रथ वे निर्ममता से हाँककर आगे ले जा रहे हैं।
मजेदार बात फिर भी यह कि तब भी मंगल पांडे, झाँसी की रानी, बहादुरशाह जफर, झलकारी बाई, यहाँ तक कि तिलक, गाँधी, नेताजी सुभाषचन्द्र बोस और भगतसिंह की जयंतियाँ मनाई जा रही हैं, उन्हें याद करने (रखने का नहीं) का स्वाँग किया जा रहा है।
1857 के जज्बे को करोड़ों रुपए खर्च कर जगह-जगह याद किया जा रहा है और याद करने वाले यही लोग हैं, जिनका जिक्र ऊपर बहुत चिंता और अफसोस के साथ किया गया है। कितने दुःख और शर्म की बात है कि अब हमारी महान राष्ट्रीय स्मृतियाँ भी दगाबाज राजनेताओं और उनके साथ मौसेरापन निभाने वाले बुद्धिजीवियों के बीच का एक कर्मकांड भर बची रह गई हैं।
यह कैसा वक्त है कि मंगल पांडे के खेतिहर वंशजों से उनकी पुश्तैनी जमीनें जबरन छीनी जा रही हैं। उन्हें उनके पुश्तैनी हकों से वंचित और बेदखल किया जा रहा है। दूसरी तरफ 1857 को एक महा समारोह की तरह करोड़ों-करोड़ खर्च कर याद किया जा रहा है। कहीं यह देश धूर्त और मक्कार किस्म के लोगों के हाथ तो नहीं पड़ गया है, जो इसे नए सिरे से बेच डालने की तैयारी में जुटे हुए हैं?
इसे समझना अब कोई ऐसी मुश्किल बात भी नहीं है। पिछले पन्द्रह-बीस सालों का इतिहास उठाकर देखें तो पता चल जाएगा कि भारत में जो विकास की नई अर्थनीति आई है, वह सबसे पहले उन लोगों को बेदखल करने में लगी है जिनका जीवन यहाँ के पुश्तैनी परंपरागत प्राकृतिक संसाधनों पर निर्भर रहा आया है।
नई अर्थ व्यवस्था का सबसे पहला उद्देश्य इस देश के प्राकृतिक संसाधनों पर कब्जा करके उन्हें अपनी मुट्ठी में लेना है। वह चाहे कोयला हो या कच्चा लोहा, बॉक्साइट हो या उपजाऊ जमीन या फिर मसालों और फलों वाले ऐसे क्षेत्र, जिनसे भारत के लोग हजारों सालों से दुनिया के बाजारों में अपनी साख और पहचान बनाते रहे हैं।
यह भी कम विचारणीय नहीं है कि राजसत्ता धीरे-धीरे लोकसत्ता से ऊपर होती जा रही है। सत्ता की राजनीति ने इस लोक समाज को इतना अधमरा कर डाला है कि वह अपने जनप्रतिनिधियों से सवाल पूछने और उन्हें कटघरे में खड़ा कर पाने का सहज अधिकार और विवेक खो चुका है। ऐसा तो उस जमाने में भी नहीं होता था, जब राजतंत्र था। तब इस देश के लोग ऐसे कैसे हो गए?
फिर भी एक सिरफिरे की तरह यह पूछने का मन करता है कि इस देश में विकास की नई अर्थनीति के तहत जब किसान नहीं बचेगा, उनके खेत नहीं बचेंगे, कारीगरी और तरह-तरह के हुनर नहीं बचेंगे, अपनी प्रतिभा और मेहनत के बल पर जीने और मरने वाले लोग नहीं बचेंगे, तब देश भी कैसे बचेगा?तब क्या उन लोगों के भरोसे बचेगा, जिनकी जेबें नोटों की गड्डियों से भरी होंगी और बाजार अटे पड़े होंगे चीन और अमेरिका या जापान और फ्रांस के सामानों से। हमारे जूते भी बाहर से आएँगे और गेहूँ भी। तब चाहे हम दिल्ली, मुंबई में रहें, चाहे शिकागो या पेरिस में, देश का हमारे लिए क्या अर्थ बचेगा?भारतीय राजनीति में अब चाहे दक्षिण हो या वाम या फिर मध्य मार्ग के लोग, सभी ने 'सेज' को मंजूर कर लिया है। उनके दिमाग में अब दूसरा कोई विकल्प बचा ही नहीं है। बिके हुए समझौतावादी बुद्धिजीवियों के लिए करियर बनाने के सुनहरे अवसरों की भीड़ सामने है। देश के सामने है एक और महागुलामी। क्या यह सबसे बड़ा सच नहीं है?
(लेखक वरिष्ठ साहित्यकार हैं।)
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देश को ले डूबेगा परमाणु समझौता
आज जबकि सारे देश में महंगाई वृध्दि को लेकर त्राहि-त्राहि मची हुई थी, प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह ने अचानक भारत-अमरीका परमाणु समझौता को प्रतिष्ठा का मुद्दा बनाकर सभी को अचंभित कर दिया है. अमरीका के मध्य पूर्व एवं दक्षिण एशिया मामलों की संसदीय उपसमिति के अध्यक्ष गैरी एकरमैन ने कह दिया है कि अब जार्ज बुश के राष्ट्रपति काल की समाप्ति के पहले इस समझौते के अमरीकी संसद द्वारा स्वीकृत होना सम्भव नहीं दिखता. अमरीका की संसद में पहुंचने से पहले भारत को इस समझौते के क्रियान्वयन हेतु अंतर्राष्ट्रीय परमाणु ऊर्जा एजेन्सी व 45 देशों के 'परमाणु आपूर्ति समूह' से महत्वपूर्ण स्वीकृतियाँ हासिल करनी हैं.
यह पहली बार है कि कोई देश परमाणु अप्रसार संधि पर हस्ताक्षर किए बगैर तथा अपनी सभी परमाणु गतिविधियों की अंतर्राष्ट्रीय परमाणु ऊर्जा एजेन्सी द्वारा जाँच हेतु तैयार हुए बगैर परमाणु आपूर्ति समूह के सदस्य देशों से परमाणु प्रौद्योगिकी एवं ईधन का व्यापार करने की छूट चाह रहा है। यदि यह समझौता स्वीकृत हो जाता है तो भारत को औपचारिक रूप से अद्योषित परमाणु शस्त्र सम्पन्न राष्ट्र का दर्जा मिल जाएगा। लेकिन इससे दुनिया के परमाणु निशस्त्रीकरण अभियान को बड़ा धक्का पहुंचेगा.
इसके अलावा भारत जैसा बड़ा बाजार मिलना अमरीका के लिए सोने में सुहागा हो गया है. भारत-अमरीका परमाणु समझौते से अमरीका का मृतप्राय परमाणु ऊर्जा उद्योग पुनर्जीवित हो जाएगा. इसके अलावा उपभोक्ता वस्तुओं, शीतल पेय एवं बोलतबंद पानी, कृषि, सेवा क्षेत्र, बीमा, मीडिया, खुदरा व्यापार, आदि विभिन्न क्षेत्रों में अमरीकी कम्पनियाँ या तो भारतीय बाजार में घुसपैठ कर चुकी हैं या करने की तैयारी में हैं.
चूंकि अब हम अमरीका के सामरिक एवं राजनीतिक सहयोगी की भूमिका में हैं, हमारे लिए यदि ये कम्पनियाँ भारतीय जनता के हितों के विरूध्द कोई कार्य करती है तो उनके खिलाफ कोई कार्यवाही करना आसान न होगा. आज कोका कोला एवं पेप्सी के खिलाफ भू-गर्भ जल दोहन से लेकर जल एवं मृदा प्रदूषण के तमाम सबूत होने के बावजूद हम इन कम्पनियों के देश के अंदर स्थित संयंत्रों को नहीं बंद करा सकते. आज भारतीय राजनीति की मुख्यधारा का हरेक दल अमरीकी सरकार एवं बहुराष्ट्रीय कम्पनियों का दबाव महसूस कर रहा है.अमरीका ने हमारी राजनीति व विदेश नीति का प्रभावित करना शुरू कर दिया है. अंतर्राष्ट्रीय परमाणु ऊर्जा एजेन्सी की बैठक में भारत पर दबाव डाल कर ईरान के खिलाफ मत डलवाया गया. भारत व अमरीका की बढ़ती नजदीकी से भारत व चीन के बीच भी तनाव बढ़ा है. ऐसा प्रतीत होता है कि हमारे प्रधानमंत्री भारत की जनता की अपेक्षा जार्ज बुश के प्रति अपने आप को ज्यादा जवाबदेह मानते हैं. इसलिए देश के सामने तमाम गभ्भीर समस्याओं जैसे मंहगाई, गरीबी, किसानों की आत्महत्या, बेरोजगारी, भ्रष्टाचार, आदि को छोड़कर पूरे देश का ध्यान परमाणु समझौते पर केन्द्रित कर दिया है. भारत की जनता ने पिछले लोकसभा चुनाव में दिखा दिया है कि यदि कोई राजनीतिक दल देश की जनता से जुड़े असली मुद्दों को छोड़कर 'चमकते भारत' जैसी सतही अवधारणा के आधार पर चुनाव जीतना चाहेगा तो उसे मुँह की खानी पड़ेगी. लगता है आने वाले चुनाव में कांग्रेस पार्टी को भारत-अमरीका परमाणु समझौता ले डूबेगा.