भारत डोगरा
छब्बीस जुलाई को अहमदाबाद में हुए आतंकवादी हमले के बारे में एक संभावना यह व्यक्त की गई है कि इस हमले की योजना बनाते समय आतंकवादी एक फिल्म की कहानी से प्रभावित हुए थे। इस संदर्भ में बॉलीवुड के जाने-माने फिल्म निर्माता राम गोपाल वर्मा द्वारा निर्देशित फिल्म ‘कांट्रेक्ट’ चर्चा का विषय बनी है। यह फिल्म हाल ही में रिलीज हुई है। राम गोपाल वर्मा हिंसा व अपराध की पृष्ठभूमि पर बनी फिल्मों के लिए विशेष तौर पर चर्चित रहे हैं जैसे कि ‘कंपनी’। इस फिल्म के बारे में कहा गया था कि यह एक कुख्यात अपराधी के जीवन पर आधारित है जिसका नाम बाद में आतंकवादी हमलों से भी जुड़ा। लेकिन अब ‘कांट्रैक्ट’ फिल्म के बारे में तो यह कहा जा रहा है कि इस फिल्म ने आतंकवादियों को प्रभावित कर दिया। इस फिल्म में खलनायक पहले अपेक्षाकृत छोटे विस्फोट की योजना बनाता है और फिर जब लोग अस्पताल में एकत्र होते हैं तो बड़े विस्फोट की। कुछ इसी तरह का बहुत निंदनीय व क्रूर आतंकवादी हमला अहमदाबाद में भी देखा गया।‘कांट्रेक्ट’ फिल्म की एक अभिनेत्री ने टाइम्स ऑफ इंडिया के संवाददाता को बताया कि अहमदाबाद के हादसे के बाद इस फिल्म के विभिन्न सहयोगी आपस में बातचीत कर रहे थे कि यह हादसा तो फिल्म से मिलता-जुलता है। कुछ समय पहले बॉलीवुड की फिल्म ‘धूम’ के बारे में कहा गया था कि डकैती की कुछ घटनाएं इससे प्रभावित हुईं। हैदराबाद डायमंड डकैती केस में एक गैंग लीडर ने स्वीकार किया था कि उसे ‘धूम’ से आइडिया मिला। एक अन्य बॉलीवुड फिल्म ‘जिस्म’ के बारे में कहा गया था कि दिल्ली में एक हत्या इससे प्रभावित हुई।आज के समाज पर असर डालने में सिनेमा तथा टीवी की बहुत असरदार भूमिका है, अत: यह बार-बार कहा जाता है कि हिंसा व अपराध की वारदातें सिनेमा व टीवी पर दिखाते हुए बहुत सावधानी बरतने की जरूरत है। विशेषकर अपराध करने के तौर-तरीकों को बहुत विस्तार से बताने व हिंसा के नए तौर-तरीकों को आकर्षक ढंग से प्रस्तुत करने से परहेज जरूरी है।
ब्रिटेन में प्रो. एलिजाबेथ न्यूसन की अध्यक्षता में 25 बाल मनोवैज्ञानिकों ने कुछ समय पहले प्रस्तुत अपनी रिपोर्ट में कहा कि टीवी और वीडियो फिल्मों में दिखाई जा रही हिंसा का बच्चों और युवाओं में हिंसक प्रवृत्तियां बढ़ाने की दृष्टि से निश्चित असर पड़ता है। विशेषज्ञों की इस टीम ने इस बारे में खेद प्रकट किया कि टीवी और वीडियो पर जिस तरह की हिंसा और क्रूरता दिखाई जाती है और उसके असर को जिस तरह आधुनिक तकनीकी द्वारा बढ़ाया जाता है उसके संभावित दुष्परिणामों की आ॓र मनोवैज्ञानिकों ने आवश्यक ध्यान नहीं दिया है या उन्हें वास्तविकता से कम कर आंका है।
संयुक्त राज्य अमेरिका में प्रो. सेंटरवेल और उनके सहयोगियों ने अनेक वर्षों के अध्ययन के बाद इस विषय पर जो निष्कर्ष निकाले हैं वे तो और भी चौंकाने वाले हैं। संयुक्त राज्य अमेरिका और कनाडा में 1950 के दशक में और उसके बाद तो टीवी का प्रसार दूर-दूर तक हुआ। इसके अगले दो दशकों में ही इन देशों में हत्याओं की दर लगभग दुगुनी हो गई। अध्ययन में इसके लिए मुख्य रूप से टीवी को दोषी पाया गया। केवल हत्याएं ही नहीं अन्य हिंसक अपराध बढ़ाने में भी टीवी पर दिखाई गई हिंसा को इस अध्ययन ने दोषी पाया।
एक विशेष चिंताजनक खतरा तब उत्पन्न होता है जब कुछ युवक टीवी तथा सिनेमा पर हिंसा व अपराध देखकर उसी तरह के अपराध स्वयं करने की कुचेष्टा करते हैं। कुछ समय पहले प्रकाशित समाचारों के अनुसार फिल्म ‘दिव्य शक्ति’ के असर में कुछ लड़कों ने एक लड़की का अपहरण किया, उसे जबरन शराब पिलाई और उसके शरीर पर कुछ चित्र बनाए।
अंग्रेजी फिल्म ‘बानी एंड क्लाइड’ प्रदर्शित होने के बाद इसी शैली के अनेक अपराधों के समाचार मिले। सेनदियागो में हाईस्कूल के एक छात्र ने टीवी में एक हत्याकांड देखकर अपने ही परिवार के 3 सदस्यों की बहुत क्रूर ढंग से हत्या कर दी, तो इस केस की सुनवाई करने वाले जज ने भी कहा कि संभवत: इस क्रूर अपराध में टीवी-फिल्म की भी जिम्मेदारी थी। एक अमेरिकी टीवी सीरियल में बम बनाने की प्रक्रिया देखने के बाद फ्रांस के एक युवक ने भी बम बनाने का प्रयास किया पर इस कारण हुए विस्फोट में स्वयं मारा गया। इस युवक की मां ने उस टीवी चैनल पर हत्या का आरोप लगाया।
विशेष चिंता की वजह वे टीवी कार्यक्रम या फिल्में हैं जहां अपराध या हत्या करने के तौर-तरीकों को अधिक विस्तार से दिखाया गया। कुछ समय पहले दूरदर्शन पर व्योमकेश बख्शी जासूस का सीरियल दिखाया गया जिसमें कई बार यह विस्तार से दिखाया गया कि दैनिक उपयोग की साधारण वस्तुओं का दुरूपयोग हत्या के हथियार के रूप में कैसे हो सकता है। इस तरह के कई टीवी कार्यक्रमों का निश्चित ही कोई बुरा इरादा नहीं होता है, पर अनजाने में वे अपराध या हत्या का सरल उपाय लोगों में फैला देते हैं जिसके दुष्परिणाम हो सकते हैं। अत: इस बारे में सावधानी बरतने की जरूरत है।
अमेरिकी बच्चों के बारे में कहा गया है कि 16 वर्ष की आयु होने तक औसतन वे टीवी पर 33000 हत्याएं तथा दो लाख हिंसक घटनाएं देख चुके होते हैं। इतनी अधिक हिंसा देखने से आक्रमकता बढ़ती है और हिंसा के प्रति जो स्वाभाविक विरोध मनुष्य में होता है वह कम हो जाता है।
एक समस्या यह भी है कि बॉलीवुड में सफलता का जो तथाकथित फार्मूला प्राय: चर्चा में रहता है, उसमें कुछ समय से अपराध तथा हिंसा को काफी महत्व दिया जा रहा है। टीवी चैनलों की टीआरपी रेटिंग बढ़ाने में भी प्राय: अपराध के सनसनीखेज समाचारों को बहुत महत्वपूर्ण मान लिया गया है। पर कमर्शियल सफलता के फार्मूले की तलाश में यह नहीं भूला जा सकता है कि समाज को सुरक्षित रखने व हिंसा तथा अपराध को कम करने की भूमिका निभाना भी बहुत जरूरी है।
किसी सेंसर का इन्तजार किये बिना स्वयं ही किसी दुष्परिणाम की संभावना को दूर करने के लिए फिल्म व टीवी निर्माताओं को इसके मद्देनजर और सजग हो जाना चाहिए।
www.rashtriyasahara.com से साभार
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