Monday, July 21, 2008

बिके हुए समझौतावादी

विजय बहादुर सिंह
एक ऐसे वक्त में जब लोकतंत्र, बकौल अरुंधति राय राजनेताओं का बिजनेस भर रह गया हो, तब ऐसीठगिनी राजनीति से निपटने के बारे में सोचा जाना चाहिए या फिर अपने करियर के बारे में- यह एक बड़ा सवाल है। जिसे कभी देशप्रेम और देशभक्ति कहते थे, वह जज्बा अब बचा नहीं है।
कुछ लोग तो यही समझने लगे हैं कि देश का मतलब अपना घर, परिवार भर है। ज्यादा से ज्यादा कुल खानदान या फिर नाते-रिश्तेदार। इसकी शुरुआत तभी हो गई थी, जब एक बड़ी राष्ट्रीय पार्टी धीरे-धीरे एक परिवार की राजनीति में सिमटने लगी और बाद में तो यहाँ तक हिमाकत की गई कि पार्टी बॉस को ही देश (राष्ट्र) का पर्याय कह डाला गया।
संतोष की बात यह है कि भारत के लोगों ने इसे नहीं माना। यह बात जो बात तो कम, बकवास अधिक थी, किसी के भी गले नहीं उतरी। हाँ, कुछेक दिनों के लिए वह पार्टी और उसका बॉस जरूर पटिए पर आ गए। यह इस देश के लोगों की राजनीतिक समझ ही थी जिसके आगे एक बड़ी राजनीतिक पार्टी के सबसे निरंकुश नेता को घुटने टेकने पड़े और माफी तक माँगनी पड़ी।
लोगों को भी समझ में आया कि लोकतंत्र लोगों की राजनीतिक सचेतनता और सजगता के बल पर बचता है, न कि उन राजनेताओं के सहारे जो राजनीति को अपना करियर बना चुके हैं। जिस महान (?) लोकतंत्र में राजनीति करने वाली बिरादरी का यह हाल हो, वहाँ लोकतंत्र का चेहरा, चरित्र और उसकी सेहत कैसी होगी, इसकी थोड़ी-बहुत कल्पना वे लोग तो कर ही सकते हैं, जो खुद को पढ़ा-लिखा और पेशेवर बुद्धिजीवी तबके से आया हुआ समझते हैं।
किंतु यह सब सोचना और ऐसी बातों में सिर खपाना उनका कन्सर्न नहीं बचा। राजनेता की राजनीति जैसे उसके अपने बीवी-बच्चों या घर-परिवार तक सिमट गई, वैसे ही कथित तौर पर पढ़े-लिखे बुद्धिजीवी तबकों की बुद्धि अपने निहायत घटिया स्वार्थों तक। इसलिए इन दोनों के बीच एक अलिखित समझौता-सा हो चुका है।
मुठभेड़ और संवाद करने के बजाय अब ये दोनों या तो एक-दूसरे के कुकृत्यों पर आँख मूँदते और चुप्पी साधते हैं या फिर एक-दूसरे की रक्षा और मदद के लिए भीतर ही भीतर सक्रिय हो उठते हैं। चूँकि संसद, विधानसभा और सचिवालय से लेकर पुलिस कोतवाली और एक सीमा तक कचहरियों तक इनका अपना व्यवस्थित नेटवर्क काम कर रहा है।
अपराधियों को बचाने और अपराध छिपाने के लिए कोई खास मशक्कत उन्हें नहीं करनी पड़ती। ऊपर से नीचे और नीचे से ऊपर तक इनके कारगर चैनल बने हुए हैं, जमीन और आसमान यहाँ तक कि हवा और पानी तक इनका इतना असर कायम है कि इस किले को भेदना आसान नहीं रह गया है। स्थिति इतनी खतरनाक हो उठी है कि इनके विरुद्ध उठी हुई उँगली काटी और इनके विरुद्ध उठी आँख निकाली जा सकती है।
सिंगुर और नंदीग्राम तो खैर बड़े उदाहरण हैं, पर छोटे-छोटे उदाहरणों की सूची भी कम नहीं है। जिस लोकतांत्रिक समाज में बुद्धिजीवी और राजनेता एक-दूसरे के स्वार्थों के इतने करीब हों और एक-दूसरे के काले कारनामे को ढँकने और छिपाने में महारत हासिल कर चुके हों, उस समाज में शासित जनसमूहों को अपनी रक्षा के उपाय अपने आप करने पड़ते हैं। पर अब यह इतना आसान काम नहीं रह गया है।
कारण यह कि बड़ी-बड़ी विदेशी कंपनियाँ और उनकी तर्ज पर विश्व विजयी देशी पूँजीपति विकास का ताजा से ताजा मुहावरा लेकर हमारे बीच आ खड़े हैं और जो बिकने लायक हैं उनको खरीद रहे हैं, जो बिकने में आनाकानी कर रहे हैं, उन्हें सत्ता के सहारे अपने रास्तों से हटाकर अपना विजय रथ वे निर्ममता से हाँककर आगे ले जा रहे हैं।
मजेदार बात फिर भी यह कि तब भी मंगल पांडे, झाँसी की रानी, बहादुरशाह जफर, झलकारी बाई, यहाँ तक कि तिलक, गाँधी, नेताजी सुभाषचन्द्र बोस और भगतसिंह की जयंतियाँ मनाई जा रही हैं, उन्हें याद करने (रखने का नहीं) का स्वाँग किया जा रहा है।
1857 के जज्बे को करोड़ों रुपए खर्च कर जगह-जगह याद किया जा रहा है और याद करने वाले यही लोग हैं, जिनका जिक्र ऊपर बहुत चिंता और अफसोस के साथ किया गया है। कितने दुःख और शर्म की बात है कि अब हमारी महान राष्ट्रीय स्मृतियाँ भी दगाबाज राजनेताओं और उनके साथ मौसेरापन निभाने वाले बुद्धिजीवियों के बीच का एक कर्मकांड भर बची रह गई हैं।
यह कैसा वक्त है कि मंगल पांडे के खेतिहर वंशजों से उनकी पुश्तैनी जमीनें जबरन छीनी जा रही हैं। उन्हें उनके पुश्तैनी हकों से वंचित और बेदखल किया जा रहा है। दूसरी तरफ 1857 को एक महा समारोह की तरह करोड़ों-करोड़ खर्च कर याद किया जा रहा है। कहीं यह देश धूर्त और मक्कार किस्म के लोगों के हाथ तो नहीं पड़ गया है, जो इसे नए सिरे से बेच डालने की तैयारी में जुटे हुए हैं?
इसे समझना अब कोई ऐसी मुश्किल बात भी नहीं है। पिछले पन्द्रह-बीस सालों का इतिहास उठाकर देखें तो पता चल जाएगा कि भारत में जो विकास की नई अर्थनीति आई है, वह सबसे पहले उन लोगों को बेदखल करने में लगी है जिनका जीवन यहाँ के पुश्तैनी परंपरागत प्राकृतिक संसाधनों पर निर्भर रहा आया है।
नई अर्थ व्यवस्था का सबसे पहला उद्देश्य इस देश के प्राकृतिक संसाधनों पर कब्जा करके उन्हें अपनी मुट्ठी में लेना है। वह चाहे कोयला हो या कच्चा लोहा, बॉक्साइट हो या उपजाऊ जमीन या फिर मसालों और फलों वाले ऐसे क्षेत्र, जिनसे भारत के लोग हजारों सालों से दुनिया के बाजारों में अपनी साख और पहचान बनाते रहे हैं।
यह भी कम विचारणीय नहीं है कि राजसत्ता धीरे-धीरे लोकसत्ता से ऊपर होती जा रही है। सत्ता की राजनीति ने इस लोक समाज को इतना अधमरा कर डाला है कि वह अपने जनप्रतिनिधियों से सवाल पूछने और उन्हें कटघरे में खड़ा कर पाने का सहज अधिकार और विवेक खो चुका है। ऐसा तो उस जमाने में भी नहीं होता था, जब राजतंत्र था। तब इस देश के लोग ऐसे कैसे हो गए?
फिर भी एक सिरफिरे की तरह यह पूछने का मन करता है कि इस देश में विकास की नई अर्थनीति के तहत जब किसान नहीं बचेगा, उनके खेत नहीं बचेंगे, कारीगरी और तरह-तरह के हुनर नहीं बचेंगे, अपनी प्रतिभा और मेहनत के बल पर जीने और मरने वाले लोग नहीं बचेंगे, तब देश भी कैसे बचेगा?तब क्या उन लोगों के भरोसे बचेगा, जिनकी जेबें नोटों की गड्डियों से भरी होंगी और बाजार अटे पड़े होंगे चीन और अमेरिका या जापान और फ्रांस के सामानों से। हमारे जूते भी बाहर से आएँगे और गेहूँ भी। तब चाहे हम दिल्ली, मुंबई में रहें, चाहे शिकागो या पेरिस में, देश का हमारे लिए क्या अर्थ बचेगा?भारतीय राजनीति में अब चाहे दक्षिण हो या वाम या फिर मध्य मार्ग के लोग, सभी ने 'सेज' को मंजूर कर लिया है। उनके दिमाग में अब दूसरा कोई विकल्प बचा ही नहीं है। बिके हुए समझौतावादी बुद्धिजीवियों के लिए करियर बनाने के सुनहरे अवसरों की भीड़ सामने है। देश के सामने है एक और महागुलामी। क्या यह सबसे बड़ा सच नहीं है?
(लेखक वरिष्ठ साहित्यकार हैं।)
http://www.webdunia.com/ से साभार

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