Wednesday, July 30, 2008

जनांदोलनों की दरकती जमीन

विभांशु दिव्याल
‘जनांदोलन’ एक बहुत ही भ्रामक, लचीला और बहुमुहां शब्द है जिसके हजार संदर्भों में हजार अर्थ निकाले जा सकते हैं और हजार व्याख्याएं की जा सकती हैं। इसलिए पहले चरण में ही यह समझ बनानी जरूरी है कि भारतीय लोकतंत्र और वर्तमान भारतीय सामाजिक- आर्थिक परिस्थितियों की पृष्ठभूमि में जनांदोलन से हम क्या व्यावहारिक अर्थ निकालना चाहते हैं या इस शब्द को हम क्या अर्थवत्ता देना चाहते हैं। इसे स्पष्टता से समझने के लिए हाल ही के कुछ उन आंदोलनों का उल्लेख किया जा सकता है जिनमें भारी संख्या में जनसमूह शामिल थे और जिनके कारण देश के कई हिस्सों में स्थानिक तौर पर सार्वजनिक जीवन अस्त-व्यस्त और त्रस्त रहा। अमरनाथ बोर्ड जमीन मामले में कश्मीर घाटी के मुसलमान तब तक जन-जीवन को ठप किये रहे जब तक कि अमरनाथ बोर्ड को दी गई भूमि का सरकारी आदेश निरस्त न कर दिया गया। इसके विरोध में जम्मू के हिदू संगठन लंबे समय तक आक्रामक आंदोलन चलाते रहे और देश के अनेक हिस्सों में उग्र प्रदर्शन हुए। इससे पहले अनुसूचित जाति में आरक्षित होने के लिए गुर्जरों ने उग्र आक्रामक और परिवहन जाम कर देने वाला जातीय आंदोलन कई दिनों तक चलाया और उत्तार भारत के लोगों को यातायात व्यवस्था भंग हो जाने के कारण पचासियों तरह के कष्ट झेलने पड़े। इससे पहले एक आंदोलन तसलीमा नसरीन के विरूद्ध हुआ था जिसके दबाव में बांग्लादेश की इस निर्वासित लेखिका को मार्क्सवादी पश्चिम बंगाल की राजधानी कोलकाता से एक बार फिर से निष्कासन झेलना पड़ा। एक और आंदोलन सिखों का था जो उन्होंने एक दूसरे मत के संस्थापक बाबा राम रहीम के विरूद्ध कई दिनों तक चलाया था और अब भी यह एक छोटे से उकसावे पर फूट पड़ता है। ऐसे और इसी तरह के मिलते-जुलते आंदोलन किसी न किसी बहाने से देश में होते ही रहते हैं। इनमें जनता की भागीदारी अपनी-अपनी कल्पित अस्मिताओं, हितों के लिए अथवा अपनी उपेक्षा, अपने अपमान या अपने किसी आहत बोध के प्रतिकार के लिए होते हैं। लेकिन क्या ये आंदोलन जनांदोलन है?


अगर इस तरह के आंदोलनों को हम जनांदोलन मान लेंगे तो एक अर्थगत संकट खड़ा हो जाएगा। इन और ऐसे आंदोलनों की उभार या निर्माण प्रक्रिया को देखें तो इनके पीछे दूसरे वर्ग- समूह, धर्म-समूह या जाति-समूह के प्रति नफरत और तिरस्कार का भाव निहित रहता है। इनकी सामाजिक ष्टि क्षुद्र और स्वार्थ केंद्रित होती है। इनकी पहुंच किसी धर्म विशेष, किसी जाति विशेष या किसी क्षेत्र विशेष तक होती है। लोकतांत्रिक आजादी के नाम पर किए गए ये आंदोलन वस्तुत: सामाजिक विग्रह को बढ़ाते हैं, लोकतंत्र का संस्थानात्मक क्षय करते हैं और अपनी परिणति में जनविरोधी होते हैं। ये आंदोलन जो अधिकतर किसी जाति या धर्म-समूह के भावनात्मक दोहन पर आधारित होते हैं, अधिक-से-अधिक जन उभार, जन उत्तोजन या जन विचलन कहे जा सकते हैं लेकिन जनांदोलन नहीं।


इस अर्थ में जनांदोलन उन्हें कहा जा सकता है जो सामान्य जनता के व्यापक हितों पर केंद्रित हों, जड़तावादी और विघटनकारी संकुचित जीवन मूल्यों के विरूद्ध समन्वयवादी, समतावादी, न्यायवादी और बहुजन नागर समाज के सामाजिक, आर्थिक , सांस्कृतिक उत्थान पर केंद्रित हों। यानी जो आर्थिक असमानता के विरूद्ध हों, जातीय दुराग्रहों के विरूद्ध हों, सांप्रदायिक श्रेष्ठताबोध के विरूद्ध हों और लोकतांत्रिक समाज को किसी भी तरह से क्षति पहुंचाने वाली स्थापित परंपराओं और उनके औचित्यीकरण के विरूद्ध हों। मतलब साफ है कि इस समय इस तरह के आंदोलन लगभग अनुपस्थित हैं। जो आंदोलन इस समय होते और चलते दिखाई देते हैं और जो प्राय: मीडिया को अपनी आ॓र खींचते रहते हैं वे वस्तुत: जनविरोधी आंदोलन हैं, जानंदोलन नहीं। अब अगर जनांदोलन नहीं उभर रहे हैं तथा जन विक्षोभ और जन असंतोष अन्यान्य तेवरों और बहानों के साथ उभर रहे हैं तो यह समूचे भारतीय लोकतंत्र के लिए एक चिता की बात है।


यहां यह कहना भी जरूरी है कि जनांदोलन जहां एक आ॓र पुरानी मूल्य व्यवस्थाओं को चुनौती देते हैं तो नई मूल्य व्यवस्थाओं का निर्माण भी करते हैं। जनांदोलनों द्वारा संचालित ध्वंस और निर्माण की प्रक्रिया एक सतत प्रक्रिया है जो नियमबद्ध और अनुशासित तरीके से संचालित होती है। यह प्रक्रिया वृहद् समाज के हित में निश्चित लक्ष्यों के लिए होती है। यह आवेश का निरंकुश तथा नियंत्रणविहीन विस्फोट नहीं होता, बल्कि व्यापक जन अपेक्षाओं की पूर्ति के लिए और व्यापक जन असंतोषों के निराकरण के लिए सुनिश्चित रणनीति के तहत अमानवीय जड़ताओं के विरूद्ध सतत जनसंघर्ष होता है। ऐसा जनसंघर्ष जिसमे संकुचित स्वाथा तथा क्षुद्र हितों के लिए कोई जगह नहीं होती।


कहने की जरूरत नहीं है कि इस समय का भारत लगभग जनांदोलनविहीन भारत है, जिसमें र्आिथक वैषम्य, राजनीतिक कदाचार, सर्व स्तरीय भ्रष्टाचार, क्षुद्र अस्मिताओं के अभद्र दुराग्रह सांप्रदायिक शक्तियों के ध्रुवीकरण, जातियों के टकराव, व्यावसायिक विचलन, सांस्कृतिक अवमूल्यन, सामाजिक संबंधों के बिखराव, पर्यावरणीय संकट आदि निरंतर बढ़ रहे हैं। भारत को अब वास्तविक जनांदोलनों की जरूरत है जो इन सारी दुष्प्रवृत्तिायों विरूद्ध देश की व्व्व राष्ट्रीयसहारा कॉम जनता के वास्तविक हितों को समाहित कर सकें तथा इन हितों पर दावेदारी करने वाले दलालों, ठगों, बेईमानों और अपने-अपने समूहों के मतांध ठेकेदारों को समाज की मुख्यधारा से निर्वासित कर अतीत के कूड़ेदान में फेंक सकें। जनांदोलन इस समय के भारत की एक अनिवार्य मांग हैं और उम्मीद की जानी चाहिए कि भारतीय जनता इस दिशा में सचेत होकर सोचेगी।


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