सुभाष गाताडे
दिल्ली विश्वविघालय के समाजविज्ञान विभाग की प्रोफेसर सुश्री अमिता बाविसकर पर्यावरण आंदोलन से लंबे समय से जुड़ी रही हैं। उन्होंने नर्मदा आंदोलन पर बहुत कुछ लिखा है। अपनी हालिया किताब के एक हिस्से में उन्होंने मध्य प्रदेश के निमाड़ इलाके में आंदोलन का मजबूत आधार रहे पाटीदार समुदाय (जो राजनीतिक तौर पर ताकतवर है व आर्थिक तौर पर समृद्ध है) के बहाने आंदोलन के सामने खड़े द्वंद्वों की चर्चा की है।उनके मुताबिक निमाड़ के पाटीदार भूस्वामी जो दैनिक आधार पर मजदूरों को रखते हैं, उन्हें हर दिन 12 से 15 रूपए प्रतिदिन की मजदूरी देते हैं जबकि कानूनी न्यूनतम मजदूरी 25 रूपए है। उनके मुताबिक कुछ साल पहले जब एक जागरूक सब- डिवीजनल मैजिस्ट्रेट ने न्यूनतम मजदूरी लागू करने के लिए कोशिशें तेज की तो नर्मदा आंदोलन की रैलियों में अपनी ताकत का अहसास करानेवाले इन्हीं पाटीदारों ने ‘आंदोलन के दौरान हासिल सांगठनिक कुशलताओं का इस्तेमाल करके इस अफसर का तबादला करवा दिया।’ उनका यह भी कहना था कि भूमिहीन मजदूर जो ‘कडमाल जैसे गांवों में आबादी का 40 फीसद हैं, जो मुख्यत: अनुसूचित जाति और जनजातियों से संबद्ध हैं, वे नर्मदा आंदोलन के प्रदर्शनों से और स्थानीय स्तर पर एनबीए कार्यकर्ताओं के बीच लगभग अनुपस्थित दिखते हैं।
’नर्मदा बचाआ॓ आंदोलन जैसे आंदोलन के बारे में आंदोलन की सहयात्री अमिता बाविसकर ऐसे कई अन्य सवालों को उठाती हंै, जिनमें यह स्वर भी उठता प्रतीत होता है कि विस्थापन को लेकर उठे इस आंदोलन में दलित के लिए वाकई कोई जगह है या नहीं। इसे बताने के लिए किसी अध्येता की आवश्यकता नहीं कि नर्मदा आंदोलन के कर्णधारों ने अपने इन पाटीदार समर्थकों पर (जो न्यूनतम मजदूरी देने जैसे संविधानप्रदत्त कर्तव्य को भी पूरा नहीं करते)अंकुश लगाने के लिए कोई कदम उठाया होगा।
ऐसी बात नहीं है कि ऐसे प्रश्न पहली दफा उठे हैं जो आंदोलन के बारे में जनमानस में व्याप्त छवि को अवश्य थोड़ा असहज बनाते हैं। अक्सर होता यही रहा है कि आंदोलन की पक्षधरता का प्रश्न इतनी बड़ी अहमियत हासिल करता रहा है कि सहयात्रियों द्वारा उठाए सवालों को भी एक तरह से उनके खेमा बदलने के तौर पर समझा जाता रहा है और वहीं खारिज किया जाता रहा है।
अगर 90 का दशक बड़ी परियोजनाओं से निर्मित विस्थापन के खिलाफ उठे जनांदोलनों को लेकर चर्चित रहा है, तो 21 वीं सदी की पहली इकाई का उत्तरार्द्ध विशेष आर्थिक क्षेत्र के निर्माण, विशेषकर कारपोरेट समूहों को लिये औने-पौने दाम उपलब्ध की जाती रही जमीन के मसले पर उठती जन हलचलों के इर्द-गिर्द केंद्रित होता दिखा है। आजादी के साठ साल बाद भी इस देश में भूमि सुधार के मसले को लेकर कभी तत्पर न दिखीं विभिन्न सत्ताधारी पार्टियों द्वारा कारपोरेट समूहों को जमीनें उपलब्ध कराने को लेकर दिखायी जा रही अतितत्परता निश्चित ही चौकाने वाली रही है। लेकिन आप देखेंगे कि सेज विरोधी आंदोलन दो किस्म की विसंगतियों, खामियों का शिकार रहा है। जहां सारी लडा़ई का फोकस जमीन देने या न देने पर या उसके बेहतर दाम हासिल करने पर केंद्रित रहा है, वहीं उन आर्थिक नियमों को प्रश्नांकित नहीं किया जा रहा है कि किस तरह ऐसे क्षेत्र मुल्क विशेष में मजदूरों के अधिकारों की सुरक्षा करनेवाले, कर, व्यापार, उत्पादन-शुल्क आदि को लेकर बने निश्चित कानूनों के तमाम ‘बंधनों’ से मुक्ति के क्षेत्र होंगे। दूसरे यह प्रश्न भी नहीं पूछा जा रहा कि इलाका विशेष में रहनेवाले उन लोगों के पुनर्वास का क्या होगा जो मेहनत मजदूरी करके खाते-कमाते रहे हैं, जिनके पास जमीन का एक टुकडा़ भी नहीं रहा है। पिछले दिनों एक अखबार ने हरियाणा में एक ऐसे ही विशेष आर्थिक क्षेत्र पर स्टोरी की थी और उजागर किया था कि एक तरफ जहां सेज निर्माण के बाद मिले मुआवजे से जमीन के मालिकानों अपनी ऊंची-ऊंची हवेलियां बनवायीं और गाड़ियां खरीदीं, वहीं दूसरी तरफ वहां के भूमिहीनों को, जो मुख्यत: दलित थे, जो सदियों से वहीं रहते आए थे, उन्हें बिल्कुल खदेड़ दिया गया।
यह सही है कि जनता के विशष्टि मुद्दों पर खड़े जनांदोलनों का अपना गति विज्ञान होता है और वह काफी हद तक आंदोलन के सहभागी तत्वों की सामाजिक-सांस्कृतिक स्थिति और नेतृत्व के दृष्टिकोण से तय होता है। अगर आंदोलन को अधिकाधिक व्यापक बनाना है तो लोगों की सहभागिता जरूरी होती है। ऐसे में नेतृत्व अगर बेहद सचेत न हों तो कई बार लोक संस्कृति व परंपरा की दुहाई देते हुए ऐसे प्रतीकों को, आंदोलन के ऐसे रूपों को अपनाया जाता है, जो जनता के एक हिस्से को अलगाव में डाल सकते हैं। मध्य प्रदेश में जनांदोलनों से लंबे समय से जुडे़ योगेश दीवान ने नर्मदा आंदोलन में इस्तेमाल प्रतीकों पर काफी कुछ लिखा है। उनका कहना है कि आंदोलन के दौरान नर्मदा मैया की आरती उतारना एक चर्चित मामला है।
अभी पिछले साल जब भोपाल में आंदोलन का लंबा धरना चला था, वहां पर भी मंच पर नर्मदा मैया की आरती उतारी गयी जबकि धरने में न केवल अल्पसंख्यक समुदाय के लोग बल्कि दलित-आदिवासी सभी शामिल थे। उनके मुताबिक आरती उतारने जैसा रूप जो वर्ण समाज में अधिक प्रचलित है हिंदू संस्कृति से बहिष्कृत रखे गए दलितों-आदिवासियों को या अल्पसंख्यक समुदाय के लिए आंदोलन से एकाकार होने में बाधा नहीं बनता होगा ? इस संदर्भ में वह आंदोलन के सेक्युलर रूपों को अपनाने पर जोर देते हैं।
विडंबना यही कही जाएगी कि उच्च-नीच अनुक्रम पर टिके भारतीय समाज में दलितों के अपने आंदोलन भी कहीं न कहीं उन्हीं तरीकों का अनुकरण करते दिखते हैं जिसे वर्ण समाज के कर्णधारों ने प्रचलित किया हो। प्रख्यात समाजशास्त्री एम एन श्रीनिवास इस प्रक्रिया को ‘संस्कृतिकरण या संस्कृताइजेशन’ के तौर पर संबोधित करते हैं। दो साल पहले हरियाणा के हिसार में अनुसूचित जाति व जनजातियों से संबद्ध कर्मचारियों के एक फेडरेशन द्वारा आयोजित संगोष्ठी में इसका गहराई से एहसास हुआ। सभा की शुरूआत में फेडरेशन के चर्चित नेता ने महात्मा बुद्ध के नाम वंदना करने का निर्देश दिया और वहां जुटे जनसमुदाय ने नेता की बात का सम्मान करते हुए बौद्धवंदना की। कुछ समय तक मुझे लगा कि रेल विभाग के कर्मचारियों की सभा में मैं बैठा हूं या किसी धार्मिक आयोजन का हिस्सा हूं।
www.rashtriyasahara.com से साभार
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