Tuesday, July 15, 2008

वामपंथी दलों का आत्मघाती कदम

राजकिशोर
भारत के वामपंथी दल अपने आपको सबसे बुद्धिमान समझते हैं। लेकिन संप्रग सरकार से समर्थन वापस लेकर उन्होंने न केवल भारतीय राजनीति को एक कदम पीछे कर दिया है, बल्कि अपने भविष्य पर भी प्रश्नचिह्न लगा लिया है। जो दल पश्चिम बंगाल और केरल में गठबंधन की राजनीति सफलतापूर्वक चलाते रहे हैं, उन्होंने केंद्र के गठबंधन को एक ऐसी ठोकर मारी है जिससे बहुत कुछ तहस-नहस होगा। लेकिन वाम दलों को इसकी फिक्र शायद इसलिए नहीं है कि राष्ट्रीय राजनीति में उनकी कोई महत्वाकांक्षा नहीं है और न ही वे कोई महत्वाकांक्षा पालना चाहते हैं। शायद वे अपनी क्षेत्रीय हैसियत से ही खुश हैं। लेकिन यह क्षेत्रीय हैसियत भी तभी बरकरार रह पाएगी जब वे अपनी राजनीति को गत्यात्मक बनाएं और व्यावहारिक राजनीति की चुनौतियों को समझने की कोशिश करें।वामपंथ अपनी सैद्धांतिक प्रतिबद्धताओं पर कुछ ज्यादा ही मुग्ध है।
आजकल राजनीति में सिद्धांतवादिता जिस तरह घटती जा रही है या कहिए विलुप्त हो रही है, उसे देखते हुए इस घटना पर खुश हुआ जा सकता है कि चलो, कोई तो राजनीतिक समूह है जो अपनी मान्यताओं पर अडिग है। लेकिन सिर्फ एक मान्यता पर इतना बल देना कि उसके परिणामस्वरूप केंद्र सरकार संकट में पड़ जाए और बाकी मान्यताओं को भूल जाना सिद्धांत प्रेम नहीं, महज हठ है- एक ऐसा हठ, जिसका कोई रचनात्मक पहलू नहीं है। मनमोहन सिह जिस तरह परमाणु करार पर अड़े हुए थे, उसे महसूस करते हुए भी वाम दलों द्वारा अपनी जिद पर अड़े रहना बताता है कि वे अपनी नाक कटा कर भी इतिहास में अपनी जगह बनाना चाहते हैं। राजनीति का मामला इतना किताबी नहीं होता। खासकर उस समय जब देश एक भारी संक्रमण से गुजर रहा हो।
दरअसल, संयुक्त प्रगतिशील गठबंधन में वामपंथी जिस तरह शामिल हुए, वह एक समस्यामूलक घटना थी। इस गठबंधन का तात्पर्य क्या था? सभी का मानना है कि यह गठबंधन सांप्रदायिक शक्तियों को सत्ता में न आने देने और उनकी स्थिति कमजोर करने के लिए बनाया गया था। लेकिन सिर्फ कुछ धर्मनिरपेक्ष दलों के निकट आ जाने से यह उद्देश्य सिद्ध होनेवाला नहीं है, यह बात जिसे मालूम न हो, उसे राजनीति से बाहर हो जाना चाहिए। धर्मनिरपेक्षता बनाम सांप्रदायिकता एक बड़ी बहस है, लेकिन यह बहस इस व्यापक बहस का हिस्सा है कि देश को किस तरह चलाया जाए। भाजपा के गठबंधन ने देश को जिस तरह चलाया, उससे लोगों को संतोष नहीं हुआ। इसीलिए भाजपा की सीटें कम हुईं, न कि इस कारण कि भाजपा ने सत्ताा में जाने के बाद भी अपना सांप्रदायिक नजरिया नहीं छोड़ा। गुजरात में नरेंद्र मोदी के मुख्यमंत्री बनने के बाद सांप्रदायिकता बढ़ी है, लेकिन इससे नरेंद्र मोदी की लोकप्रियता में कोई कमी नहीं आई। इसका एक बड़ा कारण लोगों का यह महसूस करना है कि गुजरात का प्रशासन सुधर रहा है और सरकार विकास को बढ़ावा देने के लिए जरूरी और उपयुक्त कदम उठा रही है। वामपंथियों की मौजूदगी से केंद्र सरकार की छवि भी कुछ इस तरह की बनती, तो संप्रग के गठबंधन में उनके होने का सार्थक और प्रगतिशील मतलब निकलता। वामपंथियों को पता था कि गठबंधन में उनकी ऐसी हैसियत नहीं है। वे अपनी यह हैसियत बनाना भी नहीं चाहते थे। इसके बावजूद समय-समय पर वे ऐसे आग्रह करते रहे जिनसे लगता था कि मनमोहन सिह की सरकार उनकी बंदी है। यह ब्लैकमेल था, कोई स्वस्थ राजनीति नहीं।
वाम दलों के सामने दो ही विकल्प थे। एक विकल्प यह था कि वे संप्रग में शामिल होने के बाद उसे अपनी सैद्धांतिक जमीन की आ॓र मोड़ने की कोशिश करते। गठबंधन सिर्फ़ सत्ता के लिए नहीं, सिद्धांत के लिए भी होना चाहिए। वाम दल इसके लिए तैयार नहीं थे। आज भी वे तैयार नहीं हैं, क्योंकि समर्थन वापस लेने के बाद वे कोई और ज्यादा प्रगतिशील गठबंधन बनाने की कोशिश नहीं करेंगे और न ही वाम दलों के प्रभाव क्षेत्र को राष्ट्रीय स्तर पर ले जाने की मेहनत करेंगे। इसके बजाय वे अपने सुरक्षित बाड़ों में सिमट जाएंगे। अभी तक उनकी बातों को गौर से सुना भी जाता था, क्योंकि वे सरकार का अनौपचारिक अंग थे। अब यह भी नहीं होगा। वाम दलों के सामने दूसरा विकल्प यह था कि वे मनमोहन सिह की सरकार को अपने रास्ते चलने देते और बाहर से उसका समर्थन करते रहते। ऐसी स्थिति में वे यह दावा कर सकते थे कि सरकार की नीतियों से उनका कुछ भी लेना-देना नहीं है और उनका समर्थन तभी तक है जब तक यह सरकार कोई बड़ा जन विरोधी कदम नहीं उठाती। इससे वामपंथियों की नैतिक छवि बनी रहती और कोई यह दावा नहीं कर सकता था कि वे सांप्रदायिक श‡ियों को सत्ताा में आने से रोकने में सहयोग नहीं कर रहे हैं। लेकिन वामपंथियों ने अपने लिए एक ऐसा विकल्प चुना जो इन दोनों विकल्पों का अवसरवादी घालमेल था। इसीलिए उनके मौजूदा फैसले से कोई प्रसा नहीं है।परमाणु करार का मामला एक महत्वपूर्ण मुद्दा है, लेकिन इसका संबंध हमारी परमाणु नीति से ज्यादा और अमेरिका से कम है। अगर हम परमाणु शक्ति के अपने कार्यक्रम को बनाए रखना चाहते हैं, तो अमेरिका या रूस या फ्रांस- यह सवाल गौण हो जाता है। लेकिन वाम दलों ने देश के परमाणु कार्यक्रम पर आपत्ति नहीं की, न उन्हें कोई वास्तविक आपत्ति है। उनकी आपत्ति यह है कि अमेरिका से यह करार क्यों किया जा रहा है। यह अंध अमेरिका-विरोध शीत युद्ध के वर्षों की एक बेजान दुम है। इस दुम को पकड़ कर वैतरणी पार करने की आशा तब और हास्यास्पद हो जाती है जब हम पाते हैं कि वाम दलों ने आर्थिक मोर्चे पर पूरी तरह समझौता कर लिया है और अपने द्वारा शासित राज्यों को उसी दिशा में ले जा रहे हैं जो मनमोहन सिह सरकार की आर्थिक दिशा है। वाम दलों को वास्तविक ग्लानि इस पर होनी चाहिए कि समर्थन वापसी के लिए उन्होंने आर्थिक मोर्चे पर सरकार की विफलताओं को क्यों नहीं चुना। अगर वे ऐसा करते, तो उनकी वामपंथी छवि कुछ उज्ज्वल ही होती। लेकिन समर्थन वापसी के लिए उन्होंने एक ऐसा मुद्दा चुना जिसके प्रति देश की अधिकांश जनता उदासीन है। अमेरिका से परमाणु करार होता है या नहीं, इस सवाल पर कोई उद्वेलित नहीं है। फिर वामपंथी इस कदर उद्वेलित क्यों हुए कि उन्होंने चार वर्ष से ज्यादा का साथ क्यों छोड़ दिया? क्या इसीलिए कि वे अतीत के बंदी और भविष्य की चुनौतियों से लापरवाह हैं? आत्मघात और किसे कहते हैं?
www.rashtriyasahara.com से साभार

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