भारत डोगरा
महंगाई के बारे में सरकारी स्तर पर यह बार-बार कहा गया है कि यह विश्व बाजार में आई तेल व खाघ उत्पादों की कीमत में वृद्धि जैसे बाहरी मुद्दों से अधिक प्रभावित है। यह सच है कि तेल व खाघ उत्पादों की वृद्धि विश्व स्तर हुई है पर इसका अर्थ यह कतई नही है कि महंगाई व उसके दुष्परिणामों को नियंत्रित करना हमारे हाथ में नहीं है। सच्चाई तो यह है कि यदि खाघ ऊर्जा व्यापार व वित्त नीतियों में पहले से सुधार किए जाते तो महंगाई को काफी हद तक रोका जा सकता था। पर सरकार ने दीर्घकालीन अनुचित नीतियां अपनाई और वह काफी देर तक महंगाई के खतरे के प्रति उदासीन रही। इस वर्ष फरवरी में वार्षिक आर्थिक सर्वेक्षण प्रस्तुत करते समय तक महंगाई के खतरे के प्रति सरकार अनभिज्ञ बनी रही और उसने बहुत विश्वास से कहा कि महंगाई के तेज होने की संभावना नहीं है। ध्यान रहे कि इस समय तक विश्व में तेल व खाघ संकट की विकटता स्पष्ट हो चुकी थी। आज जब सरकार महंगाई के लिए बाहरी दबावों को जिम्मेदार बताती है तो यह सवाल उठना स्वाभाविक है कि सरकार इस विषय पर समय पर सचेत क्यों नहीं हुई और उसने जरूरी कदम क्यों नहीं उठाए।महंगाई नियंत्रण को लेकर जिस कठिनाई की या जादू की छड़ी उपलब्ध न होने की बात जो कि प्राय: की जाती है, वह चर्चा केवल अल्पकालीन नीतियों के सन्दर्भ में होने के कारण है। यदि दीर्घकालीन नीतियां सही हैं तो ऐसी कठिनाई नहीं आएंगी क्योंकि बाहर से आने वाले किसी संकट का सामना करने के लिए भी हमारा रक्षा कवच तैयार होगा। हमारे देश ने जो दीर्घकालीन नीतियां सही दिशा में अपनाई हैं, उनका लाभ हमें आज भी मिलता है। हमने अनाज के बफर स्टाक रखने की नीति अपनाई, गोदामों में पर्याप्त अनाज रखा, सार्वजनिक वितरण प्रणाली का विस्तार देश भर में किया, सबसे गरीब परिवारों को विशेष तौर पर अधिक सस्ते अनाज के राशन कार्ड दिए। इन नीतियों का कुछ न कुछ लाभ आज भी मिलता है। यही कारण है कि आज हमारा खाघ संकट उतना विकट नहीं है और खाघ कीमतें उतनी नहीं बढ़ी हैं जितनी कि कई अन्य देशों में।पर दुख की बात यह है कि खाघ सुरक्षा की दिशा में हमारी तैयारी कभी पूरी नहीं हुई। एक मुख्य कमी यह रही है कि खाघ उत्पादन बढ़ाने के खर्चीले तौर-तरीके अपनाए गए। ये तकनीकें टिकाऊ नहीं थीं और इनके निरंतर अधिक महंगे होते जाने की संभावना थी। दूसरी कमी यह बनी रही कि खाघान्न उत्पादन बढ़ाने के प्रयास कुछ विशेष स्थानों पर केन्द्रित रहे। इस तरह एक आ॓र तो खाघान्न उत्पादन महंगा हुआ तथा दूसरी आ॓र इसे कुछ अधिक उत्पादन के स्थानों से देशभर में पहुंचाने का खर्चा बढ़ गया। इस तरह किसान को विशेष लाभ दिए बिना ही खाघान्न की कीमत महंगी होने लगी। पर सरकार ने अरबों रूपए की सब्सिडी देकर यह प्रयास किया कि खाघान्न की कीमत आम लोगों के लिए सहनीय रहे। इस प्रयास में भी तीन कारणों से छेद होने लगे। पहली समस्या तो यह थी कि सरकारी सब्सिडी पर आधारित सार्वजनिक वितरण प्रणाली में भ्रष्टाचार बहुत बढ़ गया और जो लाभ सरकार आम लोगों, विशेषकर सबसे गरीब परिवारों को देना चाहती थी उस लाभ को असरदार लोग हड़पने लगे। दूसरी कठिनाई यह आई कि सरकार पर सब्सिडी कम करने या एक सीमा से आगे न बढ़ने देने का दबाव भी पड़ने लगा। तीसरी समस्या यह हुई कि सरकार की अनुचित नीतियों के कारण अनाज की सरकारी खरीद कम होने लगी और निजी कंपनियों की खरीद बढ़ने लगी। अत: सरकारी गोदामों में अनाज कम होने लगा।हाल के समय में कुछ बहुराष्ट्रीय कंपनियों के खेती में वर्चस्व बढ़ने से बीज, कीटनाशक दवाओं आदि पर खर्च और तेजी से बढ़ा। उधर तेल तथा गैस की कीमत विश्व बाजार में तेजी से बढ़ी तो इनसे उत्पादित रासायनिक खाद, पंपसेट व ट्रैक्टर के लिए जरूरी डीजल का खर्च भी बढ़ा। विश्व स्तर पर बहुत सी खाघ उत्पादन करने वाली भूमि का उपयोग बायोडीजल की फसलों के लिए होने लगा तथा तैयार खाघ फसलों को खाघ के रूप में बेचने के स्थान पर उन्हें बायोडीजल बनाने की फैक्ट्रियों में भेजा जाने लगा। इन मिले-जुले कारणों से अनेक खाघ उत्पादों के बाजार में जबरदस्त तेजी आई। जरूरत इस बात की थी कि सरकार खाघ उत्पादन बढ़ाने के लिए सस्ती व आत्मनिर्भर तकनीकों पर ध्यान केन्द्रित करती व उत्पादन बढ़ाने के प्रयासों को अधिक पिछड़े व गरीब क्षेत्रों में अधिक सशक्त करती। इस तरह एक आ॓र तो खाघ उत्पादन की लागत कम होती, साथ ही खाघ वितरण की लागत भी कम होती। सार्वजनिक वितरण प्रणाली के लिए अधिकांश अनाज स्थानीय स्तर पर ही उचित कीमत पर खरीदा जाता और उसे गरीब परिवारों तक पहुंचाने के कार्य को सरकार व सजग नागरिकों की निगरानी में किया जाता। वैसे तो पूरी सार्वजनिक वितरण प्रणाली में सुधार जरूरी है पर गरीबी की रेखा के नीचे के (बी।पी।एल।) व सबसे निर्धन (अंत्योदय) परिवारों के लिए सार्वजनिक वितरण प्रणाली सुधारना और भी जरूरी है। अनाज की सरकारी खरीद और गोदामों में पर्याप्त भंडार रखने को उच्चतम प्राथमिकता दी जानी चाहिए थी ताकि उसमें कमी की कोई शिकायत उपलब्ध न हो। तिलहन व दलहन में देश को आत्मनिर्भर बनाना निश्चित तौर पर संभव है। इस पर पर्याप्त ध्यान देकर दालों व खाघ तेलों की कीमत वृद्धि को रोका जा सकता था। इस समय भी बहुत देर नहीं हुई है। यदि सरकार उचित प्राथमिकताओं को अपनाए तथा साथ ही मुनाफाखोरों-सट्टेबाजों जैसे तत्त्वों पर कड़ा नियंत्रण रखे तो देश के सभी लोगों के लिए उचित कीमत पर खाघ उपलब्ध करवाना संभव है।इसी तरह तेल के आयात पर अधिक निर्भरता को देखते हुए हमें तेल बचाने वाली नीतियों पर अधिक जोर देना चाहिए था। विकास का ऐसा माडल अपनाना चाहिए था जो तेल की कम खपत करे, उस पर कम आश्रित हो। फिलहाल जो स्थिति है उसके आधार पर तो यही स्वीकार करना होगा कि हम तेल के आयात पर बहुत निर्भर हैं और तेल की कीमतें बहुत तेजी से बढ़ रही हैं। अत: तेल की खपत को कम करने व वैकल्पिक ऊर्जा के स्रोत विकसित करने पर हमें अधिक ध्यान देना चाहिए।महंगाई के बढ़ते दौर में इस आ॓र पहले से भी अधिक ध्यान देने की जरूरत है कि गरीबी उन्मूलन कार्यक्रमों तथा समाज के विभिन्न जरूरतमंद वर्गों को राहत देने वाली परियोजनाओं के क्रियान्वयन को बेहतर किया जाए, विशेषकर गांवों में रोजगार गारंटी योजना में भ्रष्टाचार दूर करने व इसे बेहतर बनाने पर विशेष ध्यान देना जरूरी है ताकि बढ़ती महंगाई के समय में गरीब लोग अपनी बुनियादी जरूरतों को पूरा कर सकें।
www.rashtriyasahara.com से साभार
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