Tuesday, July 1, 2008

मौत की फसल

देविंदर शर्मा
सभा कक्ष में स्तब्धकारी चुप्पी छाई हुई थी. कुछ देर के लिए किसी ने कोई प्रतिक्रिया नहीं व्यक्त की. वे सभी बस मुझे घूरे जा रहे थे. शायद उनमें से ज्यादातर लोगों को मेरी बात पर विश्वास नहीं था. ऐसा लगा कि जैव विविधता वाली फसलों (जीएम क्राप्स) के नाम की कसमें खाने वाले जैव विशेषज्ञ और वैज्ञानिक गलत काम करते हुए पकड़े गए हों.

वास्तव में उन्होंने कभी ऐसा सुना ही नहीं था. जीएम बीज के बिना फसल उगाना और कीटनाशकों के इस्तेमाल के बगैर उससे बंपर पैदावार हासिल करना ऐसी ही बात है, जिस पर वैज्ञानिकों को भरोसा न करना सिखाया जाता है. हाल ही में तिरुअनंतपुरम में राजीव गांधी सेंटर फार बायोटेक्निक द्वारा जीएम फसलों पर आयोजित राष्ट्रीय सम्मेलन में मैंने बताया कि बंपर पैदावार हासिल करने के वैकल्पिक और स्थायी उपाय हैं. देश में लाखों किसान जीएम बीजों और रासायनिक कीटनाशकों के बिना ही छोटी जोतों में भरपूर पैदावार हासिल कर लेते हैं.
यह सुनते ही वैज्ञानिकों ने मुझ पर खेती के रोमानीकरण का आरोप जड़ दिया. जब उन्हें बताया गया कि आंध्र प्रदेश के लगभग प्रत्येक जिले में लाखों किसान 70 लाख हेक्टेयर भूमि पर टिकाऊ खेती व्यवस्था के अनुरूप खेती कर रहे हैं. इस व्यवस्था में घातक कीटों और रोगों पर स्वत: ही नियंत्रण पा लिया जाता है और फसल की पैदावार में कमी भी नहीं आती. इसके बाद जब मैंने कहा कि कीटनाशक रहित प्रबंधन का क्षेत्र एक करोड़ बीस लाख हेक्टेयर हो गया है और दो-तीन साल में बढ़कर दो करोड़ पचास लाख हेक्टेयर हो जाएगा तो जो प्रतिरोध करने की वे तैयारी कर रहे थे, वह फूट पड़ा.

पौध जैवप्रौद्योगिकी केंद्र के निदेशक डा. पी आनंद कुमार ने पहल की. उन्होंने कहा कि अगर मेरी बातें सत्य हैं तो वह जीएम फसल अनुसंधान छोड़कर इन किसानों के साथ काम करेंगे. उन्होंने कहा कि अगर मरीज स्वस्थ हैं तो दवाइयों की कोई जरूरत ही नहीं है. जीएम फसलों को प्रचारित-प्रसारित करने वाली कंपनी मोनसैंटो के बीज अनुसंधान के पूर्व निदेशक डा. टीएम मंजुनाथ ने भी सहमति जताई.

अनेक दूसरे वैज्ञानिक भी स्वस्थ कृषि व्यवस्था को प्रोत्साहित करने के लिए आगे आए. इससे यह स्पष्ट हो जाता है कि जो लोग जीएम फसलों की संभावनाओं की बातें करते हैं, वे इतना भी नहीं जानते कि यही लक्ष्य पर्यावरण को नुकसान पहुंचाए बिना और मानव, पशु तथा पौधों के स्वास्थ्य को बनाए रखते हुए हासिल किया जा सकता है. जो काम जीएम फसल बीमारियां परोस कर करती हैं, वही काम टिकाऊ कृषि व्यवहार अपनाकर न केवल आंध्र प्रदेश के लाखों किसान, बल्कि देश भर के करोड़ों किसान कर रहे हैं. वैज्ञानिक इस कम खर्चीले और पर्यावरण के रक्षक विकल्पों को मान्यता प्रदान क्यों नहीं करते?

आंध्र प्रदेश के खम्मम जिले के रामचंद्रपुरम गांव का उदाहरण सामने है. रासायनिक कीटनाशकों के नियमित प्रयोग या दुरुपयोग के कारण पूरे गांव की समस्त भूमि गिरवी रखनी पड़ी. कुछ साल तक कीटनाशक रहित प्रबंधन अपनाने के बाद गांववासियों ने पूरा ऋण चुकता कर अपनी जमीन छुड़वा ली. दूसरी तरफ जब से भारत में बीटी काटन की शुरुआत हुई तब से तकनीक फीस के नाम पर गरीब किसानों की जेब से बहुराष्ट्रीय कंपनियों ने दस हजार करोड़ रुपये निकाल लिए. कोई आश्चर्य नहीं कि कृषि पर आए संकट ने दानवी रूप धारण कर लिया.

प्रौद्योगिकी मात्र ब्रांडेड उत्पाद के रूप में ही नहीं आती. अगर मोनसैंटो की बीटी काटन प्रौद्योगिकी है तो इसी प्रकार समय की कसौटी पर खरी उतरने वाली परंपरागत प्रौद्योगिकी भी हैं, जिन्हें परिष्कृत करने में किसानों को सैकड़ों-हजारों साल लग गए. वैज्ञानिक सुरक्षित, भरोसेमंद, लाभदायक, टिकाऊ और स्वस्थ प्रौद्योगिकी मुहैया क्यों नहीं कराते? केवल इसलिए कि ये किसी परियोजना के तहत विकसित नहीं की गई और इनका वित्तीय पोषण नहीं हुआ है, पर इसका मतलब यह नहीं कि इनकी अवहेलना कर दी जाए. पहले ही हरित क्रांति प्रौद्योगिकी ने जमीन, भूमिगत जल और पर्यावरण को इस कदर विषैला बना दिया है कि इसकी क्षतिपूर्ति संभव नहीं. आधुनिक विज्ञान पर्यावरण और मानव शरीर को और कितना प्रदूषित करना चाहता है?

इस परिप्रेक्ष्य में जीएम फसल के लिए अनुमति हासिल करने के लिए राष्ट्रीय जैव तकनीक नियामक प्राधिकरण के रूप में एकल खिड़की के जरिए अनापत्ति जारी करने के प्रयास महत्वपूर्ण नजर आते हैं, जिन पर ध्यान देने की जरूरत है. यह पूरी कवायद बायोटेक्नोलाजी कंसोर्टियम द्वारा की गई, जो बायोटेक्नोलाजी उद्योग का एक उपक्रम है. एनबीआरए के साथ विचार-विमर्श के नाम पर जिन्हें आमंत्रित किया जाता है वे मुख्य रूप से उद्योग जगत के लोग होते हैं या पौध जैवविज्ञानियों में से किसी को आमंत्रित किया जाता है. अलग-अलग तरह के दृष्टिकोण को सही ठहराने के लिए कुछ गैर-सरकारी संगठनों और किसानों को भी आमंत्रित कर लिया जाता है.

नि:संदेह इस प्रकार की बातचीत का कोई मतलब नहीं है, क्योंकि इस पूरी कवायद का परिणाम पहले से पता होता है. जीएम फसलों को संस्तुति प्रदान करने वाली तथा उनका नियमन करने वाली सर्वोच्च संस्था जेनेटिक इंजीनियरिंग एप्रूवल कमेटी पहले ही जैव-तकनीक के वैज्ञानिकों से भरी हुई है. जाहिर है, इन स्थितियों में इस समिति की पूरी कवायद एक प्रकार का छलावा ही साबित होती है. जीईएसी वास्तव में जैव तकनीक उद्योग के लिए एक रबर स्टांप की तरह साबित हो रही है. प्रस्तावित एनबीआरए के संदर्भ में इस धारणा को मजबूत होने से रोका नहीं जा सकता कि यह संस्था अनिवार्य रूप से जैव तकनीक उद्योग के लिए, जैव तकनीक उद्योग द्वारा और जैव तकनीक उद्योग की है.

क्या यह विचित्र नहीं कि भारत में मानव समाज द्वारा इस्तेमाल की गई सर्वाधिक खतरनाक तकनीकों में से एक जीएम प्रोद्योगिकी के लिए एकल खिड़की अनुमति की व्यवस्था लागू करने के प्रति इतना अधिक उत्साह और रुचि प्रदर्शित की जा रही है, वहीं दूसरी ओर ऐसी फसलों का मक्का माने जाने वाले अमेरिका में इनके लिए तीन नियामक संस्थाएं गठित की गई हैं? इसके बाद भी वहां नियमन प्रक्रिया की विश्वसनीयता को लेकर सवाल खड़े किए जाते रहते हैं. फिर क्या वजह है कि भारत में जीएम फसलों के लिए इतनी हड़बड़ी दिखाई जा रही है?

एक ऐसे समय में जब विश्व का अधिकांश भाग जीएम फसलों से सुरक्षा को लेकर चिंतित है और तरह-तरह के सवाल खड़े कर रहा है तब क्या यह जरूरी नहीं कि हम इसकी प्रक्रिया लागू करते समय चौकन्ना रहें? मूलभूत प्रश्न अभी भी शेष है. भारतीय वैज्ञानिक टिकाऊ खेती की तकनीकों को क्यों प्रोत्साहित नहीं करते? क्यों वे खतरनाक फसलों के स्थान पर पर्यावरण की दृष्टि से व्यवहारिक कृषि के तौर-तरीकों के साथ सामने नहीं आ रहे?

उत्तर आसान है। पिछले अनेक वर्षो में वे कृषक समुदाय से कट गए हैं. वे उस मूक क्रांति से अपरिचित हैं जो देश के खेतों में प्रवाहित हो रही है. यदि भारत खतरनाक जीएम फसलों के स्थान पर आंध्र प्रदेश के किसानों द्वारा आजमाए जा रहे कीटनाशक रहित कृषि प्रबंधन को प्रोत्साहित करे तो वह बड़ी आसानी से विश्व में टिकाऊ खेती और स्वस्थ जीवन का रोल माडल बनकर उभर सकता है.
www.raviwar.com से साभार

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