तरूण विजय
एक व्यक्ति खेत से ताजा लाए गए खरबूजे को नदी में धोने आया। मिट्टी धोई, साफ किया और नदी से बाहर निकल कर उसे खाने की लालसा लिये घर की आ॓र बढ़ रहा था कि खरबूजा हाथ से फिसल गया। बड़ी कोशिश की उसे नदी की धारा से पकड़ लाने की, पर खरबूजा बह ही गया। मायूस हो उस व्यक्ति ने खरबूजे की क्षति को पूरा करने के लिए एक उपाय किया। घुटनों तक नदी में खड़ा होकर अंजुलि में जल भरकर छोड़ा और कहा- जा, तुझे पितरों को दान दिया।भारत-अमेरिका परमाणु संधि को चुनावी मुद्दा बनाकर सरकार से समर्थन वापस लेने की धमकी के पीछे भारतीय कम्युनिस्टों की भी ऐसी ही मानसिकता है। सरकार में न रहते हुए भी सत्ता का भरपूर सुख लिया। विभिन्न संस्थाओं, संस्थानों और राजकीय दरबार के उच्चासनों पर वामपंथी बिठाए, सुबह मीडियार्थ आलोचना-पर्व किया, शाम को चित्त-सुख के लिए 10 जनपथ पर डिनर पर्व मनाया। सिल्चर, कोलकाता और तिरूअनन्तपुरम में कांग्रेस के विरूद्ध लाल झंडों के साथ प्रदर्शन किये और गर्मी की छुटि्टयां अमेरिका में बिताईं- कुछ इसी आरोह-अवरोह से गुजरते हुए वामपंथियों को ठीक चुनाव के समय अपनी बंधुआ रियाया की याद आई- हे मार्क्स, हे लेनिन इस प्रजा का सर्वहारापन, मूर्खता से आवृत्त होता नहीं, कोलकाता में गर्मी और दिल्ली में वसंत का पाखंड ज्यादा छुपा नहीं रह सकता सो चुनाव के वक्त तो कांग्रेस का विरोध करना ही था, लिहाजा भारत-अमेरिका परमाणु संधि को ही मुद्दा बनाकर सत्ता के छूट रहे खरबूजे को अबूझे सैद्धांतिक पितरों को अर्पित कर दिया।यूपीए सरकार को अपने समर्थन पर टिकाए हुए मार्क्सवादी कम्युनिस्ट पार्टी व भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी ने गत वर्ष यूपीए के साथ एक पन्द्रह सदस्यीय समिति गठित की थी। सरकार के साथ इस समिति की हर वार्ता के बाद कम्युनिस्टों का बयान ‘समय बिताने की कसरत’ के मानिन्द ही रहा। दो वर्ष से जो कम्युनिस्ट परमाणु संधि के हर पहलू के बारे में जानते रहे, वार्ताओं में हिस्सा लेते रहे, उन्हीं कम्युनिस्टों ने कभी भी सरकार द्वारा संधि की दिशा में बढ़ाए जा रहे कदम रोकने के लिए कोई निर्णायक रूख नहीं अपनाया।सितम्बर 2007 की बात है। यूपीए और वामपंथियों की 15 सदस्यीय परमाणु-संधि समीक्षा समिति की दूसरे दौर की बैठक हुई। भाकपा के डी।राजा और माकपा के सीताराम येचुरी ने कहा कि सरकार को अगले छह माह के लिए इस संधि के संदर्भ में सभी वार्ताएं रोक देनी चाहिए। सरकारी पक्ष ने अपनी स्थिति स्पष्ट करते हुए कहा कि भारत-अमेरिका परमाणु संधि के बारे में सरकार निर्णय ले ही चुकी है और अब अगला कदम है अंतरराष्ट्रीय परमाणु ऊर्जा एजेंसी (आई।ए.ई.ए.) की स्वीकृति प्राप्त करने हेतु परमाणु आपूर्ति समूह (न्यूक्लियर सप्लायर्स ग्रुप) के 45 सदस्य राष्ट्रों से बिना शर्त छूट प्राप्त करने हेतु प्रयास की। उसके बाद अमेरिकी संसद इस संधि को अधिकृत तौर पर लागू कर देगी। कम्युनिस्ट नेताओं ने चुप्पी साध ली। उन्होंने उस समय सरकार से समर्थन लेने की बात नहीं की, क्योंकि साल भर का सत्ता सुख अभी बाकी बचा था। अमेरिकी विदेश मंत्री कोंडालिसा राइस और इस संधि के लिए विशेष तौर पर नियुक्त वार्ताकार रिचर्ड स्ट्रैटफोर्ड के स्पष्ट बयान आते रहे जिनमें उन्होंने दिसम्बर 2007 तक संधि को स्वीकार्य तथा लागू करने की समय सीमा घोषित कर दी।सुविज्ञ सरकारी सूत्रों के अनुसार साउथ ब्लाक को वामपंथी दल लगातार इस भ्रम में रखे रहे कि थोड़े बहुत प्रारंभिक विरोध के बाद वे सरकार को संधि पर हस्ताक्षर के लिए कोई रास्ता खोल देंगे। प्रारंभ से ही संधि के हर अनुच्छेद, 123 उपबंध, हाइड एक्ट आदि की संपूर्ण जानकारी वामपंथी नेताओं को दी जाती रही, परंतु उसे वे सहेज कर रखते हुए समय बिताते रहे। इस बीच संधि पर हस्ताक्षर के मामले को हिन्दू-मुस्लिम बनाने की भी कोशिश हुई और मार्क्सवादी नेताओं ने अमेरिका को हिन्दुत्व समर्थक पक्ष से जोड़ते हुए मुसलमानों को हिन्दू-विरोध के पड़ाव से संधि-विरोध में खड़ा करने की कोशिश की। सौभाग्य से एक नितान्त सुरक्षात्मक और तकनीकी विषय का सांप्रदायीकरण आगे नहीं बढ़ा, क्योंकि हिन्दुत्वनिष्ठ संगठनों ने यह दांव खेला नहीं।फिर प्रकाश करात का बयान आया कि यह परमाणु संधि इस भू-राजनीतिक क्षेत्र में चीन के विरूद्ध अमेरिकी स्थिति ज्यादा मजबूत करेगी इसलिए हम इसका विरोध करते हैं। इस बयान पर काफी तीव्र प्रतिक्रियाएं हुईं। वामपंथियों द्वारा परमाणु संधि के विरोध की सारी कलई खुल गई क्योंकि उनका विरोध किसी भारतीय हित के मुद्दे से नहीं जुड़ा था, बल्कि चीन के हितों पर चोट के अंदेशे ने उन्हें संधि के विरोध में खड़ा किया। दूसरी आ॓र भाजपा के संधि विरोध से वे लोग हतप्रभ रह गए जो पार्टी को अमेरिका-समर्थक चित्रित करते आ रहे थे। भाजपा का रूख था कि इस संधि से भारत के सुरक्षा भविष्य पर ताला लगता है, इसलिए एक सम्प्रभु राष्ट्र के नाते यह संधि अस्वीकार्य है। यह ठीक है कि संधि से भारत की ऊर्जा आवश्यकताओं को कुछ हद तक पूरा किया जा सकता था लेकिन उसकी कीमत यह चुकानी पड़ती है कि हमें आवश्यकतानुसार पोखरण-3 का स्वप्न भी छोड़ना पड़ता और सरल संधि के अन्तर्गत परमाणु ईंधन की आपूर्ति हेतु अमेरिकी राष्ट्रपति की स्वीकृति की प्रतीक्षा करनी पड़ती जो वस्तुत: एक स्वाभिमानी राष्ट्र के लिए अपमानजनक होती।वामपंथियों ने भाजपा के इन तर्र्कों का मजाक उड़ाते हुए वस्तुत: स्वयं को एक ऐसे वर्ग में खड़ा कर दिया जो संधि के विरोध को भारत से जोड़ने में नाकामयाब रहा। अब उनकी ‘चुनावी-रणनीति’ है कि वे संधि से मुद्दे पर सरकार से समर्थन वापस लेकर जनता के पास परमाणु करार से होने वाले खतरे का मुद्दा लेकर जाएंगे। यानी कि सिंगूर और नंदीग्राम में टाटा की कार फैक्ट्री के लिए हजारों किसानों को बेदखल करने और ‘जलियांवाला बाग’ जैसा खूनखराबा घटित करने के बाद मार्क्सवादियों की ‘रणनीति’ है कि वे जनता को समझाएंगे कि उन्होंने चीन को अमेरिका के बढ़ते प्रभाव से बचा लिया और परमाणु संधि को नाकामयाब कर दिया इसलिए हमें वोट दो।प.बंगाल इन दिनों अराजकता से जूझ रहा है। दार्जिलिंग में गोरखालैंड आंदोलन के नवीन रूप ने इस साल का पर्यटन तबाह कर दिया। बांकुड़ा, मिदनापुर से लेकर जलपाईगुड़ी तक गरीबी और बदहाली से तंग जनता हिंसा एवं माआ॓वाद की गर्त में गिर रही है। बांग्लादेशी मुस्लिम घुसपैठियों की संख्या में लगातार वृद्धि से बंगाल के नगर संत्रस्त हैं। अब उनके सामने परमाणु संधि का मुद्दा चुनाव में ले जाने का फैसला हास्यास्पद ही कहा जा सकता है।वास्तव में वामपंथियों का किसी न किसी मुद्दे पर केन्द्र सरकार से समर्थन वापस लेना एक चुनावी मजबूरी ही है। अभी तक वे इस आवरण का सहारा लेते रहे कि यदि मध्य-काल में केंद्र सरकार से समर्थन वापस लिया तो भाजपा आ जाएगी, इसलिए सिर्फ भाजपा को रोकने के लिए वे कांग्रेस की गलत नीतियों को अनदेखा करने के लिए ‘मजबूर’ हैं। यह ‘मजबूरी’ वास्तव में ‘सत्ता सुख’ के लिए भी, तब भाजपा एक बहाना बनी तो अब चुनाव के वक्त जनता को अपना कांग्रेस-विरोधी मुखौटा दिखाने के लिए परमाणु संधि का विरोध एक सहारा बना है। इस परिस्थिति में माकपा की राजनीतिक सूझबूझ प्रकट हुई है या चुनावी-अपरिपक्वता, यह तो मतदाता ही बताएंगे। परंतु लगातार ‘भाजपा के सत्ता की आ॓र बढ़ते कदम रोकने’ की ‘मार्क्स प्रदत्त प्रतिबद्धता’ व्यक्त करने वाले कम्युनिस्टों की लाख कोशिशों के बावजूद आज माहौल ऐसा बना है कि भाजपा के प्रबल विरोधी भी उसके सत्ता में लौटने का विश्वास जताने लगे हैं। परमाणु संधि के द्वार पर माकपा का चुनावी-वैराग्य सेकुलर दुविधा और सीमा-पार वफादारी का द्वंद्व ही दर्शाता है, इसमें भारत-हित का तत्व पूर्णत: अनुपस्थित ही रहा है।
http://www.rashtriyasahara.com/ से साभार
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