Wednesday, July 30, 2008

संघर्ष की धाराएं

अनिल चमड़िया
भारत में राजनैतिक आंदोलनों का इतिहास पुराना है। अगर एक-डेढ़ सौ साल के आसपास का इतिहास देखें तो आदिवासी इलाकों में अंग्रेज साम्राज्यवाद के खिलाफ विद्रोह हुए। अंग्रेजों ने अपना साम्राज्य बनाए रखने के लिए जिस निरंकुश नौकरशाही ढांचे को निर्मित किया उसके खिलाफ विद्रोह तेजी से पनपा। उसके बाद ब्रिटिश साम्राज्यवादियों के खिलाफ संघर्षों की लंबी कड़ी शुरू होती है। इसके बाद के भारत में सामंतवाद का विरोध राजनैतिक आंदोलन के केंद्र में खडा़ दिखाई देता है। वह सामंतवाद जो साम्राज्यवादी विचारों और निर्मित होने वाली निरंकुश व्यवस्था की धूरी के रूप में दिखाई देता है। यानी अपने यहां आंदोलन का वास्तविक अर्थ किसी व्यवस्था के आमूलचूल परिवर्तन की अपेक्षा में प्रगट होता रहा है। उसकी मुख्य अंतर्धारा राजनैतिक विकल्प की रही है। लेकिन यह भी देखा जा सकता है कि अंग्रेज साम्राज्यवाद के खिलाफ विद्रोह की पृष्ठभूमि को सिंचने वाला आदिवासी समाज यानी इस समाज का सबसे ज्यादा शोषित, पीड़ित, दमित व्यक्ति तमाम तरह के व्यवस्था विरोधी आंदोलनों के बावजूद अपनी स्थिति से निकल नहीं पाया है। उसे कल भी लूटना जारी था और वह निरंतर आज तक जारी है। आज सबसे ज्यादा ‘जनांदोलन’’ आदिवासी इलाके में ही हो रहे हैं और इलाकों में ही बहुराष्ट्रीय कंपनियों के साथ सबसे ज्यादा एमआ॓यू (मैमोरडम ऑफ अंडरस्टैंडिंग) साइन हो रहे हैं। जनांदोलन भी हो रहे हैं और गांव के गांव उजड़ रहे हैं।
आज जनांदोलन वे सभी तरह के आंदोलन कहलाने लगे हैं जिसमें किसी जाति, धर्म, समुदाय, पेशेवर तबके के किसी मुद्दे या समस्या को लेकर आंदोलन होते हैं। जनांदोलन से वास्तव में जो ध्वनि निकलती है क्या ये स्थितियां उसके अर्थ का विस्तार हंै या फिर उसके संकुचन के उदाहरण हैं ? इस पर बाद में विचार कर सकते हैं कि विस्तार और संकुचन की वाहक कौन सी शक्तियां रही है यानी किसने इस तरह से जनांदोलनों की धारा को विस्तारित किया है या फिर उसकी अर्थवत्ता को समेटने की योजना तैयार की। लेकिन यहां एक बात बहुत स्पष्ट तौर पर सामने आती है कि जनांदोलनों का अर्थ महज परिवर्तनगामी राजनीति के वाहक के रूप में नहीं रह गया है। सुधार के लिए संगठित कार्यक्रम नियमित तौर पर किए जाते हैं तो वे भी जनांदोलन कहलाते हैं। किसी समस्या या सीमित अर्थों वाले मुद्दों को लेकर विरोध कार्यक्रम, मांग के कार्यक्रम आयोजित किए जाते हैं तो उन्हें भी जनांदोलन कहा जा सकता है। अब तो कई बार सरकारें भी अपने किसी कार्यक्रम के लिए जनांदोलन करने का नारा देने लगती हैं। क्या इससे यह बात बहुत हद तक स्पष्ट नहीं होती है कि जनांदोलन के साथ विरोध की चेतना और परिवर्तन की राजनीति का जो पक्ष अनिवार्य रूप से जुडा़ दिखता रहा है वह बेहद कमजोर हुआ है। राजनीति अनिवार्यत: जनांदोलन का आधार होती है। कई बार राजनैतिक पक्ष को व्यापक अर्थों में प्रगट कर यह साबित करने की कोशिश की जा सकती है कि किसी क्षेत्र विशेष में किसी यथास्थितिवादी या वर्चस्ववादी समूहों की पक्षधर सरकार की नीति के खिलाफ सामूहिक भागेदारी वाले कार्यक्रमों को राजनैतिक जनआंदोलन कैसे नहीं माना जा सकता है? उसे भी माना जा सकता है और तमाम सुधारवादी आंदोलनों को भी राजनैतिक माना जा सकता है।
वह कौन सी तारीख है जब आंदोलनों को जनांदोलन कहने की जरूरत पड़ी। पहली बात तो यह कि यह जरूरत पड़ी क्यों? जहां तक ख्याल है कि अस्सी के बाद आंदोलनों में इस शब्द का तेजी से विकास दिखाई देता है। शायद 1974 के जेपी के नेतृत्व में इंदिरा गांधी के नेतृत्ववाली कांग्रेस की सत्ता के खिलाफ जो आंदोलन चला और जो सरकार बनी उसके भी विफल हो जाने के बाद राजनीतिक स्तर पर बुनियादी परिवर्तन की धाराओं ने अतीत से अलग आंदोलन की एक नई धारा विकसित करने की जरूरत पर बल देने के लिए जनांदोलन की शुरूआत करने की रणनीति बनाई हो। एक वैसे राजनैतिक लेखों का संग्रह सामने है जिसमें जनांदोलनों से जुड़े लेखक बुद्धिजीवी के नाम शमिल है। लेकिन उनमें से एक को छोड़कर किसी ने भी जनांदोलन शब्द का इस्तेमाल नहीं किया है। एक लेखक जिसने जनांदोलन शब्द का इस्तेमाल किया है उसका रिश्ता वर्गवादी विचारधारा से रहा है। ऐसा भी नहीं देखा गया कि पीपुल्स मूवमेंट जैसा कोई अंग्रेजी का शब्द भी अंग्रेजी की पुस्तक में दिखाई दिया हो। आज जिन अर्थों में जनांदोलन प्रचलित हुआ है वह अंग्रेजी के पीपुल्स मूवमेंट का ही अनूदित रूप हो सकता है। यहां इस बात की व्याख्या खुद करें कि अपनी भाषा में उपजे जनांदोलन और शासक की भाषा के अनूदित जनांदोलन से यहां क्या आशय है।अस्सी के बाद जो राजनीतिक स्थितियां बनीं, वह मतदाताओं के जबरदस्त मोह भंग का दौर था। यह बहुत खोज का विषय नहीं है कि उस राजनैतिक परिवर्तन में जन की कोई भूमिका नहीं थी। यहां जन का इस्तेमाल उन अर्थों में ही किया गया है जिन अर्थों में अब किया जा रहा है। जैसे जेपी ने झारखंड के धनबाद में आचार्य राममूर्ति को यह देखने के लिए कहा कि उनकी इस महती सभा में कितने आदिवासी आए हैं। तो आचार्य ने जेपी को जो सूचना दी उससे जेपी बेहद दुखी थे। उस सभा में आदिवासी नहीं थे। आदिवासी से मतलब 1947 के बाद के भारत का सबसे ज्यादा शोषित, दमित तबका जो शायद अपने पुराने जीवन स्तर से जरा भी ऊपर नहीं आ पाया है। सत्ता ने उसके साथ रिश्ता बनाने के बजाय उन्हें अपने लिए खाद पानी बनाए रखा। इस तरह से मोहभंग केवल मध्यवर्ग का हुआ था। असंतोष जो समाज के दबे–कुचले पिछड़े–दलितों के बीच पनप रहा था वह तेज हुआ था। सत्ता और राजनीतिक पार्टियों का रिश्ता जन और नागरिकों से लगभग समाप्त हो गया था।
अस्सी के बाद एक खास प्रवृत्ति यह दिखाई देती है कि समूह का रूप एक व्यक्ति के नेतृत्व में परिवर्तित होता चला गया। उस समय मास मोबलाइजेशन, लोक राजनीति जैसी शब्दावली सामाजिक कार्यकर्ताओं के इर्द–गिर्द दिखाई देने लगी। हालांकि दूसरे स्तर पर राजनीतिक जनांदोलनों की भी कोशिश जारी देखी जाती है। उनके बीच मोर्चाबद्ध होने की पहल भी होती है। लेकिन उनका राजनैतिक आंदोलन क्रमश: विस्तार के बजाय सिकुड़ता चला जाता है। जिस तरह से मोहभंग की स्थिति थी और असंतोष का विस्तार हुआ था उसे जनांदोलन में बदलने की क्षमता उनमें नहीं दिखी दूसरी तरफ विभिन्न हिस्सों में विभिन्न मुद्दों और विषयों पर कई कई ‘जनांदोलन’ दिखाई देने लगते हैं। यह कोशिश भी की गई कि गैर चुनावी और गैर पार्टीगत, राजनीतिक प्रक्रिया से अलग एक धारा विकसित की जाए। इसे आंदोलन की धारा के रूप में तो स्थापित किया गया, लेकिन व्यापक राजनैतिक सरोकार वहां से गायब था। तबकों, समूहों, समुदायों के आंदोलन थे, तो लेकिन दूरियां भी थीं। तब सार्वजनिक जीवन में सामाजिक कार्यकर्ताओं या आज की प्रचलित शब्दावली में स्वयंसेवियों की भूमिका बदल गई और वह ऐसी राजनीतिक भूमिका के रूप में विकसित हुई जो किसी वैकल्पिक राजनीति के विस्तार की संभावना पैदा करने की क्षमता से दूर थी।
www.rashtriyasahara.com से साभार

2 comments:

बालकिशन said...

अच्छा और जानकारी पूर्ण लेख.
आपकी शैली भी अति रोचक है.
आभार.

शोभा said...

काफी जानकारी पूर्ण लेख लिखा है आपने।