Friday, July 25, 2008

स्पीकर का लोभ या पार्टी की तानाशाही

राजकिशोर
लोकसभा की कार्यवाही और सांसदों के आचरण के स्तर पर आई भयावह गिरावट की चर्चा बहुत हो रही है, लेकिन स्पीकर सोमनाथ चटर्जी के व्यवहार पर सार्वजनिक चर्चा बहुत कम देखने में आई। ऐसा मान लिया गया था कि यह स्पीकर और उनकी पार्टी सीपीएम के बीच का मामला है। लेकिन अब जबकि सोमनाथ को पार्टी से निकाल दिया गया है, यह मामला निश्चय ही विवादास्पद बन गया है। कुछ लोगों को पार्टी के इस निर्णय में तानाशाही की बू आ रही है, तो कुछ स्पीकर की मनमानी को पचा नहीं पा रहे हैं। हमारी लोकसभा के छोटे-से इतिहास में यह अपने ढंग की पहली घटना है। इसलिए इस पर संजीदगी से विचार होना चाहिए, ताकि स्पीकर पद की कुछ मर्यादाएं निश्चित हो सकें। अराजकता के वर्तमान माहौल में कोई ऐसा बिन्दु नहीं छोड़ना चाहिए, जहां अराजकता को पनपने का अवसर मिल सके - यह अराजकता स्वयं स्पीकर की हो या उसकी पार्टी की। कायदे से स्पीकर ही सदन का नेता होता है। दिलचस्प है कि लोकसभा के अध्यक्ष को ‘स्पीकर’ कहा जाता है, पर वह सिवाय सदन को संचालित करने के अपनी आ॓र से कुछ भी ‘स्पीक’ नहीं करता। जब इंग्लैंड की संसद का, जिसे दुनिया की सभी ‘संसदों की मां’ कहा जाता है, विकास हो रहा था, उस समय संसदीय शासन नहीं था। संसद थी, पर विचार-विमर्श के लिए। वह न कानून बना सकती थी, न यह तय कर सकती थी कि सरकार की नीतियां क्या होंगी। यह सारा काम सम्राट ही करता था। उन दिनों स्पीकर ही सदन की आ॓र से सदन का प्रतिवेदन सम्राट के सामने रखता था। इस तरह वास्तविक जगह पर बोलने वाला सांसद स्पीकर ही था। जैसे-जैसे शासन की संसदीय प्रणाली का विकास होने लगा, स्पीकर की भूमिका कम होती गई। अब उसका रोल सिर्फ इतना रह गया है कि वह सदन की कार्यवाही का संचालन करे तथा उसकी मर्यादाओं की रक्षा करे।संसदीय प्रणाली दलों के आधार पर चलती है। बहुत-से सांसद स्वतंत्र और निर्दलीय भी होते हैं। जिस व्य‡ि को स्पीकर की भूमिका निभानी है, उसे लोकसभा का सदस्य तो होना ही चाहिए। कायदे से किसी निर्दलीय को स्पीकर बनाया जाए, तो सबसे अच्छा हो। लेकिन ऐसा हो नहीं पाता है, क्योंकि सभी सत्ताारूढ़ दल या गठबंधन चाहते हैं कि स्पीकर उनका अपना प्रतिनिधि हो। इसलिए कि स्पीकर अपने दल या गठबंधन का हुआ, तो संसदीय कामकाज संपन्न करने में सरकार को आसानी होती है। हमारे देश में स्पीकर को एक और महत्वपूर्ण काम दिया गया है-- दलबदल विरोधी कानून के प्रावधानों के तहत यह निर्णय करने का कि दलबदल हुआ कि नहीं और हुआ, तो दलबदल करने वाले की संसदीय सदस्यता को रद्द करना। इसलिए भी स्पीकर का राजनीतिक मूल्य बढ़ गया है। हम जानते हैं कि हमारे अनेक स्पीकरों ने दलबदल के मामले में पक्षपातपूर्ण फैसले किए हैं और अपने से संबंधित दलों को फायदा पहुंचाया है। इसके बावजूद माना यही जाता है कि किसी खास दल का सदस्य होने के बावजूद जब कोई सांसद स्पीकर चुन लिया जाता है, तो वह वास्तव में दलविहीन हो जाता है। दलविहीन हो जाने से उसके हितों को क्षति न पहुंचे, इसलिए कई देशों में परंपरा है कि स्पीकर की सीट पर कोई भी दल अपना उम्मीदवार खड़ा नहीं करता, ताकि वह दुबारा र्नििववाद चुना जा सके। हमारे देश में ऐसी कोई परंपरा नहीं बन पाई है। इसलिए यह श्य भी देखने में आता है कि स्पीकर का पद संभाल चुकने के बाद भी कोई सांसद बाद में मंत्रिमंडल का सदस्य हो जाता है या कहीं का राज्यपाल बना दिया जाता है। वर्तमान गृह मंत्री शिवराज पाटिल लोकसभा के स्पीकर रह चुके हैं। सोमनाथ चटर्जी एक आदर्श स्पीकर साबित हुए हैं, इसमें कोई संदेह नहीं है। ‘लोकसभा’ चैनल शुरू कर उन्होंने निश्चय ही एक खास काम किया है, लेकिन वह स्पीकर चुने जाते समय सीपीएम के सदस्य थे। स्पीकर बनने के बाद उन्होंने अपनी पार्टी से इस्तीफा नहीं दिया। इसलिए सीपीएम के शीर्ष नेताओं ने राष्ट्रपति को अपने सांसदों की सूची देते समय सोमनाथ चटर्जी का नाम भी जोड़ लिया, तो तकनीकी तौर पर वे गलत नहीं थे। बेशक, वह भूल गए कि सोमनाथ चटर्जी सिर्फ सीपीएम के सांसद नहीं हैं, बल्कि लोकसभा के अध्यक्ष भी है। यह कोई मामूली भूल नहीं थी। इससे पता चलता है कि पार्टी में न्यूनतम संवेदनशीलता भी नहीं बची है। चूंकि स्पीकर को निर्दलीय माना जाता है, इसलिए पार्टी पॉलिटिक्स में खींचने के पहले उनसे संवाद तो करना ही चाहिए था और उनकी सहमति के बिना उनका नाम सूची में शामिल नहीं करना चाहिए था। यह दुख की बात है कि सीपीएम नेतृत्व ने अपनी इस त्रुटि के लिए सोमनाथ चटर्जी और लोकसभा से माफी भी नहीं मांगी, न ही किसी प्रकार का खेद ही व्यक्त किया। सिक्के का दूसरा पहलू भी है। सोमनाथ चटर्जी के इस ष्टिकोण की भी प्रशंसा नहीं की जा सकती कि सीपीएम के प्रति मेरी कोई प्रतिबद्धता नहीं है और यह फैसला मुझे करना है कि स्पीकर पद से इस्तीफा देना है या नहीं। स्पीकर को फूंक-फूंक कर कदम रखना चाहिए-- खासतौर से पतनशीलता के इस दौर में। जब उनकी पार्टी ने फैसला कर लिया कि उन्हें परमाणु करार के विरोध में स्पीकर के पद से इस्तीफा दे देना चाहिए, तो उनके लिए विचार-पुर्निवचार की कोई बात ही नहीं बचती। संसद के प्रति वफादारी और पार्टी के प्रति वफादारी में विरोधाभास नहीं होना चाहिए। सोमनाथ चटर्जी भी कम्युनिस्ट हैं। उनकी विचारधारा वही है, जो सीपीएम की विचारधारा है। इसलिए यह कैसे हो सकता है कि जब पार्टी परमाणु करार के मुद्दे पर यूपीए सरकार से समर्थन वापस लेने जैसा कठोर कदम उठा चुकी हो, तब सोमनाथ चटर्जी जैसे वरिष्ठ मार्क्सवादी नेता का अंत:करण अविचलित रहे और वे निष्पक्षता के आवरण में अपने विचार से संसद को और देश को वंचित रखें? उन्हें अपनी पार्टी के निर्णय को शिरोधार्य कर लोकसभा अध्यक्ष के पद से तत्काल इस्तीफा दे देना चाहिए था और इस प्रकार वे अन्य सांसदों से जिस प्रतिबद्धता, मर्यादा, अनुशासन और शील की अपेक्षा करते हैं, उसका एक उदाहरण अपने निजी आचरण से प्रस्तुत करना चाहिए था।
www.rashtriyasahara.com से साभार

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