भगवती प्रसाद डोभाल
हाल ही में पश्चिमी देशों ने एक स्वर से भारत और चीन को मौसम परिवर्तन और ग्लोबल वार्मिंग का मुख्य कारण माना है, लेकिन इसके ठीक विपरीत रूसी वैज्ञानिक जलवायु परिवर्तन के कुछ और ही कारण मानते हैं। वे कार्बन डायऑक्साइड को किसी भी रूप में ग्लोबल वार्मिंग के लिए जिम्मेदार नहीं मानते हैं। क्यूटो संधि में धरती की तपन का कारण कार्बन डायआक्साइड उर्त्सजन ही माना गया। लेकिन रूसी वैज्ञानिकों का मानना है कि बिना वैज्ञानिक तथ्यों का परीक्षण किये कार्बन को इसके लिए दोष देना उचित नहीं है। रूसी वैज्ञानिक आंद्रे कापिस्ता कहते हैं कि ग्लोबल वार्मिंग की वजह से कार्बन डाइआक्साइड वातावरण में है न कि कार्बन डाइआक्साइड की वजह से ग्लोबल वार्मिंग।
रूसी अनुसंधानवेत्ता अपने इस परिणाम पर तब पहुंचे, जब वे अंटाकर्टिका में साढ़े तीन किलो मीटर बर्फ के अंदर गहराई में विभिन्न पर्तों के नमूने इकठ्ठा कर रहे थे। प्राचीन काल में बर्फ गिरते और जमते समय हवा के बुलबुले ग्लेशियर के भीतर कैद हो गये थे, जो उस काल के पृथ्वी के वातावरण की सही जानकारी देते हैं। इन बुलबुलों के अध्ययन से बहुत सारी जानकारियां सामने आई हैं। यह अध्ययन धरती के पिछले चालीस हजार वर्षों की वातावरण की पूरी जानकारी देता है। इसमें उन्होंने पाया कि वातावरण में कार्बन की मात्रा समय-समय पर भिन्न-भिन्न रही है। पूरे इतिहास में पांच सौ से छह सौ वर्षों के बाद वातावरण गर्म होने पर कार्बन डाइआक्साइड की मात्रा बढ़ी है। इसलिए वे मानते हैं कि ग्रीन हाउस गैसों की वातावरण में सांद्रता ही मुख्य कारण है ग्लोबल वार्मिंग का।वे यह भी मानते हैं कि ग्रीन हाउस प्रभाव का मुख्य कारण पानी का वाष्पन ही है जो वातावरण में कार्बन डाइआक्साइड से दस गुणा अधिक है। यदि धरती से पूरी कार्बन डाइआक्साइड हटा दी जाए, तब भी धरती का तापमान इतना गिर नहीं सकता कि धरती ठंडी हो जाए। इस बात पर भैतिकविज्ञानी ब्लादिमिर बाशकृतसेव का विशेष मत है। रूसी विज्ञान संस्थान के आ॓लेग सोरोख्तिन, जो सागर विशेषज्ञ हैं के साथ–साथ अन्य वैज्ञानिकों का भी मानना है कि पृथ्वी का मौसम परिवर्तन एक प्राकृतिक कारण है। जैसे सौर गतिविधि, पृथ्वी के अक्ष में हलचल, सागर की तरंगों में बदलाव, समुद्र की सतह पर नमक के पानी की विरलता और सघनता का होना। ऐसे बहुत से कारण हैं ग्लोबल वार्मिंग के। औघोगिक उर्त्सजन इस स्थिति में मौसम परिवर्तन पर कोई विशेष प्रभाव नहीं डालता। पृथ्वी पर कार्बन डाइआक्साइड की मात्रा का बढ़ना पृथ्वी में जीवन के लिए अच्छा है। डा। सोरोख्तिन तर्क देते हैं कि इससे फसलों की पैदावार अच्छी होती है और वनों की वृद्धि भी तेजी से होती है।
इतिहास में बहुत समय ऐसा भी रहा जब कार्बन डाइआक्साइड की मत्रा पृथ्वी पर आज से लाखों गुणा अधिक रही, और जीवन का विकास सफलतापूर्वक चलता रहा। इस बात को रूस के रसायन भौतिकी विज्ञान के अरूत्यानोव ने भी स्वीकार किया है।
चार वर्ष पहले रूसी वैज्ञानिकों ने सलाह दी थी कि अंतरराष्ट्रीय मंच पर राष्ट्रपति पुतिन इस बात को दुनिया के बतायें कि पृथ्वी को गर्म करने में कार्बन तत्व जिम्मेदार नहीं है। लेकिन पुतिन ने इस बात को राजनीतिक कारणों से अनसुना कर रूस की संसद में क्यूटो संधि के पक्ष में वातावरण बनाया इसके पीछे तर्क यह था कि यदि मास्को संधि का समर्थन करेगा, तभी यूरोपियन यूनियन डब्लूटीआ॓ में सदस्यता के लिए समर्थन करेगी। रूस को इसकी आवश्यकता थी क्योंकि सोवियत संघ के बिखरने से वह बुरी तरह पस्त था, उसे मुक्त व्यापार में शामिल होने से अपनी अर्थव्यवस्था सुधारनी थी। इस रास्ते पर चलने के लिए उसे वैज्ञानिकों द्वारा दिये सुझावों को ठुकराना पड़ा।
डॉक्टर सोरोख्तिन का कहना है कि पृथ्वी के वातावरण में स्वयं एक स्व नियंत्रण प्रणाली है। उसी से तापमान घटता-बढ़ता रहता है। जब तापमान बढ़ता है, तब सागर का पानी तेजी से वाष्पित होकर घने बादलों को बनाता है और इतना बनाता है कि सूर्य की किरणें पृथ्वी तक पहुंचने से रूक जाती हैं , फलस्वरूप पृथ्वी की सतह का तापमान घटने लगता है। शिक्षा शास्त्री कपिस्ता तो क्यूटो संधि को सबसे बड़ा वैज्ञानिक घोटाला मानते हैं। रूसी वैज्ञानिकों का मानना है कि मंच से 1995 में मेड्रिड संयुक्त राष्ट्र सम्मेलन से उन वैज्ञानिकों के दस्तावेजों को गायब किया गया जो भिन्न मत रखते थे। हां, सल्फर डाइआक्साइड, नइट्रोजन आक्साइड, भारी धातुओं और अन्य जहरीले पदार्थों के उत्सर्जन पर जरूर रोक लगानी चाहिए न कि कार्बन के उर्त्सजन पर, जिसके असर को सिद्ध भी नहीं किया गया।
यदि एक बार 1970 के वर्ष में चलें तब पता चला कि पृथ्वी का तापमान घट रहा है। सावधान किया गया कि हमें हिम युग की चुनौतियां झेलनी पड़ेगी।
www.rashtriyasahara.com से साभार
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