Thursday, July 17, 2008

बढ़ रहा है अर्थव्यवस्था के क्रैश करने का खतरा

आनंद प्रधान
अर्थव्यवस्था के विभिन्न क्षेत्रों से आ रहे संकेतों से साफ है कि कुछ महीनों पहले तक नवें आसमान पर कुलांचे भर रही अर्थव्यवस्था की रफ्तार न सिर्फ धीमी पड़ने लगी है बल्कि वह अपने ही बोझ से थककर हांफने लगी है। चिंता की बात यह है कि केंद्र में सरकार गिराने और बचाने के खेल के शोर में कोई अर्थव्यवस्था की इस कराह को सुन नहीं रहा है। इससे यह आशंका जोर पकड़ने लगी है कि अर्थव्यवस्था नवें आसमान से उतरते हुए ‘साफ्ट लैंडिंग’ के बजाय कहीं क्रैश न कर जाए। राजनीतिक अस्थिरता के कारण यह खतरा और बढ़ गया है।
यह कोई बढ़ा-चढ़ाकर दिखाया जा रहा खतरा नहीं है। अर्थव्यवस्था से आ रहे संकेतों से बिल्कुल स्पष्ट है कि अगर उसे पूरी सक्रियता और समझदारी के साथ संभाला नहीं गया तो उसे क्रैश होने से बचाना मुश्किल हो जाएगा। पिछले कुछ दिनों में दो अंतरराष्ट्रीय क्रेडिट रेटिंग एजेंसियों -स्टैंडर्ड एंड पुअर और फिच- ने भारतीय अर्थव्यवस्था की लड़खड़ाहट और बिगड़ती वित्तीय स्थिति का हवाला देते हुए भारत की रेटिंग घटा दी है। निश्चय ही इसका नकारात्मक असर भारतीय शेयर बाजार से लेकर मुद्रा बाजार में सक्रिय अंतरराष्ट्रीय निवेशकों विशेषकर विदेशी संस्थागत निवेशकों (एफआईआई) के सेन्टिमेंट पर पड़ा है। इसका तात्कालिक नतीजा काले मंगलवार के रूप में सामने आया जब मुंबई शेयर बाजार का संवेदी सूचकांक ‘सेंसेक्स’ 654 अंकों तक लुढ़क गया। सेंसेक्स की मौजूदा मरियल स्थिति का अंदाजा इस तथ्य से लगाया जा सकता है कि वह पिछले 15 महीनों के अपने सबसे न्यूनतम स्तर पर पहुंच गया है। सेंसेक्स को भारतीय अर्थव्यवस्था की सेहत का संकेतक मानने वालों के लिए यह सचमुच बड़ी चिंता का विषय होना चाहिए कि बाजार 21200 अंकों के एवरेस्ट से लुढ़कता हुआ 12700 अंकों तक पहुंच गया है। सिर्फ साढ़े छह महीनों में सेंसेक्स में लगभग 30 खरब रूपए की पूंजी इस गिरावट के साथ स्वाहा हो चुकी है।
कहने की जरूरत नहीं है कि शेयर बाजार में इस भारी गिरावट और अफरातफरी की सबसे बड़ी वजह वे विदेशी संस्थागत निवेशक (एफआईआई) हैं जिन्होंने पिछले वर्षों में सेंसेक्स को एवरेस्ट पर चढ़ाने में सबसे बड़ी भूमिका निभाई थी लेकिन पिछले कुछ महीनों से भारतीय अर्थव्यवस्था की डगमगाती नैया से कूद– कूदकर भागने में लगे हुए हैं। तथ्य यह है कि पिछले वर्ष एफआईआई ने भारतीय शेयर बाजारों में लगभग 17।36 अरब डालर (लगभग 75000 करोड़ रूपए) का निवेश किया था लेकिन इस साल वे पिछले साढ़े छह महीनों में लगभग 7 अरब डालर की रकम निकाल ले गए हैं।
शेयर बाजार से एफआईआई के पलायन का असर डालर के मुकाबले रूपए की कीमत पर भी पड़ा है। काफी अरसे तक डालर के मुकाबले मजबूत बने रहने के बाद एक बार फिर रूपया कमजोर पड़ने लगा है क्योंकि भारतीय बाजारों से डालर निकाल रहे विदेशी निवेशकों के बीच डालर की मांग बढ़ गई है। इस कारण डालर के मुकाबले रूपए की कीमत गिरकर प्रति डालर 43।22 रूपए तक पहुंच गई है जबकि कुछ महीनों पहले तक कमजोर डालर के मुकाबले रूपया मजबूत होकर प्रति डालर 39 रूपया पहुंच गया था।
भारतीय बाजारों में एफआईआई के पलायन के कारण शेयर बाजार के लुढ़कने और रूपए के कमजोर होने से भी अधिक चिंता की बात यह है कि इससे भारतीय अर्थव्यवस्था के बारे में एक ‘नकारात्मक सेन्टिमेंट’ बनता है जिसका असर घरेलू निवेशकों पर भी पड़ता हैै। वे भी बाजार से हाथ खींचने लगते हैं और इसका असर अर्थव्यवस्था में नए निवेश पर पड़ता है। नया निवेश न होने से अर्थव्यवस्था की वृद्धि दर मंद पड़ने लगती है जिससे कंपनियों के मुनाफे पर असर पड़ता है। नए रोजगार के अवसर नहीं बढ़ते हैं, उल्टे छंटनी और तालाबंदी का दौर शुरू हो जाता है। इससे निवेश और प्रभावित होता है। इस तरह एक दुष्चक्र बन जाता है और अर्थव्यवस्था मंदी की चपेट में आ जाती है।
सवाल यह है कि क्या भारतीय अर्थव्यवस्था उसी दुष्चक्र की आ॓र बढ़ रही है? इस बारे में अभी कोई बिल्कुल सटीक घोषणा करना जल्दबाजी होगी लेकिन अर्थव्यवस्था से आ रही कई नकारात्मक खबरें इसी आ॓र इशारा कर रही हैं। पहली बुरी खबर यह है कि मई में औघोगिक उत्पादन सूचकांक ‘आइपीपी’ गिरकर 3।8 प्रतिशत पर पहुंच गया है जो पिछले छह वषार्र्ें में सबसे न्यूनतम दर है। इससे साफ जाहिर है कि औघोगिक विकास की दर लगभग धराशायी हो चुकी है। उससे भी अधिक चिंता की बात यह है कि पूंजीगत वस्तुओं (कैपिटल गुड्स) के उत्पादन की दर लुढ़ककर मात्र 2।5 प्रतिशत रह गयी है जो पिछले वर्ष मई में 22 प्रतिशत थी। कैपिटल गुड्स के उत्पादन में इतनी भारी गिरावट इस बात की सूचक है कि अर्थव्यवस्था में नया निवेश कम या नहीं हो रहा है । जाहिर है कि इसका सीधा असर अर्थव्यवस्था की वृद्धि दर पर पड़ेगा। यही कारण है कि कुछ महीनों पहले तक जीडीपी की 9 से 10 प्रतिशत की वृद्धि दर के दावे करने वाले आर्थिक मैनेजर और विश्लेषक भी अब दबी जुबान से स्वीकार करने लगे हैं कि मौजूदा स्थितियों में जी डी पी की 7 से 8 प्रतिशत की दर भी बहुत बड़ी उपलब्धि होगी। यह 7 से 8 प्रतिशत की वृद्धि दर भी अच्छे मानसून और कृषि क्षेत्र के बेहतर प्रदर्शन के आसरे टिकी है। अन्यथा अर्थव्यवस्था खासकर औघोगिक क्षेत्र जिस तरह से लुढ़क रहा है, उसके कारण जी डी पी की 6 से 7 प्रतिशत की विकास दर को भी हासिल करना टेढ़ी खीर साबित होगी । असल में, अर्थव्यवस्था को आसमान छूती मुद्रास्फीति की दर ने पटरी से उतार दिया है। मुद्रास्फीति ने पिछले चार महीनों में जिस तरह से सुरसा की तरह अपना बदन बढ़ाया है और तेरह वर्र्षों का रिकार्ड तोड़ती हुई 11।89 प्रतिशत की बेचैन कर देने वाली ऊंचाई पर पहुंच गयी है, उससे अर्थव्यवस्था के मैनेजरों के हाथ–पांव फूले हुए हैं। मुद्रास्फीति की बेकाबू रफ्तार को थामने के लिए पिछले कुछ सप्ताहों में रिर्जव बैंक और वित्त मंत्रालय ने जो भी उपाय किए, वे न सिर्फ नाकाफी साबित हुए हैं बल्कि उनका उल्टा असर अर्थव्यवस्था की गति को धीमा करने के रूप में सामने आ रहा है। हताशा में अब अर्थव्यवस्था के मैनेजरों ने मुद्रास्फीति की सुरसा के आगे घुटने टेक दिए हैं और कहने लगे हैं कि महंगाई पर नियंत्रण का असर नवम्बर–दिसंबर से दिखेगा। जाहिर है कि यह सिर्फ दिलासा है ।
सच यह है कि मुद्रास्फीति का जिन्न बोतल से बाहर आ चुका है और अर्थव्यवस्था को अपनी चपेट में ले चुका है। कोढ़ में खाज की तरह मौजूदा राजनीतिक अस्थिरता का असर यह हो रहा है कि यूपीए सरकार का सारा ध्यान अर्थव्यवस्था को संभालने के बजाय सरकार का अस्तित्व बचाने में जाया हो रहा है। इस अनिश्चितता के कारण अर्थव्यवस्था की गति तो मंद पड़ती ही जा रही है, वह दिशाहीनता का शिकार भी हो गई है। दिशाहीनता के साथ हमेशा क्रैश करने का खतरा जुड़ा रहता है। शेयर बाजार के साथ-साथ अर्थव्यवस्था के अन्य क्षेत्रों से आ रही खतरे की घंटी इसी क्रैश की पूर्व चेतावनी है। उम्मीद है कि अर्थव्यवस्था के मैनेजर इसे सुन रहे होंगे।
www.rashtriyasahara.com से साभार

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