Wednesday, July 16, 2008

हमारी आधुनिकता की चार उलझनें

अभय कुमार दुबे
जैसा कि हम जानते हैं कि कोई भी आधुनिकता अपने-आप में एक मुकम्मल सिक्काबंद शै नहीं होती। मानवता के इतिहास में हर आधुनिकता दो-तरफा संवाद चला कर लोगों और समुदायों को अपने रंग में रंगती है, और उसी प्रक्रिया में उसकी सार्वभौमिकता को स्थानीय परिवेश का संस्कार मिलता है। भारतीय संदर्भों में यह बात और भी सही है। हमारे यहां आधुनिकता अपनी संरचना में एक बहुवचन है। आधुनिकता का राजनीतिक रूप उस समय तक संकटमुक्त नहीं हो सकता, जब तक उसके अन्य रूप ठीक से विकसित नहीं हो जाते। हम मुख्यत: चार तरह की उलझनों से दो-चार हो रहे हैं। पहली उलझन आधुनिकता के घरेलू संस्करण से संबंधित है। तमाम तरह के कानून बनाने के बावजूद समाज के आधुनिकीकरण की प्रक्रिया परिवार की संस्था में पर्याप्त सुधार करने में नाकाम रही है। दूसरी उलझन दलित समाज के आईने में देखी जा सकती है। छुआछूत से काफी हद तक मुक्ति प्राप्त कर लेने के बावजूद आज तक दलित मध्यवर्गीय समाज की मुख्यधारा में शामिल नहीं हो पाए हैं। तीसरी उलझन अल्पसंख्यकों से जुड़ी हुई है। वे उदारतावादी आधुनिकता से टकराव में नजर आते हैं। वे उसकी शर्तों और कसौटियों के मुताबिक अपना पुन: संस्कार करने से इनकार कर रहे हैं। उसकी चौथी उलझन सेक्सुअलिटी यानी यौनिकता के सवाल के आसपास है जिसकी सबसे तीखी अभिव्यक्ति वेश्याओं से संबंधित अनिर्णय की स्थितियों में दिखती है। हिंदी साहित्य की कुछ नई रचनाओं ने जाने-अनजाने इन प्रश्नों के साथ कुछ संवाद कायम किया है। साहित्य की यह कोशिश आश्वस्तिकारक है।
विख्यात लेखिका मैत्रेयी पुष्पा की आत्मकथा ‘गुड़िया भीतर गुड़िया’ में ग्रामीण परिवेश से आई एक पढ़ी-लिखी स्त्री के साहित्यकार बनने की मानीखेज दास्तान बिखरी हुई है। यह रचना केवल एक परिवार का ही यथार्थ-वर्णन नहीं है, बल्कि इसके पन्नों पर मौजूद लगभग सभी परिवार वैवाहिक संबंधों में आए अंतर्विरोधों के दौर से गुजर रहे हैं। इनमें हिंदू परिवार भी शामिल हैं, और मुसलमान परिवार भी। भारतीय परिवार के लिए अभी तक घर अभी भी बाहर से भिन्न है। वे दोनों एक-दूसरे के विस्तार नहीं हो पाए हैं। उनके बीच आनुषंगिकता की संरचनाओं का अभाव है। स्त्री का घर के बाहर कदम रखना एक औपचारिकता ही है। जैसे ही वह उसे अनौपचारिक बनाने की कोशिश करती है, उसे अलंघ्य चुनौतियों का सामना करना पड़ता है। जाहिर है कि स्त्रियों की आजादी के गले में भारतीय परिवार की यह कमोबेश अपरिवर्तनीयता अटकी हुई है। इस बात की कोई गारंटी नहीं है कि स्त्रियों को राजनीतिक आरक्षण देने के बाद भी इस स्थिति में कोई परिवर्तन होगा।
युवा दलित साहित्यकार अजय नावरिया ने अपनी रचना ‘उधर के लोग’ के माध्यम से दलित मध्यवर्ग की भीतरी बेचैनियों को उभारा है। कहना न होगा कि दलित मध्यवर्ग बनना अपने-आप में एक श्रेयस्कर परिघटना है। लेकिन, चिंताजनक बात यह है कि यह दलित मध्यवर्ग समग्र भारतीय मध्यवर्ग से अलग-थलग अपने किसी कोने में बैठा अपनी बहसें और गतिविधियां चला रहा है। यह अलगाव उसका चुनाव नहीं बल्कि उसकी मजबूरी है। आजादी के बाद उभरा भारतीय मध्यवर्ग अभी इतना सार्वदेशिक नहीं हो पाया है कि दलितों को अपने बीच एक बेहिचक किस्म की जगह दे सके। नावरिया का उपन्यास यह संदेश भी देता है कि सेकुलरीकरण की लगातार चलती हुई प्रक्रिया के तहत वर्गरचना भी हो रही है, पर राजनीतिक समुदाय के आधार पर मध्यवर्ग दो हिस्सों में बंट गया है।
भारतीय आधुनिकता की तीसरी उलझन अब्दुल बिस्मिल्लाह के उपन्यास ‘अपवित्र आख्यान’ के जरिए सामने आती है। इस उपन्यास के नायक के सामने तीन रास्ते हैं। पहला रास्ता अल्पसंख्यकवाद का है। इस पर चलने से वह उस भारतीय सार्वदेशिकता का अंग नहीं बन सकता जो बहुत धीरे-धीरे परवान चढ़ रही है। दूसरा रास्ता बहुसंख्यकवाद का है। इसे अपना लेने का नतीजा यह होगा कि उसे और उसके समुदाय को बहुसंख्यकवादी राजनीति के सांस्कृतिक वर्चस्व के साथ ‘समरस’ हो जाना होगा। तीसरा रास्ता ग्रामों की दुनिया में आज तक अपनी चमक दिखा रहे हिंदू-मुसलमानों की सामासिक संस्कृति के छिट-पुट अवशेषों के रूप में में सामने आता है। मुश्किल यह है कि शहर में, जो आधुनिकता का थिएटर है, इस तरह की सांस्कृतिक साझेदारी उपलब्ध नहीं है। शहर सदियों पुरानी इस सामासिक निष्पति से पल्ला छुड़ा कर अलग-अलग अस्मिताओं में रम चुका है। वहां यह संस्कृति या तो नॉस्टेल्जिया के रूप में मिलती है या फिर सेकुलरवाद के अजायबघर में रखी हुई किसी जज़्बाती शै की तरह देखी-दिखाई जाती है। शहर में उर्दू की ‘हे’ का मतलब है हिंदू और ‘मीम’ का मतलब है मुसलमान।
भगवानदास मोरवाल ने अपने नए उपन्यास ‘रेत’ के जरिए एक ऐसा सवाल उठाया है जिसका जवाब हमारी आधुनिकता को अभी तक नहीं मिला है। भारतीय आधुनिकता वेश्याओं के साथ संवाद स्थापित करने के मामले में खुद को भयग्रस्त महसूस करती है। उनकी पॉलिटिकल इकॉनॉमी सेक्स-वर्क से होने वाली आमदनी पर आधारित है, जबकि यह एक व्यावहारिक हकीकत है कि हमारे सार्वजनिक जीवन पर आत्मदमन आधारित यौन शुचिता और ब्रह्मचर्य की निहायत अवैज्ञानिक और बेवकूफाना धारणाएं हावी हैं। इस मामले में ज्यादातर कम्युनिस्ट होलटाइमर और संघ परिवार के जीवनदानी प्रचारक एक ही मुकाम पर खड़े हुए हैं। वेश्याओं की इस पॉलिटिकल इकॉनॉमी को भूमि सुधार या ग्रामीण रोजगार कार्यक्रम चला कर या कोई फैक्ट्री खोल कर भी नहीं बदला जा सकता। दरअसल, हमारे पास सेक्स की पॉलिटिकल इकॉनॉमी से निबटने का कोई औजार नहीं है।
आजकल हमारी राजनीतिक आधुनिकता एक नए संकट से उबरने की कोशिश कर रही है। ऊपर से दिखने में लगता है कि बहस देशी और विदेशी की परिभाषाओं के आसपास हो रही है। बहस के केंद्र में राष्ट्रहित का प्रश्न भी प्रतीत होता है। कुल मिला कर यह एक दुविधा है जो हमारे सार्वजनिक जीवन को सता रही है। आखिर आजादी के 61वें साल में भी यह सार्वजनिक जीवन आधा-अधूरा सा क्यों है? क्या इस अपरिपक्वता की जड़ मे आधुनिकता की वे उलझनें नहीं हैं जिन्हें न सुलझा पाने के कारण ही हर नया राजनीतिक संकट हमें इतना संगीन लगने लगता है। भारतीय आधुनिकता के विकास संबंधी प्रश्नों पर गहराई से सोचने वालों के लिए आज का माहौल एक तरह का निमंत्रण है। इसके बहाने वे बुनियादी सवालों पर एक बार फिर नजर डाल सकते हैं।
www.rashtriyasahara.com से साभार

1 comment:

शोभा said...

बहुत बढ़िया लिखा है। आज हम सभी इस सबमें उलझे हैं।