Wednesday, July 30, 2008

फुटकरीकरण जनांदोलन का

राजकिशोर
आदमी को चोट लगे और वह चीखे नहीं, यह नहीं हो सकता। दांत दबा कर मार खाना मनुष्य के स्वभाव में नहीं है। अगर ऐसा होता, तो दुनिया से दास प्रथा कभी खत्म नहीं होती। यह भी सच है कि गुलामी के संस्कार जाते-जाते ही जाते हैं। इसलिए बहुत लोगों को सिर उठाने में समय लगता है। जब बहुत सारे लोग किसी एक मुद्दे पर संगठित होकर सिर उठाते हैं, तो यह जनांदोलन की शक्ल ले लेता है। भारत का स्वतंत्रता संघर्ष ऐसा ही एक महान जनांदोलन था। जनांदोलन से पैदा होने वाला यह नया देश अपनी मूल प्रतिज्ञा को ही भूल जाए, यह एक अस्वाभाविक स्थिति है। लेकिन आंखों दिखती सचाई से कौन इनकार कर सकता है?
जनांदोलन के लिए कम से कम तीन तत्व चाहिए-- मुद्दा, लोग और नेतृत्व। इनमें से कोई भी एक तत्व गायब हो तो आंदोलन नहीं हो सकता। जरूरी नहीं कि मुद्दा जायज हो। हमने पिछले दो दशकों में राम जन्मभूमि मंदिर को केंद्र में रख कर एक ऐसे आंदोलन को जन्म लेते और पूरे उत्तार भारत में फैलते देखा है, जिसके बिना देश का काम बखूबी चल सकता था। लेकिन नेतृत्व इतना शक्तिशाली था कि आंदोलन घनीभूत होता गया और हजारों लोगों की जान गई तथा समाज में फूट-सी पड़ गई। इस तरह के कई नकारात्मक आंदोलन हम देख चुके हैं। वस्तुत: नकारात्मक आंदोलन भी किसी न किसी कुंठा से शक्ति और ऊर्जा पाते हैं। इसका ताजा उदाहरण कश्मीर में अमरनाथ श्राइन बोर्ड को दी गई और फिर वापस ले ली गई जमीन का मुद्दा है। अगर यह जमीन न दी गई होती, तो कोई मुद्दा नहीं था। लेकिन दी गई जमीन वापस ले लेने पर हिन्दू मानस में अपमानित होने का भाव पैदा हो गया। इसी तरह राजस्थान के गुर्जर हाल तक शांत थे। लेकिन जब उन्हें यह लगा कि आरक्षण का आश्वासन देकर उनका वोट लेने का छल किया गया था, तो वे उन्माद में आ गए। अब गोरखालैंड की मांग को लेकर गर्मी पैदा होने की बारी आती दिखाई पड़ रही है। सुबास घीसिग जिस मिशन को आधी दूर तक ले जा कर बैठ गए और सत्ताा सुख में डूब गए, उस मिशन को आगे बढ़ाने के लिए कुछ और खूंखार लोग सामने आ रहे हैं। गोरखालैंड कहे जाने वाले इलाके में खून-खराबा होना निश्चित है।
हाल के समय में जो एक तार्किक और संगत आंदोलन देखने में आया, वह है नर्मदा बचाआ॓ आंदोलन। कहा जा सकता है कि नर्मदा बचाआ॓ आंदोलन की नेता मेधा पाटकर भारत की अंतरात्मा का उज्ज्वल प्रतीक बन चुकी हैं। उन्होंने नर्मदा नदी पर बनाए जा रहे बड़े-बड़े बांधों के खिलाफ जितना सश‡ जनांदोलन खड़ा किया, वह एशिया में एक अद्भुत उदाहरण है। इसकी खास बात यह थी कि इस जनांदोलन का आधार दलित और आदिवासी जन थे। देश का खाता-पीता मध्य वर्ग कुल मिलाकर उसके खिलाफ ही था। सरकार के तीनों अंग -- विधायिका, कार्यपालिका और न्यायपालिका -- मुख्यत: इसी वर्ग के लोगों द्वारा संचालित होते हैं। इसीलिए जबरदस्त प्रतिवाद के बावजूद नर्मदा को नहीं बचाया जा सका। उसे जगह-जगह बांधा जा रहा है। चूंकि मेधा पाटकर ने इस एक मुद्दे से ही अपनी पहचान को जोड़ रखा है, इसलिए अब उनके पास कोई मुद्दा नहीं बचा। जहां भी जन आक्रोश की लपटें दिखाई देती हैं, वे पहुंच जाती हैं। उनके पास वैकल्पिक व्यवस्था की एक पूरी सोच दिखाई देती है, पर वे सत्तार के दशक तक के समाजवादी या साम्यवादी आंदोलन की तरह कोई व्यापक मुद्दों वाला जनांदोलन खड़ा करने में असमर्थ हैं। यह बहुत ही दुर्भाग्यपूर्ण घटना है।
ऐसा लगता है कि किसी सक्षम नेतृत्व के अभाव में इस समय कोई ऐसा बड़ा जनांदोलन खड़ा नहीं हो पा रहा है जिसमें मुद्दों की व्यापकता हो और जो एक विस्तृत इलाके को अपने सम्मोहन में ले सके। नई अर्थनीति के खिलाफ और स्वदेशी के पक्ष में राष्ट्रीय स्तर का जनांदोलन संगठित किया जा सकता था। यह गुंजाइश अभी भी है। लेकिन यह न हो पाया, न होता हुआ दिखाई देता है। मुद्दों की कोई कमी नहीं है, लोग भी उत्तोजित हैं, पर सक्षम नेतृत्व का अभाव है। लगता है कि एक बड़ी सेना की छोटी-छोटी टुकड़ियां कभी यहां तो कभी वहां किसी न किसी स्थानीय मुद्दे पर तलवार भांज रही हैं। लेकिन उन्हें किसी वैचारिक व्यवस्था और व्यापक संगठन से जोड़ने वाला नेतृत्व अभी तक पैदा नहीं हो पाया है। परिणामस्वरूप जनांदोलनों का फुटकरीकरण हो रहा है। छोटी-छोटी घटनाओं के माध्यम से लोगों का असंतोष विस्फोटक ढंग से प्रगट हो रहा है, पर इससे सत्ता के तिलिस्म को कोई निर्णायक चोट नहीं लगती। वह और मजबूत होता जाता है। वह जितना मजबूत होता जाता है, उतना ही आततायी हो रहा है। इसलिए असंतोष उत्तारोत्तार विस्फोटक तथा हिसक होता जाता है। लोग कहीं थानेदार को पीट देते हैं, कहीं सरकारी अधिकारियों को घेर लेते हैं, कहीं आग लगा देते हैं, कहीं सड़क बंद कर देते हैं और कहीं अपने इलाके में सरकारी नुमाइंदों को घुसने नहीं देते। पुलिस गोली चलाती है, आतंक फैलाती है और फिर स्थिति जस की तस हो जाती है।
निश्चय ही कुछ जनांदोलन अहिसक और जनशक्ति की प्रखर अभिव्यक्ति पर टिके हुए हैं। सूचना का अधिकार आंदोलन ऐसा ही है। राजस्थान के एक गांव से शुरू हुआ यह जनांदोलन काफी हद तक सफल रहा है। अब वह प्रशासनिक धूल-गर्द को साफ करने में अहम भूमिका निभा रहा है। लोकसभा में नोट उछाल कांड की वास्तविक पृष्ठभूमि की पड़ताल करने के लिए कई व्यक्तियों और संस्थाओं ने स्पीकर से सूचना के अधिकार के तहत आवश्यक जानकारियां मांगी हैं। सामाजिक अंकेक्षण (सोशल ऑडिट) का आंदोलन भी एक ऐसी ही कार्रवाई है। इसके माध्यम से राष्ट्रीय ग्रामीण रोजगार गारंटी योजना में चल रहे तरह-तरह के भ्रष्टाचार को सामने लाने में अद्भुत सफलता मिली है। विशेष आर्थिक क्षेत्र (सेज) के खिलाफ भी जगह-जगह फुटकर आंदोलन चल रहे हैं। ये आंदोलन वस्तुत: किसानों के विस्थापन को रोकने के लिए हैं। यह मामूली बात नहीं है कि जमीनी स्तर के उग्र विरोध को देखते हुए गोवा सरकार को नीतिगत घोषणा करनी पड़ी कि हमारे राज्य में कोई सेज नहीं बनेगा। यह भी दिलचस्प है कि गोवा की ग्राम पंचायतें, एक के बाद एक, अपने-अपने क्षेत्र में बड़ी-बड़ी बिल्डगें न बनने देने और सभी प्रकार की मेगा परियोजनाओं के खिलाफ लगातार प्रस्ताव पास कर रही हैं। सिगुर और नंदीग्राम के संघर्ष से कौन अवगत नहीं है?
इसलिए यह कहना उचित नहीं है कि जनांदोलन का समय अब नहीं रहा। समाज के विभिा वगा की पीड़ा बढ़ रही है, लोग विस्थापित हो रहे हैं, आर्थिक नीतियों के कुपरिणाम आने शुरू हो गये हैं, अपराध की वृद्धि और पुलिस की नििष्क्रयता से लोग छटपटा रहे हैं, कार्यस्थलों पर नियोक्ताओं की मनमानी बढ़ गई है। ऐसे बेचैन हालात लोगों को क्यों नहीं आंदोलित करेंगे? मुद्दे हैं, छटपटाते हुए लोग भी हैं, पर उनका नेतृत्व करने के लिए विचारशील, चरित्रवान और व्यवस्थित लोग सामने नहीं आ रहे हैं। वे समाचारपत्रों में लेख लिखकर, सेमिनारों में व्याख्यान दे कर और साथियों के साथ चर्चा कर संतुष्ट हैं, मानो लातों के देवता बातों से ही मान जाएंगे। इसलिए जगह-जगह स्वत: स्फूर्त संघर्ष हो रहे हैं। चिनगारियां उठती हैं और बुझ जाती हैं। अन्याय और अत्याचार में भारत देश की शक्ति जितनी संगठित हो कर प्रगट हो रही है, उनका प्रतिवाद करने वाली शक्तियां उतनी ही बिखरी हुई और असंगठित हैं।
लेकिन क्या यह जरूरी है कि आज का सच ही कल का भी सच बन जाएगा? माफ कीजिए, इतिहास कभी भी लंबे समय तक एक ही करवट नहीं बैठा रहता।
www.rashtriyasahara.com से साभार

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