Friday, July 25, 2008

अपना नहीं अमेरिकी हित

सीताराम येचुरी
(वरिष्ठ माकपा नेता)
परमाणु करार को किसी एंगल से देशहित में नहीं कहा जा सकता। समझौता 123 अमेरिका के हाइड एक्ट से नियंत्रित है जो अमेरिका के राष्ट्रीय कानून का हिस्सा है। करार के बाद भारत की विदेश नीति पर अमेरिकी दखल बढ़ जाएगा। ऐसी भी आशंका है कि विदेश नीति से जुड़े कई मुद्दों के बारे में हमें अमेरिका से हर साल सर्टिफिकेट लेना और अमेरिकी कांग्रेस को सूचित करना होगा। भारत करार के बाद दोबारा परीक्षण करने के अपने अधिकार भी खो देगा। फिर ईंधन की आपूर्ति सुनिश्चित करने के प्रति भी करार में कोई प्रतिबद्धता नहीं है। मैं समझता हूं करार के बाद भारत की स्थिति अमेरिका के पिछलग्गुओं की तरह होगी। अमेरिका अपनी हर नीति में भारत को अपना समर्थन करने को बाध्य करेगा। एशिया में अमेरिका का जो हित है उसे पूरा करने के लिए वो भारत को अपने सहयोगी की भूमिका में उतारने को इच्छुक है। भारत की नीति अभी तक बहुधुव्रीय विश्व बनाने की रही है। अब सरकार देश का वह चोला उतार कर उसे गुटीय व्यवस्था की आ॓र मोड़ रही है।
सरकार के आगे अभी महंगाई जैसी बड़ी चुनौती थी किंतु उसने इसे अनदेखा किया और अमेरिकी हितों वाले समझौते की आ॓र बढ़ना जारी रखा। सरकार के हटवादी रवैये ने ही हमें समर्थन वापस लेने को बाध्य किया। हमने सरकार को न्यूनतम साझा कार्यक्रम के आधार पर ही समर्थन दिया था। इस कार्यक्रम में परमाणु करार जैसी कोई बात नहीं थी। सरकार करार के विरोध में संसद के बाहर व भीतर उठी अशंकाओं को दूर करने की जगह हमारी आपत्तियों पर उंगली उठाती रही। हमें विकास विरोधी कहा गया। सरकार करार से जुड़े कई बिंदुओं पर लोगों को गुमराह करती रही है। करार की दिशा में सरकार ने जब बढ़ना चालू किया उसी समय से उसका अमेरिका प्रेम भी बढ़ता गया है। अमेरिका प्रेम ही है कि हम ईरान के परमाणु मुद्दे पर आंख मूंद कर उसके खिलाफ हंै। गुटनिरपेक्ष आंदोलन में हमारी भूमिका भी काफी घट गई है। मध्य एशिया में आज हमारी छवि एक विरोधी राष्ट्र की बन रही है। फिलस्तीन से बढ़ती दूरी और इजराइल से नजदीकी इस आ॓र इंगित करती है।
अमेरिका के साथ हमारे संयुक्त युद्धाभ्यास और उसके साथ हुए उपकरण सहयोग समझौता से जाहिर है कि अमेरिका हमें अपना सैन्य सहयोगी बनाने को उतारू हैं। परमाणु करार हमारी रक्षा और विदेश नीति की स्वतंत्रता और हमारी आर्थिक जरूरतों के खिलाफ है। सवाल केवल अमेरिका विरोध का नहीं बल्कि देश की संप्रुभता, स्वतंत्रता और विदेश नीति की रक्षा का है। फिर करार को ऊर्जा जरूरतें पूरी करने के लिहाज से भी जायज नहीं ठहराया जा सकता। ऊर्जा सुरक्षा डील करने का बहाना भर है। परमाणु ऊर्जा वैसे भी काफी महंगी पड़ती है। ऊर्जा की संकट ही है तो हमें अन्य वैकल्पिक उर्जा के विकास पर ध्यान देना चाहिए।
www.rashtriyasahara.com से साभार

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