Monday, July 21, 2008

देश को ले डूबेगा परमाणु समझौता

संदीप पांडेय
आज जबकि सारे देश में महंगाई वृध्दि को लेकर त्राहि-त्राहि मची हुई थी, प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह ने अचानक भारत-अमरीका परमाणु समझौता को प्रतिष्ठा का मुद्दा बनाकर सभी को अचंभित कर दिया है. अमरीका के मध्य पूर्व एवं दक्षिण एशिया मामलों की संसदीय उपसमिति के अध्यक्ष गैरी एकरमैन ने कह दिया है कि अब जार्ज बुश के राष्ट्रपति काल की समाप्ति के पहले इस समझौते के अमरीकी संसद द्वारा स्वीकृत होना सम्भव नहीं दिखता. अमरीका की संसद में पहुंचने से पहले भारत को इस समझौते के क्रियान्वयन हेतु अंतर्राष्ट्रीय परमाणु ऊर्जा एजेन्सी व 45 देशों के 'परमाणु आपूर्ति समूह' से महत्वपूर्ण स्वीकृतियाँ हासिल करनी हैं.
यह पहली बार है कि कोई देश परमाणु अप्रसार संधि पर हस्ताक्षर किए बगैर तथा अपनी सभी परमाणु गतिविधियों की अंतर्राष्ट्रीय परमाणु ऊर्जा एजेन्सी द्वारा जाँच हेतु तैयार हुए बगैर परमाणु आपूर्ति समूह के सदस्य देशों से परमाणु प्रौद्योगिकी एवं ईधन का व्यापार करने की छूट चाह रहा है। यदि यह समझौता स्वीकृत हो जाता है तो भारत को औपचारिक रूप से अद्योषित परमाणु शस्त्र सम्पन्न राष्ट्र का दर्जा मिल जाएगा। लेकिन इससे दुनिया के परमाणु निशस्त्रीकरण अभियान को बड़ा धक्का पहुंचेगा.


सुरक्षा परिषद के पांच स्थाई सदस्यों- अमरीका, इंग्लैण्ड, रूस, चीन, फ्रांस, तथा इज़राइल व पाकिस्तान के अलावा दुनिया के सभी देशों ने परमाणु नि:शस्त्रीकरण हेतु अपनी प्रतिबध्दता जाहिर की है। 112 देश तो ऐसे हैं, जो स्वेच्छा से परमाणु शस्त्र मुक्त क्षेत्र के अंग हैं. दुनिया में पांच ऐसे क्षेत्र हैं -दक्षिणी अमरीका, अफ्रीका, दक्षिण-पुर्वएशिया, दक्षिण प्रशांत महासागर का क्षेत्र तथा मध्य एशिया. इनके अलावा मंगोलिया ने अपने आप को एकल परमाणु शस्त्र मुक्त क्षेत्र घोषित कर रखा है. 1988 में संयुक्त राष्ट्र संघ में राजीव गांधी के भाषण तक भारत भी परमाणु नि:शस्त्रीकरण का स्पष्ट रूप से समर्थक रहा है. किन्तु अब महात्मा गांधी व गौतम बुध्द का यह देश दुनिया में शांति चाहने वाले देशों का साथ छोड़ रहा है.असल में भारत-अमरीका परमाणु समझौता ऊर्जा हेतु है ही नहीं. प्रधानमंत्री बताते हैं कि भारत की बिजली की जरूरतों को पूरा करने हेतु यह समझौता आवश्यक है. किन्तु भारत सरकार का ही योजना आयोग यह बता रहा है कि इस समझौते के लागू होने के बाद हम 2020 तक बहुत ज्यादा 40,000 मेगावाट परमाणु ऊर्जा से बिजली उत्पादन की क्षमता हासिल कर लेंगें, तो भी वह हमारे कुल बिजली उत्पादन का 9 प्रतिशत से ज्यादा नहीं होगा. यानी हमें 90 प्रतिशत से ज्यादा बिजली के लिए अन्य स्रोतों पर निर्भर रहना ही पड़ेगा. दुनिया के सभी विकसित देश जिन्होंने परमाणु ऊर्जा से बिजली उत्पादन के संयंत्र स्थापित किए हैं, धीरे-धीरे अपने कारखानों को बंद कर रहे हैं तथा नए कारखाने नहीं लगा रहे. अमरीका ने तो पिछले तीन दशक में परमाणु ऊर्जा का एक भी नया कारखाना नहीं लगाया है. फ्रांस जिसको परमाणु ऊर्जा के मामले में एक सफल उदाहरण के रूप में प्रस्तुत किया जाता है, जो आज अपनी 75 प्रतिशत बिजली इस प्रौद्योगिकी से प्राप्त करता है, आने वाले दिनों में सिर्फ एक ऐसा और कारखाना लगाएगा. यानि आने वाले दो-तीन दशकों में फ्रांस की बिजली के प्रतिशत में भारी गिरावट आएगी.


जापान भी परमाणु ऊर्जा को छोड़कर पुनर्प्राप्य स्रोतों से बिजली उत्पादन के तरीकों पर शोध हेतु भारी धन खर्च कर रहा है. सबसे आश्चर्यजनक बात तो यह है कि परमाणु ऊर्जा संयत्रों हेतु यूरेनियम की आपूर्ति करने वाले सबसे बड़े देश आस्ट्रेलिया में अभी तक परमाणु ऊर्जा से बिजली उत्पादन का एक भी कारखाना नहीं लगा है. उपर्युक्त से स्पष्ट है कि दुनिया के पैमाने पर परमाणु ऊर्जा का कार्यक्रम असफल रहा है.भारत में पिछले दस वर्षों में पवन ऊर्जा से 5000 मेगावाट बिजली उत्पादन की क्षमता स्थापित हो गई है जबकि परमाणु ऊर्जा से तो अभी हम मात्र 3000 मेगावाट बिजली का ही उत्पादन कर पाते हैं. किन्तु पवन ऊर्जा की सफलता का कहीं जिक्र तक नहीं होता. भारत में इसमें 45,000 मेगावाट तक की क्षमता स्थापित होने की सम्भावना है. सौर ऊर्जा में तो अभी तक हमने ठीक से निवेश ही नहीं किया. स्पेन जैसे देश में घरों की छत पर सोलर पैनल लगाने अनिवार्य हो गए हैं. जापान व यूरोप ने 2050 तक कम कार्बन उत्सर्जन करने वाले समाज बनने का लक्ष्य तय किया है. समझदार देश अपनी ऊर्जा आवश्यकताओं को पूरा करने हेतु पुनर्प्राप्य स्रोतों की ओर ध्यान दे रहे हैं.अमरीका की एक संस्था का पुर्वानुमान है कि आने वाले दो-तीन दशकों में बिजली उत्पादन के जो कारखाने स्थापित होंगे, उनमें से करीब दो-तिहाई गैस आधारित होंगे. इस दृष्टि से ईरान से मिल सकने वाली गैस हमारे लिए ज्यादा महत्वपूर्ण है. किन्तु अमरीका हमारे ऊपर यह दबाव बना रहा है कि हम ईरान-पाकिस्तान-भारत गैस पाइपलाईन समझौता रद्द कर दें तथा ईरान के साथ अपने संबंध खत्म कर लें. यदि भारत ऐसा करता है तो वह अपने पैरों पर कुल्हाड़ी मारने जैसा होगा.भारत-अमरीका परमाणु समझौते में अमरीका के कई निहित स्वार्थ हैं. अमरीका की संसद को यह बताया गया है कि लगभग पंद्रह वर्षों बाद उसके चीन से एक युध्द होने की सम्भावना है. इस युध्द में अमरीका चाहता है कि भारत उसके पक्ष में रहे. करीब सात वर्षों से अमरीकी व भारतीय सेनाएँ संयुक्त सैन्य अभ्यास कर ही रही हैं. इन अभ्यासों के लिए हमें उसको बड़ी कीमत चुकानी पड़ती है. उदाहरण के लिए अगस्त 2008 में अमरीका के नेवादा राज्य में भारतीय वायुसेना के 150 लोग अपने जहाज, आदि उपकरणों के साथ एक सैन्य अभ्यास में शामिल होंगे जिसका शुल्क हमें रूपए 100 करोड़ अदा करना होगा. अमरीका अपने महँगे हथियार हमें बेच रहा है. हाल ही में भारत ने 200 करोड़ डालर के आठ बोईंग पी.81 जासूसी जहाज खरीदे हैं. अमरीकी संसद को बताया गया है कि भविष्य में अमरीका भारत में अपना सैनिक अड्डा बनाना चाहता है. धीरे-धीरे हम अमरीका के कनिष्ठ सामरिक सहयोगी बन जाएंगे तथा दक्षिण एशिया का इलाका एक युध्द क्षेत्र. यह अमरीका का इतिहास रहा है कि जहां-जहां उसने हस्तक्षेप किया है, उस इलाके में तबाही ही फैली है. हमें पाकिस्तान के उदाहरण से सीखना चाहिए कि अमरीका का कनिश्ठ सामरिक सहयोगी बनने का क्या परिणाम हो सकता है? हमारी हैसियत एक दोयम दर्जे के इज़राइल या इंग्लैण्ड जैसी हो जाएगी. यानी अमरीका से दुश्मनी मोल लेना जितना खतरनाक है, उससे कम खतरा उसका मित्र बनने में नहीं है.
इसके अलावा भारत जैसा बड़ा बाजार मिलना अमरीका के लिए सोने में सुहागा हो गया है. भारत-अमरीका परमाणु समझौते से अमरीका का मृतप्राय परमाणु ऊर्जा उद्योग पुनर्जीवित हो जाएगा. इसके अलावा उपभोक्ता वस्तुओं, शीतल पेय एवं बोलतबंद पानी, कृषि, सेवा क्षेत्र, बीमा, मीडिया, खुदरा व्यापार, आदि विभिन्न क्षेत्रों में अमरीकी कम्पनियाँ या तो भारतीय बाजार में घुसपैठ कर चुकी हैं या करने की तैयारी में हैं.
चूंकि अब हम अमरीका के सामरिक एवं राजनीतिक सहयोगी की भूमिका में हैं, हमारे लिए यदि ये कम्पनियाँ भारतीय जनता के हितों के विरूध्द कोई कार्य करती है तो उनके खिलाफ कोई कार्यवाही करना आसान न होगा. आज कोका कोला एवं पेप्सी के खिलाफ भू-गर्भ जल दोहन से लेकर जल एवं मृदा प्रदूषण के तमाम सबूत होने के बावजूद हम इन कम्पनियों के देश के अंदर स्थित संयंत्रों को नहीं बंद करा सकते. आज भारतीय राजनीति की मुख्यधारा का हरेक दल अमरीकी सरकार एवं बहुराष्ट्रीय कम्पनियों का दबाव महसूस कर रहा है.अमरीका ने हमारी राजनीति व विदेश नीति का प्रभावित करना शुरू कर दिया है. अंतर्राष्ट्रीय परमाणु ऊर्जा एजेन्सी की बैठक में भारत पर दबाव डाल कर ईरान के खिलाफ मत डलवाया गया. भारत व अमरीका की बढ़ती नजदीकी से भारत व चीन के बीच भी तनाव बढ़ा है. ऐसा प्रतीत होता है कि हमारे प्रधानमंत्री भारत की जनता की अपेक्षा जार्ज बुश के प्रति अपने आप को ज्यादा जवाबदेह मानते हैं. इसलिए देश के सामने तमाम गभ्भीर समस्याओं जैसे मंहगाई, गरीबी, किसानों की आत्महत्या, बेरोजगारी, भ्रष्टाचार, आदि को छोड़कर पूरे देश का ध्यान परमाणु समझौते पर केन्द्रित कर दिया है. भारत की जनता ने पिछले लोकसभा चुनाव में दिखा दिया है कि यदि कोई राजनीतिक दल देश की जनता से जुड़े असली मुद्दों को छोड़कर 'चमकते भारत' जैसी सतही अवधारणा के आधार पर चुनाव जीतना चाहेगा तो उसे मुँह की खानी पड़ेगी. लगता है आने वाले चुनाव में कांग्रेस पार्टी को भारत-अमरीका परमाणु समझौता ले डूबेगा.


http://www.raviwar.com/ से साभार

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