विभांशु दिव्याल
जी हां, हमारा लोकतंत्र मंडी में है। नीलामी की खुली मंडी में। आइए, बतियाइए, जुतियाइए, झिंझोड़िए, फींचिए, फटकारिए, जो चाहे करिए मगर बोली लगाइए- एक गैरतन मरी हुई सरकार को जिंदा रखने के लिए उसके पक्ष में या फिर सारे नियम-तकाजों, सिद्धांत-मर्यादाओं-वैचारिकताओं को लात मार अवसर लाभ लेने के लिए एकजुट हुए सरकार गिराऊ मजमे के साथ खड़े होकर उसके विपक्ष में। जो भौंडा प्रहसन उद्घाटित हो रहा है उसमें अमेरिकी डील गायब है और अगर है भी तो सिर्फ एक बहाना बनकर। अन्यथा हर कोई अपनी-अपनी टुच्ची, आ॓छी, निजी डील के साथ डुल रहा है।
सरकार के प्रति विश्वास-अविश्वास के ये दिन बेशर्मी, झूठ, पाखंड, अवसरवाद, लालच, व्यक्तिगत लाभ, सत्तालोलुपता, सौदेबाजी और सट्टेबाजी से ऊब-चूब होते दिन हैं। जिन्हें लगता है कि संसद में शक्ति परीक्षण होते ही ये दिन अपनी वर्तमान लंपटता के कारण अतीत बन जाएंगे, वे गलत हैं। इन दिनों का असर भारतीय राजनीति और समाज पर काले साये की तरह दूर तक और देर तक मंडराता रहेगा। आखिर इस समय सांसदों को अपने-अपने पक्ष में खींचने की बेलगाम कोशिश में क्या कुछ ऐसा नहीं घट रहा जो इस देश की ईमानदार जनता को खटक नहीं रहा और उसे कचोट नहीं रहा?
एक पार्टी का सांसद मीडिया के सामने खुलकर कहता है कि उसके वोट के लिए उसे पच्चीस करोड़ का प्रस्ताव दिया गया है। हाल ही में पक्ष छोड़कर विपक्ष बनी पार्टी का एक सूत्रधार भरे मंच पर दुहराता है कि एक-एक सांसद की बोली पच्चीस करोड़ लगाई जा रही है। इसके उत्तर में लगभग विपक्ष से पाला बदल पक्ष में आये दल का प्रवक्ता कहता है कि उनके सांसदों को तीस करोड़ में खरीदा जा रहा है और केवल इतना ही नहीं गुंडों और माफियाओं द्वारा धमकाया भी जा रहा है। अब कौन तय करे कि कौन सही है कौन गलत, कौन सच कह रहा है और कौन झूठ? जनता और कुछ जाने या नहीं जाने, पच्चीस या तीस करोड़ को माने या नहीं माने, मगर वह पक्के तौर पर जानती है कि ऐसा होता रहा है और अब भी हो रहा है। जब इतने बड़े-बड़े माननीय, देश और लोकतंत्र को इतने कद्दावर भाग्यविधाता इतने भरोसे और विश्वास से यह बात कह रहे हैं तो उनकी बात पर अविश्वास करने का कारण?
अगर चर्चा इस पर हो कि मुसलमान इस अमेरिकी डील से खुश हैं या नहीं और हमारे दिग्गज राजनेता भारत के हित के बजाय डील को मुसलमान बनाम गैर-मुसलमान हित का डील बनाने पर उतर आयें तो अमेरिका क्या करे? अगर सांसदों का एक गुट इस आशय के साथ विचार करे कि सिख प्रधानमंत्री के पक्ष में जाना है या विरोध में तो इसमें देश का हित-अहित कहां दिखता है? अगर एक पार्टी का रहनुमा सीधे-सीधे कहे कि जो पार्टी उसकी अलग राज्य की मांग को स्वीकार कर लेगी वह उसी के पक्ष में हो जाएगा, तो इसमें भारत की अमेरिका परस्ती किस तरह प्रमाणित होती है? अगर छोटी-बड़ी पार्टियां पक्ष-विपक्ष में जाने के लिए पदों से लेकर प्रशासनिक तंत्र में पैठ बनाने की सौदेबाजी करें तो परमाणु करार के अच्छा या बुरा होने का मसला कैसे तय होता है?
और अब बात करें 543 की लोकसभा में चंद लघुदलिया, निर्दलिया और जेलिया सांसदों की। ये सब के सब तराजू के पासंग यकायक संसद शिरोमणि हो गये हैं। इनमें से कौन किसके पक्ष में पलड़ा झुकाने की कोशिश करेगा और क्यों, यह कोई नहीं जानता। लेकिन यह सब जानते हैं कि इनके फैसले में परमाणु करार के गुण-दोष दूर-दूर तक नहीं होंगे। आपको याद होंगे अपने गुरूजी शिबू सोरेन। ये वही गुरूजी हैं जिन्होंने मुद्रा सिद्धांत के आधार पर नरसिम्हा राव की सरकार बचाई थी। तब थोड़े नासमझ थे इसलिए पकड़ में आ गये थे, लेकिन तब से अब तक गंगा में कई साल बह गये हैं। अब फिर गुरूजी उसी भूमिका में हैं और उनके पत्ते निश्चित तौर पर जिस सोच-समझ के साथ खुलेंगे, उसमें यह कहीं नहीं होगा कि परमाणु करार की कौन सी धारा सही है और कौन सी गलत।
परमाणु करार पीछे छूट गया है। अब सत्ता बचाने और सत्ता छीनने का नंगा खेल जारी है। इस खेल में कोई भी पार्टी ऐसी नहीं है जो साबुत बची है। किसी भी पार्टी के सांसदों की निष्ठा खरी नहीं निकली। सब में अश्लील टूट-फूट हुई है। जिस सूत्रधार मार्क्सवादी पार्टी ने इस खेल की शुरूआत की वह टूटी भले न हो मगर दरार उसमें भी आ गई है। राष्ट्रवादी पार्टी को अपने कुनबे को एकजुट रखने के लिए बार-बार कोड़ा फटकारना पड़ रहा है, मगर कभी इस कोने से किसी के बिदकने की खबर उड़ जाती है तो कभी उस कोने से। और यह सब करार के समर्थन या विरोध के लिए नहीं हो रहा, अपने खुद के खाते-खजाने, गैर-ठिकाने साधने के लिए हो रहा है। देश, लोकतंत्र और देश की जनता के लिए नहीं अपने नंगे स्वार्र्थों के लिए हो रहा है। इसे वे भी जानते हैं जो यह खेल-खेल रहे हैं और वे भी जानते हैं जो यह खेल खिला रहे हैं। मीडिया लगातार डुगडुगी बजाकर यही बता रहा है।
जिस देश के लोकतंत्र को ऐसी आत्महंता राजनीति संचालित कर रही हो उसे अपने विनाश के लिए किसी अमेरिकी करार की क्या जरूरत? यहां तो भस्मासुर अपने सर पर हाथ रखकर नाच रहा है। हजार अमेरिका इस विशाल राष्ट्र की अस्मिता को इतनी चोट नहीं पहुंचा सकते जितनी कि स्वयं इसके कर्णधार पहुंचा रहे हैं। हां, इस भारत-अमेरिका परमाणु करार ने इस देश की लोकतांत्रिक नंगई को एक बार फिर पूरी तरह नंगा कर दिया है। करार हो या न हो मगर इस नंगई के चलते इस देश को डूबने से कौन बचा सकता है। एक सुप्रसिद्ध उर्दू शेर का भौंडा हिंदी अनुवाद यूं है
-इन्हें कौन रोकेगा डूब जाने से
ये वे हैं जो नावों में डूब जाते हैं।
www.rashtriyasahara.com से साभार
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