Tuesday, July 22, 2008

विकासवादी होने के खतरे

अनिल चमड़िया
भारत में जातिवाद और सम्प्रदायवाद से समाज के टूटने का खतरा जाहिर किया जाता है। यह खतरा इसीलिए है कि समाज के विविधता के ढांचे और चरित्र को बचाए रखना चाहते हैं। समाज को उन लड़ाइयों से दूर रखना चाहते हैं जिससे आखिरकार समाज के बड़े हिस्से का हर स्तर पर नुकसान ही होना है। ये धर्म और जाति पुरानी व्यवस्थाओं के आधार रहे हैं जिन्हें आधुनिक व्यवस्था से दूर करने का लक्ष्य होता है। आधुनिक व्यवस्थाएं ये लक्ष्य राजनीतिक विचारधाराओं के आधार पर निर्धारित करती हैं लेकिन पुरानी व्यवस्थाओं के जो आधार रहे हैं उनसे जुड़े वगा के हित उसमें सुरक्षित होते हैं इसीलिए वे किसी भी स्तर पर उसे बनाए रखना चाहते हैं। वे उन आधारों को एक विचारधारा में परिर्वितत करने और उसे स्थापित करने की कोशिश लगातार करते हैं। लेकिन दूसरी तरफ आधुनिक व्यवस्थाओं की भी अपनी टकराहट होती है। वे नई-नई विचारधाराओं की जगह बनाने की कोशिश करती हंै। आधुनिकतम होती व्यवस्थाओं में विचारधाराओं का आधार जाति, लिग, धर्म और क्षेत्र से बदल जाता है। उस समय लगता है कि जातियां समानता ग्रहण कर रही हैं। धर्म की भूमिका कम हो रही है। पूरी दुनिया ही एक क्षेत्र में बदल गई है। शोषित, पीडित आबादी को मुक्ति मिल रही है। लेकिन एक उदाहरण से समझने की ये कोशिश की जा सकती है कि जो आधुनिक व्यवस्था में बदलने और विकास का अहसास है वह दूसरी तरफ कैसे एक अधीनता और असमानता को बनाए रखने की कोशिश आधुनिकतम कहलाने वाली विचारधाराएं करती रहती हैं।
सन 1660 का एक तथ्य है। उस समय दिल्ली की आबादी लगभग पांच लाख थी। उसमें आधी से ज्यादा आबादी झुग्गी-झोपडियों में रहती थी। इस संख्या का अनुमान 1661 में दिल्ली में आग लगने की एक घटना के तथ्यों से भी लगाया जा सकता है। उसमें 60 हजार झुग्गियां और झोपडियां जलकर राख हो गई थी। दूसरा तथ्य खेत में अनाज पैदा करने वालों से जुड़ा है। दिल्ली और आगरा के इलाके में गेहूं का उत्पादन करने वाले खेतिहरों की स्थिति ऐसी नहीं थी कि वे गेहूं खरीद सकें। तीसरा तथ्य औरंगजेब के बाद के इतिहास में उल्लेख मिलता है कि 1770 के आरम्भ में जितनी मौतें हुई और अनाज की जिस तरह से किल्लत देखी गई उतनी अतीत में न कभी देखी गई थी और न ही सुनी गई थीं। इन साढ़े तीन सौ वषा में व्यवस्थाएं आधुनिकतम होती चली गई हंै लेकिन ये कहने की जरूरत नहीं होगी कि व्यवस्थाएं कहां खड़ी रही हैं और आज भी हैं।
उपरोक्त स्थितियों के आलोक में कहा जा सकता है कि राजनीतिक विचारधाराओं ने नई व्यवस्थाओं में विकास को एक ऐसा आधार बनाया जिसे केन्द्र में रखकर असमानताओं के पुराने आधारों को खत्म किया जा सकता है। इसीलिए विकास की अवधारणा के अंदर तमाम तरह की राजनीतिक विचारधाराओं के बीच तीखे संघर्ष होते रहे हैं। विकास की धुरी पर राजनीतिक सत्तााएं बनती-बिगड़ती रही हैं। लेकिन इसका अर्थ यह नहीं है कि विकास अपने आप में एक विचारधारा है पर विकास को एक ऐसी विचारधारा के रूप में विकसित किया गया है। पुरानी व्यवस्थाओं के आधार जातिवादी, सम्प्रदायवादी आदि रहे हैं उसी तर्ज पर विकासवादी जुड़ जाता है। भूमंडलीकरण की प्रक्रिया ने जाति और धर्म की तरह इसे एक विचारधारा के रूप में विकसित करने की कोशिश की है। भारतीय समाज को जातिवाद और सम्प्रदायवाद के मनोविज्ञान, मानसिक अवस्था और उसकी आक्रामकता के बारे में बताने की जरूरत नहीं है। लेकिन यह जरूर कहा जा सकता है कि भारत जैसे देशों में विकासवाद और विकासवादियों का वही चरित्र है। भूमंडलीकरण की नई र्आिथक नीतियों के लागू करने के फैसले सरकार ने जितने चरणों में लिए हंै वे उस विचारधारा को करपंथी के रूप में विस्तार करने के चरण रहे हैं। इस विचारधारा के करपंथी होने के कम से कम दो लक्षण यहां देखे जा सकते हैं। पहला लक्षण शाइनिग इंडिया या भारत 2020 का नारा बनना है। यानी ये देखा जा रहा है कि लोग अपनी पहले की स्थिति में ही हैं लेकिन सत्तााएं विकासवादी कहलाती हैं। इसमें आवाज पैदा की जाती है कि दूरदराज कहीं सपने पूरे हो रहे हैं। दूसरे विकास के सवाल उठाने वाले आक्रमण के शिकार होते हैं। दिल्ली में लाखों की तादाद में झुग्गियों के गिराए जाने से लेकर छत्ताीसगढ़ में नदियों को बेच देने तक पर कोई सत्ताा का बाल बांका नहीं कर सका और न ही लाख से ऊपर की तादाद में किसानों की मौत को कोई देख पाया। जातिवाद और सम्प्रदायवाद की भयावहता इसी तरह की तो देखी जाती है। विकासवाद भी उपरोक्त तथ्यों के आधार पर कम से कम साढ़े तीन सौ वषा पुरानी स्थिति में हमें खड़ा किए हुए है। वहां अनाज का अभाव और गेहूं के ऊंचे भाव से भुखमरी और मौत, और कर्ज से किसानों की मौत में क्या अंतर है। पुराने विचार वहां और यहां केवल जाति, धर्म की तलाश करेंगे लेकिन नई विचारधारा ने विकासवादी एक नई जाति और धर्म को विकसित कर लिया है उसकी शिनाख्त कैसे होगी। व्यवस्था आधार के रूपों का भी आधुनिकीकरण कर देती है।
समाज ने जिन तमाम तरह की बहसों को जन्म दिया और वैचारिक लड़ाइयां लड़ी वे उसकी सांस्कृतिक पूंजी हैं। उनकी उपलब्धियों के तौर पर उसे देखा जा सकता है। लेकिन विकासवाद ने तमाम उन उपलब्धियों और सांस्कृतिक पूंजी पर अपना आक्रमण जमा लिया है। यदि भारतीय समाज और राजनीतिक व्यवस्थाओं में इस विचारधारा के प्रभावों का अध्ययन किया जाए तो ये बेहद गहरे स्तर पर सक्रिय और सूक्ष्म स्तर पर आक्रामक दिखाई देगा। इसने अपनी भाषा विकसित की है और दूसरी तरफ बेजुबां करने के लिए भाषा ही छीन ली है। यह अब अक्सर सुना जाता है कि अजीब सा लग रहा है या वह अजीब सा है। क्या कभी किसी समाज में ऐसा होता है कि उसके बीच कुछ खड़ा हो और वह अजीब सा लगे। यदि आश्चर्यजनक चीजें अचानक खड़ी होती हों तो ऐसा हो सकता है। लेकिन यहां तो अजीबों की कड़ी तैयार दिख रही है और समाज उसे व्यक्त करने के लिए भाषा भी तैयार नहीं कर पा रहा है। सारे संबंध विघटन के दौर से गुजर रहे हैं। विकास जब तक एक योजना और कार्यक्रम है वह आक्रमणकारी नहीं हो सकता है लेकिन जैसे ही वह विकासवादी होता है उसके खतरे शुरू हो जाते हैं। विकासवाद ने तमाम और खासतौर से समानता मूलक राजनीतिक विचारों को रक्षात्मक स्थिति में कर दिया है। इसने व्यक्ति की हरेक इकाई को अपने प्रभाव में कर रखा है। हमें और आपको इसके बारे में सोचना होगा।
www.rashtriyasahara.com से साभार

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