Tuesday, July 15, 2008

वामपंथ, भद्रलोग और एटमी करार

मुद्राराक्षस
‘वामपंथी दलों ने आखिर वर्तमान केन्द्र सरकार से अपना समर्थन वापस ले लिया। समर्थन वापस लेते वक्त बहुत रवायती तरीके से उन्होंने अपने आभिजात्य पंथी तर्क के साथ महंगाई का मुद्दा भी जोड़ दिया। वर्तमान प्रगतिशील गठबंधन वाली सरकार से समर्थन वापसी के इस मौके पर महंगाई का मुद्दा क्यों याद किया गया, इसकी वजह समझ में नहीं आयी। इस देश की समूची राजनीति के सभी विचारों के कर्ताधर्ता मध्यवर्गीय और उच्च मध्यवर्गीय हैं, जिनके लिए महंगाई जैसा विषय कोई अर्थ नहीं रखता। सत्ता की राजनीति करने वाली वामपंथी पार्टियों की स्थिति भी इससे बाहर या अलग नहीं है। उनके समग्र सरोकार मध्यवर्गीय हो चुके हैं, उनका जमीन से, मिट्टी से अब कोई रिश्ता नहीं रहा है। वामपंथ अब देश के आदमी को छूकर नहीं, इंटरनेट और लैपटाप से पहचानता है।
वामपंथ की इसी लैपटाप राजनीति का नतीजा है कि केन्द्र सरकार से समर्थन वापसी के लिए उन्होंने उस अर्थव्यवस्था को कारण नहीं बनाया जो इस देश में बहुराष्ट्रीय कम्पनियां अपनी सुविधा और बेहतरी के लिए चला रही हैं। दुनिया के सबसे बड़े बाजार को अब बहुराष्ट्रीय कम्पनियां अपने फायदे के लिए ज्यादा से ज्यादा लाभकारी बना रही हैं। गेहूं, चावल, तेल का बाजार भी अब ये कम्पनियां अपने फायदे के अनुसार चला रही हैं। इन्हीं कम्पनियों ने अपने छपे प्लास्टिक के थैलों में अठारह रूपये किलो गेहूं का आटा बेचना शुरू किया और गलियों-मोहल्लों से लेकर कस्बों-गांवों तक में गेहूं का आटा बिकने लगा। डॉक्टर अपने मरीज को कहता है- एक सेब रोज खाआ॓। पिछले साल पच्चीस-तीस रूपये किलो बिकने वाला सेब अब एक सौ रूपये किलो से ज्यादा में बिक रहा है। अच्छा चावल पिछले बरस पैंतालिस रूपये किलो था। आज चंद महीनों में सौ फीसद बढ़कर नब्बे रूपये किलो हो गया है।
वर्तमान भारतीय अर्थव्यवस्था की रीढ़, राष्ट्रीयकृत बैंकों का राष्ट्रीय उद्देश्य पूरी तरह खत्म किया जा रहा है और ऊपरी तौर पर राष्ट्रीयकृत दिखने वाले बैंक निजी उघोग के चारागाह बना दिए गए हैं। आज सभी अर्द्धसरकारी या सरकारी वित्तपोषित संस्थानों के खजाने निजी बैंकों के पास हैं। साल 2007-08 का जो बजट देश की अर्थव्यवस्था को बहुराष्ट्रीय कम्पनियों की टहलुआ बनाने का बेशर्म दस्तावेज था, उस वक्त अगर वामपंथी दलों ने वह किया होता जो वे आज कर रहे हैं तो शायद देश के अवाम के कपड़े इतने ज्यादा तार-तार होने से बच जाते।
दिलचस्प यह है कि वामपंथ के पुराणपंथी मंत्रपाठी नेता यह समझकर खुश रहते हैं कि देश के लोग तो मूर्ख हैं। कांग्रेस पार्टी और भारतीय जनता पार्टी ने तो शुरू से ही अपनी राजनीति का आधार यह अवधारणा बनाई कि देश मूर्ख जनता से भरा हुआ है और उसे झूठ का कोई भी गलीज परोसा जाएगा, वह भुक्खड़ उसे खुशी से खाएगा। वामपंथ के मध्यवर्गीय चरित्र वाले भी सत्ता में आने के बाद से यही समझने लगे हैं। जिन वामपंथी नेताओं और बुद्धिजीवियों को इस बात से असुविधा महसूस हो रही हो वे जरा इस देश के सबसे गरीब आदमी और अपनी मासिक आय की ईमानदारी से तुलना करके देख लें। वजह यही है, यही मध्यवर्गीय चरित्र इसकी वजह है कि वामपंथ को वर्तमान सरकार गिराने की वजह भी एक मध्यवर्गीय ही मिली, एटमी करार! लेकिन देश की करीब तीन चौथाई जनता को पता ही नहीं है कि एटमी करार बला क्या है।
वामपंथ को इस बात में भी कोई रूचि नहीं है कि वह बताए कि इस करार का विरोध करके वह आम मुसलमान के कितने पक्ष में खड़ा हो रहा है। देश के दलित आंदोलन से उच्चवर्गीय वामपंथ इतना ज्यादा चिढ़ता रहा है कि जब बहुजन समाज पार्टी ने एटमी करार को लेकर कांग्रेस पार्टी का विरोध किया तो वामपंथ की जबान तालू से चिपक गयी है। उच्चवर्गीय मानसिकता में आकंठ डूबे सत्तारूढ़ वामपंथ को अपने ही पक्ष में खड़े न तो आम मुसलमान से कोई सहानुभूति है और न ही दलित वर्ग से। समूचे देश के दलित-पिछड़े वर्ग की सबसे सशक्त नेता मायावती ने जिस वक्त एटमी करार के विरोध में बयान दिया, वामपंथ ने उनके इस निर्णय का स्वागत भी नहीं किया। जिस उच्चवर्गीय चरित्र वाले वामपंथ का एक नेता खुलकर बयान देता हो कि वह पहले हिन्दू है बाद में वामपंथी, उस वामपंथी आंदोलन पर देश कितना भरोसा कर सकता है? वामपंथ शायद सोचता है कि वर्तमान स्थिति में कांग्रेस नेतृत्व वाली केन्द्र सरकार गिर जाएगी और चुनाव होंगे। उसे यह खामखयाली भी हो चुकी है कि चुनाव में वामपंथ को लाभ होगा। उसे जानना चाहिए कि बंगाल और केरल को छोड़कर बाकी देश के अल्पसंख्यक और दलित-पिछड़ों के साथ खड़े होने का कोई सुबूत उसने कभी नहीं दिया है। वामपंथ को यह वहम भी है कि वह गरीब आदमी की लड़ाई लड़ता है। यह शुद्ध वहम है। भारत का गरीब धार्मिक और जातीय अस्मिता से बाहर नहीं है और उच्च मध्यवर्गीय बुद्धिजीवी हो चुके वामपंथ ने इसी अस्मिता से भद्रलोक की दूरी बना ली है। इसीलिए वह जमीनी नहीं बौद्धिक उच्चवर्गीय आंदोलनों में विश्वास करता है। देश वामपंथ का एक और दुर्भाग्यपूर्ण रूप समझ चुका है। वह जान रहा है कि वामपंथ बहुराष्ट्रीय कम्पनियों की अर्थव्यवस्था अन्दर ही अन्दर स्वीकार कर चुका है।
www.rashtriyasahara.com से साभार

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