Friday, July 25, 2008

वैज्ञानिक अनुसंधानों में बढ़ती जालसाजी

हरीश अग्रवाल
विज्ञान सत्य की खोज है, लेकिन वैज्ञानिक अनुसंधान करनेवाले कई वैज्ञानिक सत्य का रास्ता न अपनाकर झूठ का रास्ता अपनाते हैं। वे अपने परिणामों की सचाई को झूठ में बदल देते हैं, और इस प्रकार जनता के धन से खिलवाड़ करते हैं। कहने को तो सारे वैज्ञानिक समुदाय में इनकी संख्या बहुत कम है, फिर भी इनका सारी बिरादरी पर खराब असर पड़ता है, जनता गुमराह होती है और विज्ञान पर से आस्था उठने लगती है। बहुत से झूठ पकड़े जाते हैं, लेकिन बहुतों के बारे में पता नहीं चलता।अमेरिका में सबसे ज्यादा वैज्ञानिक शोध होते रहते हैं, इसलिए वहीं सबसे ज्यादा जालसाजी पकड़ी जाती है। देखा गया है कि रिसर्च में इस तरह की जालसाजी को पहले बहुत कम समझा जाता था, लेकिन एक सर्वे से चौंकाने वाले परिणाम सामने आए हैं। लगभग दस प्रतिशत वैज्ञानिकों का कहना है कि उन्होंने स्वयं झूठे परिणाम देखे हैं, जो मनगढंत थे या किसी दूसरे वैज्ञानिक शोध को अपना बनाकर प्रस्तुत कर दिए गए। इससे बड़ी जालसाजी क्या हो सकती है और वह भी विज्ञान जैसे क्षेत्र में। इस सर्वे का प्रकाशन प्रतििष्ठत पत्रिका ‘नेचर’ में किया गया है। लगभग 600 विश्वविघालयों और शोध संस्थानों के 2,200 जैवचिकित्सा वैज्ञानिकों से प्रश्न किए गए, तो मालूम हुआ कि शोधकर्ता कदाचार का रहस्योद्घाटन नहीं करते। या तो वे डरते हैं या सोचते हैं कि उन्हें वांछित अनुदान नहीं मिलेगा। बताया गया है कि 37 प्रतिशत संदिग्ध मामले संबंधित संस्थानों को कभी बताए नहीं गए। सोचा गया कि यदि बताया गया तो गलत शोध परिणामों पर वैज्ञानिक को प्रताड़ित किया जाएगा या उसका वैज्ञानिक करियर चौपट हो जाएगा। इसलिए जालसाजी तो बहुत होती है लेकिन वह छुपायी जाती है।बहुत से वैज्ञानिक सोचते हैं कि गलत को ठीक बताकर क्यों न धन ऐंठा जाए। वास्तव में शोध से नाता रखने वाले वैज्ञानिकों को ये गलतियां पकड़नी चाहिए, नहीं तो ऐसा भी हो सकता है कि वरिष्ठ वैज्ञानिक नीचे के वैज्ञानिक के काम पर अपनी मुहर लगा दें। अब उसकी वास्तविकता या झूठ को कोई तीसरा वैज्ञानिक या पक्ष ही समझ सकता है। उपरोक्त सर्वे ऐसे समय आया है जब अमेरिका और अन्य देशों में शोध ईमानदारी पर प्रश्न उठाये जा रहे हैं। वैज्ञानिकों को औषध कंपनियों से धन मिलता है और ये कंपनियां झूठे शोध परिणामों से औषधियां बना सकती हैं, जो जनता के लिए हानिकारक सिद्ध हो सकती हैं। यहां वैज्ञानिकों और कंपनियों की सांठ-गांठ भी हो सकती है। अमेरिका के शोध जांच कार्यालय का कहना है कि गत तीन साल में उसने किसी न किसी प्रकार की जालसाजी पकड़ी है। पाया गया है कि प्रति वर्ष हर 100 शोधकर्ताओं में तीन केस जालसाजी के होते हैं। सबसे आम उदाहरण परिणामों में संख्या बढ़ाकर पेश करना है, जिससे शोध को संशोधित या सुधार कर रखा जाता है। हर वैज्ञानिक जानता है कि परिणामों में इस प्रकार की उलटफेर किसी भी वैज्ञानिक निष्कर्ष को अर्थहीन बना देती है। सत्य की खोज का अर्थ ही बदल जाता है। कार्यालय ने रहस्योद्घाटन किया है कि हर वर्ष अमेरिकी विश्वविघालयों में लगभग 1,350 मामले झूठे शोध के होते हैं, जिनमें अधिसंख्य पकड़े ही नहीं जाते हैं, क्योंकि वे कार्यालय को रिपोर्ट नहीं किये जाते। सर्वे स्वास्थ्य तथा जीवन विज्ञान में शोध पर किया गया। मालूम हुआ है कि ऐसे मामले विश्वव्यापी बन गए हैं, जिनमें मामूली शोध झूठों का पता ही नहीं चलता।वास्तव में इसी प्रकार के बड़े मामले का भंडाफोड़ 2005 में दक्षिण कोरिया में हुआ। वहां एक वैज्ञानिक ह्वांग वू सुक ने शोध परिणामों को गलत बताकर आदमी की स्तंभ कोशिकाओं के क्लोन तैयार करने का दावा किया। बाद में उसकी करोड़ों रूपये की ग्रांट छीन ली गई। इसी प्रकार 2002 में भौतिकी में एक और शोध जालसाजी का पता चला था, जो इस क्षेत्र में सबसे बड़ा मामला बताया जा रहा है। चार वर्ष तक एक युवा वैज्ञानिक हेनरिक शोन बैल प्रयोगशाला में अति चालकता से नेनो टेक्नोलॉजी तक जैसे विषयों के झूठे परिणाम गढ़ता रहा, और इस प्रकार सारे विज्ञान जगत को अंधेरे में रखा। केलिफोर्निया के एक वैज्ञानिक विक्टर निनोव ने नए सुपरहैवी तत्व 118 की खोज का दावा किया, जो सरासर झूठा सिद्ध हुआ।अब कुछ दशक पहले की अपेक्षा शोध वैज्ञानिकों की संख्या बहुत बढ़ गई है। उस हिसाब से सरकारी अनुदान भी बढ़ गया है। पहले के वैज्ञानिक केवल शोध का ध्यान रखते थे, उन्हें ग्रांट या धन की लालसा नहीं रहती थी। हमारे प्रफुल्ल चंद्र राय, जगदीश चंद्र बसु, सर सीवी रमन आदि ने बहुत कम धन में और समुचित प्रयोगशालाएं न होने पर भी महत्वपूर्ण शोध करके दिखाया और दुनिया में भारतीय विज्ञान का नाम ऊंचा किया। अब ऐसे वातावरण कहां है? आज विज्ञान पूरा प्रोफेशनल है, और वैज्ञानिक नाम कमाने और करियर बनाने के लिए तरह-तरह के हथकंडे अपनाते हैं, जिसका अर्थ यह नहीं कि सभी वैज्ञानिक ऐसे हैं। अपवाद भी बहुत हैं।यह अच्छी बात है कि सबसे महत्वपूर्ण शोध कार्य का जल्दी पर्दाफाश हो जाता है। विज्ञान में दोहराव बहुत आते हैं, यानी बारबार शोध के प्रयोग करने पड़ते हैं। यह नहीं कि एक बार में ही सफलता मिल जाए। हर बड़े दावे को दोहरा कर दिखाना पड़ता है, जिनकी परीक्षा स्वतंत्र वैज्ञानिक करते हैं। यदि कोई सफल परिणाम दोबारा नहीं दिखाया जा सकता, तो वह असफल सिद्ध हो जाता है। अनेक झूठे प्रयोग इसी प्रकार पकड़े जाते हैं। जो जालसाजी पकड़ी जाती है, वह इस बात का प्रमाण है कि वैज्ञानिक विधि ही सफल होती है। फिर भी विज्ञान और देखरेख व जांच-पड़ताल की जरूरत है। अनेक झूठे दावे पकड़ में भी नहीं आते। इसलिए जो वैज्ञानिक ऊपर बैठे हैं, उन्हें नैतिकता से ही काम लेना पड़ेगा और अनैतिकता का पर्दाफाश करना होगा।जालसाजी के मामले भारत में भी हुए हैं। चंडीगढ़ के एक भू वैज्ञानिक ने हिमाचल के कुछ फॉसिल चट्टानें खोजने का दावा किया था, जो अमेरिका की सिद्ध हुई। लेकिन विज्ञान में जालसाजी पूरी तरह नहीं रूक सकती। यह भी जीवन के अन्य क्षेत्रों की तरह होती रहेगी। नाम कमाने और सबको पीछे छोड़कर आगे बढ़ने की लालसा हमेशा रहेगी, जिस पर नियंत्रण की सबसे ज्यादा जरूरत है। वैज्ञानिक शोध का काम बड़ा महत्वपूर्ण है और यह आसान भी नहीं है। आदमी की कमियां तो आड़े आती रहेंगी, जिनके विरूद्ध एक पूरा मोर्च स्थापित करना होगा। आखिर विज्ञान की साख कैसे बनी रहेगी?
www.rashtriyasahara.com से साभार

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