विभांशु दिव्याल
बता इस महान देश के गूंगे आदमी
उस दिन जब लाल नोटों के काले बंडल दिखाए जा रहे थे
समूचे देश की खुली आंखों के आगेजोर-शोर से लहराए जा रहे थे
उस दिन जब नैतिकता नंगी की जा रही थी
मर्यादाएं बाजारू बनाई जा रही थीं
झूठ, बेईमानी, धूर्तता और मक्कारी की इबारतें लिखी जा रही थीं
पाप को पुण्य और पुण्य को पाप कहा जा रहा था
अपराध को जीत का जयकारा बनाया जा रहा था
नियम, नीति, विधान-संविधान की बोली लग रही थी
और तेरे देश की तेरी अपनी संसद सरेआम तुझे ठग रही थी
तब तुझे कैसा लगा,
कैसा लगा तुझे जब लोकतंत्र की असलियत खुल रही थी
जब विधाताओं की काली करतूत की दुर्गंध
समूचे देश की हवा में घुल रही थी
और तब कैसा लगा तुझे
जब लड़की की हत्या पर
दिन में कई-कई घंटों तक चीख-चीख कर
जुगाली करने वाली
चौथी जमात कुंडली मार गयी
सड़ी खाल वाले चूहे की तरह
घिनौनी चुप्पी के बिल में घुस गयी
एक बेहयाई दूसरी बेहयाई के गले लग गयी
किसी ने नहीं खोजा कौन कितने में बिका
किसी ने नहीं तलाशा
किसने किसे कितने में खरीदा
आखिर इस कमीनी बेईमानी पर,
थूक कर चाट जाने वालों के दाम कितने तय हुए
सच को हर कीमत पर सामने लाने की शपथ कितने में बिकी
निष्पक्षता की दावेदारी किसके बिस्तर पर जा लेटी
इस महान देश के गूंगे आदमी
तुझे नहीं लगता यह तेरे हक पर डाका है
तेरे अधिकार और हित की नीलामी है
यहतेरे घर की बेहया लूट है
तेरी अस्मिता पर भद्दी, अश्लील चोट है
और तेरी सामान्य जिंदगी का क्रूर आखेट है
यह आखिर कब तक देखेगा, सुनेगा, सहेगा
यह तेरी विवशता की छाती पर कब तक चलेगा
यह उनसे उम्मीद मत कर कि उन्हें शर्म आएगी
उनकी तरफ मत देख कि उनकी दरिंदगी पिघल जाएगी
मत सोच कि वे तेरी बात बोलेंगे
या वे तेरे लिए कभी अपनी जुबान खोलेंगे
या अपने पैरों की कुटिल चाल कभी तेरी आ॓र मोड़ेंगे
बता, उस दिन किसने कसम खायी कि वह सच खोलेगा
किसने शपथ ली कि वह झूठ को उजागर करेगा
किसने दम भरा कि मक्कारी का नकाब खींचेगा
किसने प्रतिज्ञा की कि संसद की इज्जत बचाएगा
किसने घोषणा की कि बेहयाई की जीभ पर लगाम लगाएगा
किसने आश्वासन दिया कि
सड़ांध मारती गंदगी को खोदकर बाहर बहाएगा
इतनी नंगई कि नंगई शरमा जाए
इतनी बेशर्मी कि बेशर्मी घबरा जाए
इतना कुटिल झूठ कि झूठ को पसीना आ जाए
इतना क्रूर पाखंड कि पाखंड तिरमिरा जाए
क्या तू अब भी इनसे अपेक्षा करेगा,
इनसे जो जिस जमीन पर चलेंगे
उसे बंजर बना देंगे
जिस हवा में सांस लेंगे उसमें जहर मिला देंगे
जिस भाषा में बोलेंगे उसे गंदा नाला बना देंगे
जिन शब्दों को उचारेंगे
उन्हें काला बना देंगे
मूल्यों-मर्यादाओं को नंगा नचा देंगे
इस देश की आशाओं-आकांक्षाओं को मंडी में बिठा देंगे
बता इस देश के विवश आदमी
क्या गिद्ध बनाएंगे यहां के परिंदों के घोंसले
क्या सांप दिखाएंगे तुझे तेरे चलने के रास्ते
क्या लुटेरों के गिरोह करेंगे तेरे वर्तमान की रखवाली
क्या तेरे देश का भविष्य दल्ले तय करेंगे
बोल गूंगे आदमी दीवार पर माथा फोड़,
अपनी चेतना को झिंझोड़ मगर चुप्पी तोड़,
जुबान खोल बोल इस देश के गूंगे आदमी,
बोल !
www.rashtriyasahara.com से साभार
3 comments:
बहुत गहरे और चेतना को झकझोर देने वाले प्रश्न है ये.
और इन्ही प्रश्नों ने हम सब की जिंदगी को एक अनुत्तरित सवाल बना दिया है.
सुन्दर अभिव्यक्ति।
कब तक यह गुगां नही बोलेगा, क्यो नही बोलत यह गुगां,हे भगवान इन गुंगो को भी हिम्मत दे बोलने की.
बहुत ही गहरी सोच लिये हे आप की कविता,झकझोर दे हर दिमाग को हर गूंगे की जबान को .धन्यवाद
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